जब अन्ना हजारे उठे… और फिर क्यों चुप हो गए

सुरेश देवसहाई @ नया सवेरा 

मैंने बचपन में किताबों में गांधीजी के बारे में पढ़ा था। मन में हमेशा एक ही ख्वाहिश उठती—काश मैं उनके दौर में पैदा होता, ताकि उनके आंदोलनों में कंधा से कंधा मिलाकर चल पाता। लेकिन अब वह मलाल मिट चुका है, क्योंकि मैं आज के गांधी—अन्ना हजारे—के आंदोलन (16 अगस्त 2011 से 28 अगस्त 2011) का हिस्सा बनकर खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं।


गांधीजी पूरे विश्व में अहिंसा के प्रतीक हैं। उन्होंने दुनिया को यह सिखाया कि बिना हथियार उठाए भी सत्ता बदली जा सकती है, साम्राज्य हिलाए जा सकते हैं। आज, उसी भारत की धरती पर एक और गांधी खड़ा है—अन्ना हजारे। जो काम महात्मा गांधी ने अधूरा छोड़ा था, वही मिशन अन्ना हजारे आगे बढ़ा रहे हैं—कम से कम उस समय ऐसा लगता था।


कभी हम अहिंसा और अनशन को सिर्फ किताबों में पढ़ते थे। लेकिन अन्ना हजारे ने उन्हें ज़िंदा कर दिखाया। जिस तरह गांधीजी ने अहिंसा के बल पर भारत को अंग्रेज़ों की गुलामी से मुक्त कराया था, उसी तरह अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेड़ी—वह भी बिना हिंसा के, सिर्फ सत्य और त्याग की ताकत से।


21वीं सदी में विज्ञान अपने चरम पर है। दुनिया मौत के नए हथियार बना रही है। मिस्त्र, लीबिया, नेपाल में लोग बदलाव के लिए हिंसा का रास्ता चुन रहे हैं। लेकिन भारत में एक 74 साल का वृद्ध सिर्फ पानी पीकर 13 दिन तक उपवास करता है—और पूरी व्यवस्था को झुका देता है। अन्ना का यह साहस और संयम अद्भुत था।


जन लोकपाल आंदोलन ने वह कर दिखाया जो 40 साल से असंभव लग रहा था। संसद, जो बार-बार लोकपाल बिल को ठुकरा चुकी थी, अन्ना की लड़ाई के आगे झुक गई। दोनों सदनों ने इस पर चर्चा की और ध्वनि मत से इसे पारित किया। यह जीत सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि पूरे देश की थी।


इस आंदोलन में मेरी अपनी यात्रा भी यादगार रही। मैं, सुरेश देवसहाई, और मेरे साथी—संदीप पांडे और योगेश शुक्ला—तीनों ने अपनी मीडिया की स्थायी नौकरी छोड़ दी, क्योंकि हमें लगा कि यह सिर्फ एक खबर नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक मोड़ है जिसमें हमारा भी योगदान होना चाहिए। हमने कैमरा और कलम छोड़कर आंदोलन के बैनर और नारे उठा लिए।


एक दिन आंदोलन के दौरान हमें गिरफ्तार कर दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम में कैद कर दिया गया। हम वहाँ करीब डेढ़ दिन रहे। उस समय हमारा नेतृत्व कवि कुमार विश्वास कर रहे थे, लेकिन उनका ध्यान हम लोगों की परेशानियों से ज्यादा अपने सदरी कोट बदलने और मीडिया को बाइट देने में था। भूख और प्यास से बेहाल हम लोगों के लिए किसी ने कुछ इंतज़ाम नहीं किया—भला हो अस्मिता थिएटर के अरविंद गौड़ सर का, जिन्होंने बाहर से पार्ले बिस्कुट और पानी स्टेडियम के भीतर फेंककर हमारी जान बचाई। उस समय महसूस हुआ कि आंदोलन के मंच पर कुछ लोग सिर्फ चेहरा चमकाने आए थे, जबकि असली संघर्ष तो गुमनाम चेहरों ने झेला।


लेकिन बाद में जब मुझे पता चला कि यह आंदोलन पूरी तरह निष्पक्ष नहीं था—बल्कि इसके पीछे राजनीतिक प्रायोजन, RSS और BJP के एजेंडे की भी अफवाहें थीं—तो मुझे गहरा धक्का लगा। और यह भी साफ़ हो गया कि अन्ना हजारे खुद भी पूरी तरह स्वतंत्र सोच से काम नहीं कर रहे थे, बल्कि किसी और के कहने और योजना के तहत आंदोलन चला रहे थे। अगर यह लड़ाई वाकई पूरी तरह जनता की थी, तो फिर बाद में हुए किसान आंदोलन जैसे बड़े जनांदोलन में अन्ना का नाम क्यों नहीं दिखा? किसानों के हक़ की लड़ाई में उन्होंने चुप्पी क्यों साधी?


ऐसा लगा जैसे 2011 का अन्ना हजारे आंदोलन एक सीमित लक्ष्य के लिए और सीमित समय तक था—और जब वह लक्ष्य किसी के राजनीतिक फायदे में बदल गया, तो अन्ना भी मंच से उतर गए। जो व्यक्ति खुद को जनता की आवाज़ बताता था, वह अगली बड़ी जन-लड़ाई में नज़र तक नहीं आया। यह चुप्पी बताती है कि शायद वह आंदोलन उतना "जन" का नहीं था, जितना हमें दिखाया गया।


आज भी देश में भ्रष्टाचार पहले की तरह मौजूद है, बल्कि कई रूपों में और गहराई से फैला हुआ है। फर्क बस इतना है कि अब अन्ना हजारे जैसे आंदोलनकारी नहीं उठते—या यूँ कहें, कि वे उठते भी हैं तो सिर्फ तब, जब कोई अदृश्य ताकत उन्हें उठाती है। जन लोकपाल कानून कागजों में रह गया, वह राष्ट्रीय जागरण जो उस आंदोलन ने जगाया था, धीरे-धीरे ठंडा पड़ गया।


फिर भी, उस आंदोलन की प्रासंगिकता आज भी बरकरार है—क्योंकि उसने यह साबित किया कि जनता अगर एकजुट हो जाए, तो सत्ता को झुकाना संभव है। लेकिन यह भी सिखा गया कि किसी आंदोलन की असली ताकत उसके मकसद की शुद्धता में होती है, न कि नेता के चेहरे में।


अब यह लड़ाई सिर्फ अन्ना की नहीं, हमारी है। और हमने, अपनी नौकरी, अपनी सुविधा, और अपनी सुरक्षा छोड़कर, यह साबित किया है कि बदलाव लाने के लिए सबसे पहले खुद को बदलना पड़ता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग जीतनी है, तो हर भारतीय को न केवल आवाज़ उठानी होगी, बल्कि यह भी देखना होगा कि वह आवाज़ सही दिशा में जा रही है या किसी और के एजेंडे का हिस्सा बन रही है।

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