पाकिस्तान अधिकृत बलूचिस्तान पर अब चुप्पी तोड़ने का वक्त | Naya Sabera Network

It's time to break the silence on Pakistan-occupied Balochistan Naya Sabera Network

–प्रोफेसर शांतिश्री धुलीपुड़ी पंडित, कुलगुरू जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय 

नया सवेरा नेटवर्क

"पाकिस्तान के कब्जे वाले बलूचिस्तान की हकीकत को उजागर करने के लिए स्थायी राजनीतिक और कूटनीतिक प्रयास जरूरी हैं।" दक्षिण एशिया में विश्वासघात का लंबा और अधूरा इतिहास है। इनमें से कुछ घटनाएँ  जानबूझकर दबा दी गई हैं। ये घटनाएं न केवल नैतिक और राजनीतिक रूप से जघन्य हैं, बल्कि एक बौद्धिक साजिश के जरिए इनका उल्लेख भी उपेक्षित रहा है। जैसे कि बलूचिस्तान का पाकिस्तान द्वारा कब्जा। दुनिया इसे बलूचिस्तान कहती है, पर हमें खुलकर कहना चाहिए पाकिस्तान अधिकृत बलूचिस्तान। एक भूमि जो धोखे से कब्जाई गई है। विडंबना यह है कि इसकी जनता का उपनिवेशीकरण बाहरी अव्यवस्थित ताकतों से नहीं बल्कि स्वघोषित अपने खुद के देश द्वारा किया जा रहा है। बलूचिस्तान परस्पर विश्वास की एक दुखद त्रासदी है, जो पाकिस्तान राजनीति और सैन्य शक्ति द्वारा सदमे में बदल दी गई है।

मार्च 1948 में, खानतान-ए-कालात का एकीकरण न तो स्वेच्छा से हुआ और न ही यह स्वाभाविक था। यह दबाव, षडयंत्र,  सौदेबाजी, और सैन्य बल के हौके में की गई एक कार्रवाई थी। यह सबसे खतरनाक विश्वासघात था। उत्तर आधुनिकता के संदेहवाद के मानकों से भी ऊपर। फिर भी, पाकिस्तान की इतिहास की किताबें इसे “विलय” के रूप में महिमामंडित करती हैं।  पश्चिमी देशों आराम से कुंभकर्णी नींद में सोये हैं। जबकि बलूच जनता जानती है कि असल में क्या हुआ। वे भूले नहीं हैं और न ही हमें भूलना चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि कालात एक स्वतंत्र रियासत थी, जो ब्रिटिश शासन आंशिक नियंत्रण में था। जब ब्रिटिश चले गए, तो कालात ने 11 अगस्त 1947 को अपनी स्वतंत्रता घोषित की, यानी पाकिस्तान के बनने से महज तीन दिन पहले। उसने भी पाकिस्तान के साथ स्थिरता के समझौते पर हस्ताक्षर किए, जैसे हैदराबाद और अन्य रियासतें भारत के साथ की थीं। पर संविधानवाद और कानून के शासन को दुहाई देने वाले  मोहम्मद अली जिन्ना  ने बलूचिस्तान की स्वतंत्रता स्वीकार नहीं किया और उनके उपर पाकिस्तान में शामिल होने का सैन्य दबाव बनाया। कुछ ही महीनों के भीतर, कालात को पाकिस्तान में निगल लिया गया और खान को मजबूरन “अधिग्रहण पत्र” पर हस्ताक्षर करने पड़े। क्या इसे एकीकरण कहा जा सकता है? यह सिर्फ एक अवैध कब्जा है जो आज भी कायम है। उसे ऐसे ही उपेक्षित करना विश्व समुदाय के लिए कितना उचित होगा? दुर्भाग्यवश, उस समय भारत सरकार खामोश और अनजान बनी रही। इसी तरह की चुप्पी हमने चीनी सेना के तिब्बत में घुसपैठ पर साधी थी। तब भी ग्वादर पाकिस्तान को सौंप दिया था। जबकि ओमान ने उसे हमें देने का प्रस्ताव रखा था। गुट निरपेक्ष आंदोलन और नैतिक सर्वोच्चता की भाषा बोलने वाली नेहरू सरकार का भौगोलिक अवचेतन हिल गया था। हमने ऐतिहासिक मोर्चों पर आंखें मूंद रखीं और दूसरों ने वह हासिल कर लिया जो हमारा होना चाहिए था या कम से कम पाकिस्तान का या चीन का ह नहीं होना चाहिए था। पाकिस्तान ने ग्वादर हासिल कर लिया। चीन ने तिब्बत। इस बीच, नेहरू और उनके समर्थक नैतिक श्रेष्ठता में मग्न रहे।

बलूचिस्तान कभी पाकिस्तान का हिस्सा नहीं था, और आज, यह अधिक अकेलेपन और उत्पीड़न का सामना कर रहा है। एक उपनिवेश की तरह, पाकिस्तान बलूचिस्तान के संसाधन का शोषण कर रहा है। अपनी कमजोर और फेल होती हुई आर्थिक स्थिति को उनके संसाधनों से पूरा करने की कोशिश में लगा है। परिणामस्वरूप, बलूचिस्तान उपेक्षा, सैन्य कब्ज़े, और उस प्रणाली द्वारा नष्ट कर दिया गया है जो उसके अपने लोगों को सताने और उसकी संसाधनों का लूट के काम आ रहा है। दूसरे शब्दों में, पिछले सात दशकों में पाकिस्तान ने बलूचिस्तान में जो किया, वह ब्रिटिश औपनिवेशिक लूट से कम नहीं है। जमीन पर कब्ज़ा, जनसांख्यिकी का बदलाव, बिना मुआवजे के संसाधनों का दोहन, जबरन लोगों को गायब करना, अनाम कब्रिस्तान, विचारकों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्या, ये सब ऐसी क्रूर सूची है जो किसी सभ्य राज्य को शर्मिंदा कर सकती है। सिवाय पाकिस्तान के। क्योंकि वो बेशर्मी की हर अमानवीय पहल पर आमादा है। इन सभी अत्याचारों के बावजूद, बलूच जनता गर्व से विरोध करती है। वे शांति, दृढ़ता और बहादुरी से पाकिस्तानी अत्याचारों का विरोध करते हैं। उनका आंदोलन दृष्टिहीन नहीं है, बल्कि ऐतिहासिक स्मृति और सांस्कृतिक गौरव का प्रतीक है। बलूच संघर्ष ऐसी जनता की संघर्ष कहानी है जो मिटने से इंकार करती है।

वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय जो कश्मीर में होती घटनाओं पर तुरंत बोल उठता है, बलूचिस्तान के संदर्भ में मौन प्रतिक्रिया देता है? पूरी चुप्पी। वही विश्व जो यूक्रेन के लिए रोता है, गाजा के लिये रोता है, और म्यांमार में अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाता है, वहीं उदार विश्व सैन्य कानून के बूटों तले कुचली जा रही बलूच जनता के लिए आंख बंद कर लेती है। ये कैसा दोहरापन है? बलूचिस्तान की जनसंख्या को मर मर के जीते क्यों  नहीं देखता? क्योंकि पाकिस्तान ने परमाणु धमाके का खेल कर लिया है। वह इस्लाम के झंडे के पीछे छिपता है, अपनी बदहाली का रोना रोता है, और हर बार जब कोई उसके व्यवहार पर सवाल उठाता है, तो अस्थिरता के खतरे का हवाला देने लगता है। लेकिन अब हमें और धोखा नहीं खाना चाहिए।

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आज, पाकिस्तान अब एक स्वतंत्र इच्छा वाला देश नहीं रहा। यह एक सामंत राज्य है, जो तीन मालिकों की सेवा कर रहा है। अमेरिका अभी भी अपने सैन्य अड्डों पर प्रभाव रखता है, चीन CPEC और कर्ज जाल की कूटनीति से उसे पंगु बना उसका फायदा उठा रहा है, और तुर्की एक आदर्श रक्षक की भूमिका निभा रहा है। यह एक तरह का कट्टर इस्लामिकवाद है। यह मुकरने  और बात से पलटने का एक आधार माना जाता है। इस महान शतरंज के मैदान में, बलूचिस्तान हमेशा उस बलिदानी मोहरे के रूप में मौजूद है, जिसे अक्सर कुर्बान कर दिया जाता है। उसकी कभी बात नहीं की जाती।

यह आज दक्षिण एशिया मानवाधिकार और लोकतंत्र के नाश का खतरा बन गया है। इसलिए भारतीय दृष्टिकोण से, हमें सवाल उठाना चाहिए कि हम बलूचिस्तान के लिए क्या जिम्मेदारी निभाते हैं। हमें किस बात का जिम्मा है? स्पष्ट कर दें: भारत बलूचिस्तान की त्रासदी का कारण नहीं है, इसलिए इसके विषय में हमेशा खामोश रहा। दशकों तक, हमने एक रणनीतिक अस्पष्टता का रुख अपनाया, उम्मीद थी कि चुप्पी हमें अंतरराष्ट्रीय आलोचना से बचाएगी। लेकिन अब वह दौर खत्म हो चुका है। मोदी की नई नीति को भी उसी नैतिक स्पष्टता और रणनीतिक साहस का अनुकरण करना चाहिए, जैसा कि बालाकोट और ऑपरेशन सिंधूर में किया गया। जब संयम जबाबी कार्रवाई बन जाए, जब अस्पष्टता स्पष्टता में बदल जाए, तो यह सिर्फ़ विरोध जताने और भाषणों का विषय नहीं है। यह असुविधाजनक होने पर भी सच्चाई बताने का विषय है। 2016 में, प्रधानमंत्री मोदी ने लाल किले से बलूचिस्तान का जिक्र करके बेहद साहसिक कदम उठाया था। इसने इस्लामाबाद को हैरान कर दिया। लेकिन निश्चित रूप से, यह केवल एक अर्थहीन बात नहीं थी; बल्कि, यह संकेत था कि भारत अब भय से लिखी गई नियमावली से खेलने वाला नहीं है। वर्षों से, भारत ने दिखाया है कि वह पाकिस्तान के परमाणु धमाकों की गीदड़ भभकी नष्ट सकता है। उसे आतंक से ब्लैकमेल नहीं किया जाएगा, बल्कि घर में घुस कर आतंक का सफाया करेंगे।   पाकिस्तान के धार्मिक अंधविश्वास का पर्दाफाश कर सकता है। यह साहसिक इच्छाशक्ति  हालिया सर्जिकल स्ट्राइक की ऑपरेशन सिंदूर के रूप में सामने आया। यद्यपि विवरण गोपनीय हैं, इसका संदेश स्पष्ट था: भारत अब आतंकवाद का मूक दर्शक नहीं रहेगा। वो चाहे सीमा के पार या भीतर से आता है। हालांकि यह सर्जिकल स्ट्राइक पाकिस्तान-आबाद क्षेत्रों में आतंकवादी ढांचे को खत्म करने के लिए थी, इसमें एक और प्रतीकात्मक परत भी थी कि जब बात आतंक और न्याय की आती है तो भारत PoK और बलूचिस्तान के बीच कृत्रिम रेखा नहीं मानता । परिणामस्वरूप, रणनीतिक चुप्पी अब संतुलित कार्रवाई में बदल गई है।

आगे जो होना चाहिए, वह है राजनीतिक और कूटनीतिक प्रयासों का दीर्घकालिक और सतत अभियान, ताकि पाकिस्तान कब्जे वाले बलूचिस्तान की हकीकत को उजागर करें। हमें अपना क्रोध रोकना नहीं चाहिए। यदि हम PoK की बात करते हैं, तो हमें बलूचिस्तान की भी बात करनी होगी। यदि हम बांग्लादेश में मानवाधिकार का उल्लेख करते हैं, तो हमें बलूच के लिए भी आवाज उठानी चाहिए। यदि हम न्याय में विश्वास रखते हैं, तो निष्पक्षता का पक्षधर होना चाहिए। भारत को अंतरराष्ट्रीय साझेदारी भी विकसित करनी चाहिए, ताकि बलूच आवाज को वैश्विक मंचों पर बुलंद किया जा सके। नागरिक समाज के मंचों, प्रवासियों से जुड़ाव, या डिजिटल कूटनीति के माध्यम से, हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बलूच संघर्ष केवल हैशटैग और अस्थायी ट्वीट्स में सीमित न रह जाए।

यह एक सच्ची लड़ाई है एक ऐसी सेना के खिलाफ, जो अपने अस्तित्व को राजनैतिक और सामाजिक स्तर पर मिटाने के लिए आमादा है। पाकिस्तान अधिकृत बलूचिस्तान एक वास्तविकता है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता और न ही दरकिनार किया जाना चाहिए। नेहरूवादी सोच ने नेहरू की विदेशी नीति को उसकी नैतिक और अप्राकृतिक दावों के लिए सराहा, जबकि उन्होंने जो रणनीतिक प्रस्ताव खारिज कर दिए, उन पर ध्यान नहीं दिया। लेकिन यह पूछना होगा कि नैतिक दावों में भी, वे बलूच जनता के संघर्ष को लेकर चुप क्यों थे? उनके प्रति ऐसी नेत्रहीनता क्यों थी? आगे बढ़ते हुए, हमें पाकिस्तानी कब्ज़े का स्पष्ट रूप से विरोध करना चाहिए, और सबसे जरूरी बात, बलूचों के प्रति चुप्पी का अंत होना चाहिए।

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