Poetry: मैं शहर होता ...
नया सवेरा नेटवर्क
मैं शहर होता ...
मैं शहर होता ... तो चुरा लेता...
वो गाँव की कुनकुनी सी धूप
और हरियाली वाली रंगत ,
मुहारे पर बैठी गप्पें मारती
वो बुज़ुर्गों की सेहतमंद संगत ,,
हर घर से पशु-पक्षियों के लिए
निकलने वाली वो पहली रोटी की परम्परा ,
वो बारिश में गीली मिट्टी की
सोंधी ख़ुशबू से गमकती हुई धरा ,,
किस्से -कहानियों में ढलती हुई हर शाम ,
आँगन में महकते हुए वो रिश्ते तमाम ,,
चुरा लेता...
वो ज़िन्दगी की ख़ुशनुमा रंगीनियत ,
सजा देता...
शहर को और शहर की तरबियत ,,
मैं शहर होता ... तो न बसने देता ...
ये अकेलेपन और उदासियों के जंगल ,
इमारतों में पनपते ये अवसाद के गरल ,,
क़ाश ऐसा होता... ग़र मैं शहर होता...
प्रियंका सोनी