National : रज़ा फाउंडेशन और कृष्णा सोबती-शिवनाथ निधि द्बारा आयोजित ‘युवा 2025’ कार्यक्रम | Naya Savera Network



नया सवेरा नेटवर्क

नयी दिल्ली। रज़ा फाउंडेशन और कृष्णा सोबती-शिवनाथ निधि द्बारा आयोजित ‘युवा 2025’ हिन्दी की मूर्धन्य कथाकार कृष्णा सोबती पर एकाग्र था। यह कार्यक्रम संस्कृतकर्मी प्रगतिशील कवि अशोक वाजपेयी और संजीव कुमार जी के देखरेख में मल्टीपरपज हाल, कमलादेवी ब्लॉक, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर नई दिल्ली में सम्पन्न हुआ। भारत के 34 युवा लेखकों ने इसमें प्रतिभाग किया। विषयगत कुल नौ सत्र थे, समापन सत्र सहित कुल 10 सत्रों में यह आयोजन सम्पन्न हुआ। संस्कृतकर्मी अशोक वाजपेयी ने बताया कि पिछले सात वर्षों से यह मंच युवाओं को उत्पात मचाने अर्थात् इस प्रक्रिया के तहत कुछ इनोवेटिव करने का मौका देता आ रहा है। सैयद हैदर रज़ा भारत के महान चित्रकार ने इसकी नींव रखी थी, उन्होंने इसके लिए इतनी राशि प्रदान की कि आज हमें किसी भी सरकारी या गैरसरकारी संस्थाओं से अनुदान का सहारा नहीं लेना पड़ता है। उन्होंने कहा था कि साहित्य, शास्त्रीय संगीत, शास्त्रीय नृत्य, कला के क्षेत्र में युवा लोगों की प्रतिभाओं को सामने लाने का उपक्रम करना चाहिए , यह इस फाउंडेशन का उद्देश्य है।सोबती जी ने 1 करोड़ 11लाख की राशि इस फाउंडेशन को प्रदान किया था। उनके पहले  और उनके बाद हिंदी के किसी बड़े लेखक ने इतनी बड़ी राशि फिर कभी नहीं दी। डोंगरी के प्रसिद्ध लेखक शिवनाथ जी ने एक करोड़ रुपए की राशि प्रदान की थी। इस आयोजन के प्रबंध न्यासी अशोक वाजपेयी जी ने बताया कि यथार्थ ठोस शब्द की अभिव्यक्ति है और इसे व्यक्त करने के लिए गल्प की आवश्यकता होती है।


पहला सत्र जिसका विषय था –‘लेखकीय दृष्टि और औपन्यासिक दृष्टि का द्वंद्व’ इसमें प्रतिभाग करने वाले युवा अनुपम सिंह, अणुशक्ति सिंह, कुमार मंगलम और जगन्नाथ दुबे थे। इस सत्र से जो बातें निकलकर आईं। सोबती लेखक की दृष्टि को लोकतांत्रिक संदर्भ में देखती हैं। साहित्य का अपना लोकतंत्र है। हम लेखकों के बौद्धिक संघर्ष में पलते हैं। डार से बिछुड़ी ब्रिटिशकालीन गल्प आख्यान है। ये  बातें कुमार मंगलम ने रखीं। लेखकीय दृष्टि और औपन्यासिक दृष्टि दो भिन्न चीज़ है। सामान्यतः यह माना जाता है कि लेखक की दृष्टि ही उसकी रचना दृष्टि रहती है जबकि ऐसा अक्सर सही नहीं होता। प्रेमचंद की दृष्टि गांधीवादी थी जबकि अपने औपन्यासिक दृष्टि में वे गांधीवाद का कई बार अतिक्रमण कर जाते हैं। इसी तरह की छूट सोबती भी लेती हैं । वे कहती थी कि जो काम एक पुरुष कर सकता है वो मैं भी कर सकती हूँ। मैं स्त्री की तरह नहीं लेखक की तरह जीती हूँ। गिरधर राठी ने उनकी जीवनी में लिखा है कि सोबती को घुड़सवारी का बड़ा शौक था। यारों के यार में गालियां हैं। जब सोबती से एक लेखक ने कहा आप गालियां केवल लिखती हैं कि देती भी हैं इस बात पर उन्होंने मंच से गाली देकर साबित कर दिया कि वे चैलेंज को चैलेंज करती हैं। कृष्णा जी में एक संपूर्ण मनुष्य दिखाई देता है। लिंगभेद न उनके जीवन में था और न ही लेखन में। मित्रो का आखिरी हिस्सा थोड़ा नाटकीय ढंग का है। मित्रो की सास फूलावंती और उसकी जेठानी सुहागवन्ती दोनों ही मध्यवर्गीय दृष्टि वाली महिला हैं। जबकि मित्रो का चरित्र इस मध्यवर्गीय सामाजिक संरचना से टकराता है। लेखक को अलग-अलग दृष्टि वाले पात्रों की रचना करनी पड़ती है। एक लेखक की दृष्टि का प्रतिनिधत्व करने वाले पात्र होते हैं और दूसरे पात्र लेखक की दृष्टि के अनुकूल नहीं होते फिर भी लेखक को इनकी सृष्टि करनी पड़ती है और इस क्रियाकलाप में लेखक का द्वंद्व उभर आता है। सोबती शब्दों में मितव्ययिता बरतती हैं। ये बातें डॉ. जगन्नाथ दुबे ने रखी। अणुशक्ति सिंह ने बताया कि लेखिका ने हम हशमत भाग 4 में लिखा है कि लेखक को अपने आंतरिक शोर से बाहर के शोर को सोखना पड़ता है। अमृता प्रीतम के शोक संदेश में जब कुछ पुरुष लेखकों ने अभद्र किस्म की टिप्पणी की तब सोबती ने उसके प्रतिकार में लिखा था कि इस तरह की अभद्र टिप्पणी करके पुरुष लेखक अपने पितृसत्तात्मक सोच का पुख़्ता प्रमाण पेश कर रहे हैं। लेखक का नागरिक जिस प्रजातंत्र में स्थित है वह कोई छोटा प्रजातंत्र नहीं है जैसा आज देखने को मिल जाता है। अनुपम सिंह ने कहा कि हेनरी जेम्स ने लिखा है कहानी की कम से कम पांच मिलियन शैलियाँ हो सकती हैं लेकिन उसकी एक मुख्य केंद्रीय चेतना होती है। द्वंद्व वह मनःस्थिति है जो दो मूल्यों, विचारों, भावों के चुनाव को लेकर उत्पन्न होते हैं। मित्रो मरजानी में उसकी जेठानी सुहागवन्ती के चरित्र में नैतिकतावादी दृष्टि को लक्ष्य कर सकते हैं। मित्रों मरजानी का नाटकीय अंत लेखिका के द्वंद को दर्शाता है। ज़िदग़ीनामा में अविभाजित हिन्दुस्तान के आदि से अंत तक का जीवन है जो अपनी रवानगी में बह रहा है। उसमें भविष्य का स्वप्न भी है और कल्पना भी है जो ज़िन्दग़ीनामा को पल्लवित करता रहता है। लेखिका ने लिखा है समय के साथ सबकुछ बदल जाता है अगर कुछ नहीं बदलता है तो वह है मुल्कों की ख़ल्कतें। इस सत्र के वक्तव्यों पर प्रियदर्शन जी ने टिप्पणी की। इस आयोजन में एक बात तो थी ईमानदारी। टिप्पणीकर्ताओं ने अपने अपने टिप्पणियों में जो ईमानदारी बरती है जो एक ईमानदार आलोचक के प्रमाण रूप में सामने आता है। प्रियदर्शन जी ने लेखकीय द्वंद्व के विषय में बताया कि लेखक लिखना कुछ चाहता है पर चरित्र उसके हाथों से फिसल जाते हैं। अज्ञेय के साथ कुछ इसी तरह का घटित हुआ था उन्होंने स्वीकारा है कि शेखर उनके हाथ से छूटता गया और एक समय ऐसा आया कि जिस शेखर को वे खड़ा करना चाहते थे उससे एकदम भिन्न किस्म का शेखर निर्मित हो चुका था। ऐसी ही घटना टॉलस्टाय के साथ ‘अन्ना केरनिना’ के स्त्री चरित्र के सन्दर्भ में घटित होता है। वे उस चरित्र से आत्महत्या नहीं करवाना चाहते थे लेकिन अंततः वह आत्महत्या कर लेती है। मित्रो मरजानी के संदर्भ में लेखकीय दृष्टि का द्वंद्व औपन्यासिक दृष्टि पर भारी पड़ जाता है। यहाँ व्यक्ति की आज़ादी और समाज का द्वंद्व है। कृष्णा जी समाज के बिना व्यक्ति को अधूरा मानती हैं। वे मित्रों को समाज के उस संयुक्त परिवार में लौटा लाती हैं 



दूसरा सत्र जिसका विषय था - भाषा का वितान। इस सत्र में शामिल युवा लेखक थे रश्मि भारद्वाज, अमिता मिश्र और ‘मोर्चे पर विदागीत’ के कवि डॉ.  विहाग वैभव। अमिता मिश्र जी डार से बिछुड़ी के सन्दर्भ में कहती हैं कि दुःख में व्यक्ति का परिवार बड़ा हो जाता है, दुःख लोगों को आपस में जोड़ देता है। सोबती ने अपने साहित्य में पंजाबी, गुजराती के देशज शब्दों का उपयोग किया है। उनके शब्द आंचल की जीवंतता को समेटे हुए है। दिलो दानिश की महकबानो की बोली में एक रुआब है। विहाग वैभव कहते हैं कि नागरिक अस्मिता के लिए कोई बीच का रास्ता नहीं होता। हिन्दी भाषा का मेरा लिंग विवेक सोबती को लेखिका कहने की गवाही नहीं देता, सोबती ख़ुद को लेखक कहलाना पसंद करती थी। ‘ऐ लड़की’ उपन्यास की भाषा संवादधर्मिता के क्रम में कविताधर्मी है। पूरे उपन्यास की संरचना कविता की संरचना में है। इसके वाक्यों में दार्शनिक मुद्रा दिखाई देती है। ‘सुबह के नाम वाली लड़की’ का प्रयोग लेखिका ने किया है वह चाहती तो ‘उषा’, ‘अरुणा’ जैसे शब्दों का उपयोग भी कर सकती थी लेकिन उन्होंने संबोधन वाक्य का इस्तेमाल नहीं किया है। उपन्यास अपनी मूल संरचना में लंबी कविता की तरह दिखाई देती है। भाषा ऐसी गठी हुई कि एक ‘हूँ’ भी अतिरिक्त नहीं है। जैसे एक वाक्य भी अम्मू अतिरिक्त बोल देंगी तो उनके प्राण निकल जाएंगे। मित्रो को मुखर कहने के स्थान पर बोल्ड कहना ज्यादा उपयुक्त है। वासना परम प्राकृतिक है। बढ़ती उम्र के साथ साथ वासना का सूर्य डूबता है और साहचर्य का चाँद निकल आता है, यही मित्रों के सन्दर्भ में भी घटित होता है। मित्रो अकेले भी पूरा उपन्यास है। सोबती ने कुछ शब्द ऐसे प्रयोग किए हैं जो उनकी भाषाई गरिमा में भद्दा है। मित्रो की सास जब मित्रो से कहती है, ‘तेरे जैसी से तो चूड़ी चमारिन कई अच्छी हैं।’ इस तरह के जातिगत गाली वाले शब्दों के प्रयोग का कारण कृष्णा सोबती के अभिजात्य सामाजीकरण की प्रक्रिया की देन समझना चाहिए। यदि वे ‘माँ’ की गाली देने से बच रही हैं तो इस तरह के जातिगत गाली वाले शब्दों का इस्तेमाल करने से गुरेज क्यों नहीं कर रही हैं। लेखक की सीमाओं को गिनाने से लेखक का ही व्यक्तित्व बड़ा होता है।
रश्मि भारद्वाज कहती हैं कि लेखक की जूती न इतनी तंग हो और न इतनी ढीली बल्कि इतना फिट कि लेखक स्वाभिमान से सिर उठाकर चल सके। विमर्श की जूती उतारकर ही हम सोबती की रचना में प्रवेश कर सकते हैं । भाषा का होना अनंतिम, स्थिर होना है। सोबती लेखक की सीमा भाषा को मानती हैं। भाषा में मुठभेड़ की स्थिति जारी है। हमें रचनाओं में भाषिक द्वंद्व देखने की जरूरत है। कृष्णा जी के लिए भाषा ज़िंदा ज़बान है। यह जिंदा ज़बान शब्दकोश से नहीं गढ़ा जा सकता है, यह ज़बान लोक की भाषा है। भाषा सोबती के लिए आत्मा का संस्कार है और इसी रूप में भाषा उनकी कृति का अंग बनकर आती है। स्त्री की आत्मा का कोई लिंग नहीं होता। मित्रो अपनी सेक्सुअलिटी को खुलकर एंजॉय करती है और इस पर खुलकर बात करती है। 
इस सत्र की पर्यवेक्षक प्रो. सुधा सिंह कहती हैं लेखक की भाषा न्यूट्रल नहीं है, तटस्थ नहीं है लेकिन जो पायदान है सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक इस पायदान में तटस्थ भाषा बरतना कठिन है। इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक रिसर्च के मुताबिक हम जेनेटिक कारण से भाषा को बरतते हैं जिस भाषा को हम बरतते हैं वह केवल समाज की ही देन नहीं है। सोबती स्वयं को उभयलिंगी मानती थी। भाषा को लिंग विशेष से इतर होकर नहीं बरत सकते। विमर्श का लक्ष्य विमर्श के पार जाना है। जब वे भाषा बरतती हैं। भाषाएँ समाज द्वारा घुट्टी की तरह पिलाया जाता है। सोबती माँ की गाली देने से बचती हैं। स्त्री का देह भी उसकी भाषा से अलग नहीं है। स्त्री की भाषा स्त्री देह से संवलित है। लेखक किस जगह खड़ा है और कह क्या रहा है। जगह उसकी अपनी है, जमीन उसकी अपनी है तो वह विश्वसनीय है। सत् पात्र कृष्णा जी के हैं तो असत् पात्र भी उनके ही है। ऐ लड़की की भाषा दार्शनिक चिंतन की शैली में है। कृष्णा सोबती की भाषा राजनीतिक संवादी भाषा है। एक चेतस स्त्री रचनाकार की भाषा है। सोबती कहती हैं कि हमारी कलमों की स्याही और बगलों के पसीने सूखे नहीं है। स्याह स्याह होगा और सफेद सफेद होगा।


तीसरा सत्र ‘कृष्णा सोबती और हिन्दी आलोचना’ विषय पर केंद्रित रहा। इस सत्र में अल्पना सिंह, ‘मैं थिगली में लिपटी थेर हूँ’ संग्रह की कवयित्री ज्योति रीता, अदिति भारद्वाज, आकांक्षा और संदीप तिवारी बतौर वक्ता शामिल थे। सत्र के समीक्षक प्रसिद्ध आलोचक प्रो. गोपेश्वर सिंह थे। 
अल्पना सिंह ने बताया उनका पहला परिचय, पहला प्यार सोबती हैं। नामवर जी ने जब सोबती से स्वदेश दीपक की कृति ‘मैंने मांडू नहीं देखा’ पर लिखने के लिए कहा। उन्होंने लिखा था यह सबसे बीमार व्यक्ति की सबसे स्वस्थ कृति है। कृष्णा सोबती सभा में आती नहीं हैं बल्कि प्रवेश करती हैं। लिखना जीवन है, जीवन शैली है। लेखक की पहचान साधारण नागरिक होने से थोड़ा विशेष हो जाना है। लेखक सिर्फ कलम से नहीं लिख रहा होता है उसका एक दायित्व किसी भी विचार को आलोचक की ठंडी दृष्टि से बचाना भी है। उनके पास लेखन का अनुशासन है।
‘मैं थिगली में लिपटी थेर हूँ’ संग्रह की कवयित्री ज्योति रीता ने कहा कि मैं फणीश्वरनाथ रेणु के मैला आंचल उपन्यास के उसी मेरीगंज से आई हूँ। मेरीगंज मेरी जन्मभूमि है। सोबती की रचनाओं में स्त्री मनोविज्ञान का खूबसूरत चित्रण है। कृष्णा सोबती का साहित्य आलोचकों के लिए एक नया विमर्श खोलता है। मार्कण्डेय ने लिखा है कि नारी में मित्रो का निवास मुख्य है। विश्वनाथ त्रिपाठी ने मित्रो मरजानी के परिप्रेक्ष्य में लिखा है कि अबाधित, उन्मुक्त शारीरिकता से पारिवारिकता तक की यात्रा है मित्रो मरजानी। मित्रो रमणी से पत्नी बन जाती है। नामवर सिंह ने लिखा है कि सोबती आधुनिक चेतना का प्रतिनिधि लेखक हैं। मित्रो मरजानी स्त्री विमर्श ही नहीं अपितु भारतीय संस्कृति का पुनराख्यान है। भारतीय ग्रामीण समाज का महाकाव्य है ज़िंदग़ीनामा। समकालीन आलोचक इन्हें समाजशास्त्री लेखिका के रूप में देखते हैं। जैनेंद्र ने कहा था कि सोबती के यहाँ सेक्स का जश्न है लेकिन बकौल मृदुला गर्ग सोबती के यहाँ सेक्स का जश्न न होकर भाषा का जश्न है। मित्रो के भीतर पारिवारिक स्त्री का मन निहित है जो उसे परिवार में लौट आने को बाध्य करता है। बकौल अशोक वाजपेयी भाषा का जश्न उनके साहित्य में परम्परा की जड़ता को चुनौती देता है। मलयज ने लिखा है कि सोबती के साहित्य में भारतीय परम्परा और आधुनिकता के द्वंद्व का सुन्दर समन्वय मिलता है। सवाल यह है कि कृष्णा सोबती स्त्री न होकर पुरुष होती तो आलोचक उन्हें किस दृष्टि से देखते। आकांक्षा मिश्रा ने कहा कि हिन्दी आलोचना की एक समस्या है कि उसे लगता है स्त्री लिखेगी तो कथा साहित्य, कहानी, उपन्यास, कविता लिखेगी वह आलोचना से थोड़ा दूर भागेगी, स्त्री लिखेगी तो स्त्री पर ही लिखेगी जबकि असलियत यही नहीं है। सोबती की आलोचकीय दृष्टि हिन्दी आलोचना को नई देन है, इस पर बात करने की जरूरत है। 
संदीप तिवारी कहते हैं कि कृष्णा सोबती के संस्मरण केवल संस्मरण भर नहीं हैं बल्कि संस्मरणात्मक आलोचना है। वे अपने संस्मरणों में रचनाकार व्यक्तित्व का ढांचा खड़ा करती हैं फिर उसके रचनात्मक पक्ष पर बात करती हैं। उन्होंने लिखा है कि बलराज साहनी और भीष्म साहनी रावलपिंडी के ही बेटे हैं। उन्होंने लिखा है मेरे भीतर आलोचक है कि नहीं पता नहीं लेकिन पाठकीय विवेक जरूर है। सोबती व्यक्तित्व पर बात करने के पश्चात् सीधे आलोचक पर बात करती हैं। आलोचना करते समय काव्यात्मक टिप्पणी करती हैं। नामवर जी के बारे में उन्होंने लिखा है कि वे आलोचना के आलमआरा हैं। 
अगली वक्ता अदिति भारद्वाज थी। उन्होंने बताया कि सोबती आलोचक की निगाह भी रखती हैं। सोबती रचना के क्राफ्ट के ऊपर बात करती हैं। सोबती वैद संवाद में उन्होंने रचनाकार की रचना प्रक्रिया के विषय में बताया है कि कैसे एक रचनाकार अपनी रचना का जनक होता है। एलिना फ्रांटे इटैलियन लेखिका हैं, उन्होंने मैस्कुलिन टोन में लिखना शुरू किया था और फेमिनिन टोन में भी लिख लेती थी। ऐसा करते हुए उन्हें एहसास हुआ कि वे मेल भी हैं और फीमेल भी। सोबती इस बात को उस दौर में समझ चुकी थी। जिस स्पेस से सोबती लिखती हैं उसमें देह विमर्श आ ही जाता है। अनामिका ने लिखा है कि मित्रो केवल अपने अपने पति सरदारी के पास नहीं लौटती अपितु उस परिवार के सम्बन्धनात्मक सुरक्षा के नीड़ में लौट रही है। मिशेल फूको ने कहा है कि कोई भी जगह बाह्य वर्चस्व को बनाए रखता है इस दायरे में घर भी है और परिवार भी है। सोबती की भाषा हमारे पूर्वाग्रहों को तोड़ती है।
सत्र के पर्यवेक्षक प्रसिद्ध आलोचक प्रो. गोपेश्वर सिंह थे। उन्होंने कहा कि कृष्णा सोबती उन लेखकों में हैं जिन पर रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, निर्मला जैन, रोहिणी अग्रवाल, अनामिका, मृदुला गर्ग जैसे नए और पुराने दोनों आलोचकों ने लिखा है। नामवर जी ने ज़िन्दग़ीनामा पर लिखा है कि इसके जरिए हिंदी की दुनिया में एक नई ज़िन्दग़ी कैसे आई है। इस सत्र से मेरी अपेक्षा थी कि कृष्णा सोबती पर लिखे आलोचना का मूल्यांकन किया जाता। मुझे इस अर्थ में इस सत्र से थोड़ी निराशा हुई। उनकी सामाजिक आलोचना कैसी है, राजनीतिक आलोचना कैसी है इस पर बात होनी चाहिए थी। उन्होंने निर्मल पर क्या कहा, नामवर पर क्या कहा इस पर भी बात होनी चाहिए थी। जब प्रकृति वस्तुस्थिति को देखती है तब वह वैसी नहीं रह जाती जैसी वह है, अम्मू कहती है ऐ लड़की सुबह की चाय संगीत की तरह होती है। जब सुबह सुबह चाय आती है तब मुझे सोबती याद आती हैं।
चौथा सत्र जिसका विषय था - जिजीविषा के रूपक : स्वाधीन स्त्री की उपस्थिति। सत्र में तसनीम खान, शुभम मोंगा और जावेद आलम ख़ान बतौर वक्ता शामिल थे। तसनीम ख़ान के लेख का शीर्षक था ‘जीवटता ने दामन नहीं छोड़ी’ डार्विन ने कहा था जो अनुकूलन स्थापित करेगा ज्यादा दिन तक बना रहेगा अर्थात् सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट लेकिन सोबती ने अपने जीवन में अनुकूलन के सिद्धांत को कभी तरजीह नहीं दी। विकट से विकट परिस्थिति में भी वे अपने उसूलों पर अडिग रहीं। नैतिकता के पारंपरिक खांचे को तोड़ते हुए सोबती यथार्थ की अभिव्यक्ति को महत्व देती हैं। शाहनी हनुमान को ग़रीब नेवाज बोलती हैं। राबया के बोल में गुरुनानक की ध्वनि है। सोबती अंग्रेज़ी हुकूमत से लेकर पुलिसिया तंत्र तक की खबर लेती हैं। इस्मत चुग़ताई ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि लड़कियों शादी को चूल्हे में डालो और सबसे पहले इंडिपेंडेंट बनो। इन संस्थाओं ने स्त्री की आज़ादी को छीन ली है। स्वाधीन स्त्री का अकेला रहना ही जैसे उसकी नियति बना दी गई है क्योंकि किसी को यह नाकाबिले बर्दाश्त है। सोबती ने लिखा है कि आवास की सुविधा ही नागरिक जीवन का आधार है। इनके पात्र दूसरे के रंग में रंग जाने की वर्जना को तोड़ते हैं। मित्रो को उसके प्यास का पानी उसके हिसाब से चाहिए। जितना सोबती के किरदार स्वाधीन रहें हैं उतना ही उनका लेखन भी स्वाधीन रहा है। उन्होंने न केवल साहित्य अकादमी लौटाया बल्कि पद्म भूषण भी नहीं लिया उनका कहना था कि वे सत्ता की होकर नहीं रह सकती हैं।
अगले युवा वक्ता शुभम मोंगा ने कहा कि स्वाधीनता किसी लेखक के लिख दिए जाने भर से ही नहीं मान सकते। सोबती का मानना है कि मुक्ति न देह की है न संबंधों की बल्कि इनमें निहित जकड़ बंदियों से है। अपने को अपने ही तंग और छोटे दिल से आज़ाद करना जरूरी है। बादलों के घेरे में संकलित कहानियों की थीम और उनके रचना विधान में विविधता है। नफी़सा, सम्मोजान, शाहनी, लामा कहानी की पात्र स्वयं कृष्णा जी ही हैं। उनका मानना है कि वे अपने आत्म, अपने व्यक्तित्व की मालिक हैं और आर्थिक रूप से किसी पर निर्भर नहीं हैं यह है असल स्त्री स्वतंत्रता। उनके फिक्शन में जो चीज़ है वह है नॉस्टैल्जिया। रास्ता चुनने की आज़ादी और रास्ता बनाने की आज़ादी दोनों जिजीविषा से जुड़ी हुई चीज़ है। कृष्णा जी की नायिकाएँ अपने अंतर्मन में जाकर अपनी पहचान तलाशने की कोशिश करती हैं। सोबती का मानना है कि रचनाकार को रचना की आत्मा में उगना होता है। जावेद आलम ख़ान ने बताया कि नफ़ीसा सोबती की पहली प्रमुख कहानी है। ऑर्थर शॉपेन हॉवर ने जिजीविषा का सम्बन्ध स्वाधीन इच्छा से जोड़ा है। सचेत उद्देश्यपूर्ण प्रयास जिजीविषा है। एक ऐसा भाव जो मनुष्य को जीवट बनाता है। सभी तरह की चुनौतियों के बीच बने रहने का साहस जगाता है। जिजीविषा सिर्फ इच्छा नहीं है बल्कि एक कर्म भी है। जीवन हो और सुखमय हो, जीवन हो और रागात्मकता हो। जीवन के हर रूप का आदर है जिजीविषा। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने लिखा है लीक पर वे चलें जिनके चरण दुर्बल और हारे हैं। कृष्णा सोबती स्वयं में एक जिजीविषा का मुकम्मल रूपक हैं। वे कहती हैं दिल्ली और शिमला देश है तो गुजरात मेरा वतन है। वे जिंदगी को उपहार समझती थीं इसलिए उन्हें दूसरों को उपहार देना अच्छा लगता था। उन्होंने अपनी वृद्धावस्था को औजार बना लिया और उसे सृजनात्मकता में झोंक दिया। गालियों की अपनी सत्ता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर कहा था कि एक रोशन चिराग़ ही दूसरे चिराग़ कोरोशन कर सकता है। सिक्का बदल गया कहानी की शाहनी सोबती की माउथ पीस बनकर आईं हैं। शाहनी कहती है जिए जागे सब जिए जागे, अपने पराए सब जिए जागे। इस सत्र की  टिप्पणीकर्ता प्रसिद्ध स्त्री कथाकार मृदुला गर्ग थी। मित्रो इसलिए केंद्र में है कि वह देह की आज़ादी चाहती है और वो भी दुःसाहसी शब्दों में। ऐ लड़की की अम्मू कहती है लड़की अपने आप में होना परम् है श्रेष्ठ है। ये सोबती का नया मुहावरा है। साहित्य की दुनिया में लड़ाई बुझाई बहुत होती है इतना कि जितना देवरानी जेठानी भी नहीं करती होंगी। इस सत्र में तीन युवा रचनाकारों की पुस्तकों का लोकार्पण  हुआ। अनंत पाण्डेय की पुस्तक ‘आशंकाओं के द्वीप में लघुमानव’ संतोष अर्श द्वारा संपादित पुस्तक ‘परस्तार ए - लखनऊ’ और कवयित्री ज्योति रीता के काव्य संग्रह ‘अतिरिक्त दरवाज़ा’ की मुँह दिखाई की रस्म पूरी हुई।

पांचवां सत्र कृष्णा-वैद-निर्मल : गल्प और यथार्थ विषय पर आधारित रहा। यवनिका तिवारी, अभिषेक मिश्र, आनंद पाण्डेय और शिवेन्द्र कुमार इस सत्र में शामिल वक्ता थे और सत्र के पर्यवेक्षक प्रो. संजीव कुमार थे। यवनिका तिवारी कहती हैं कि सोबती ने स्त्री द्वारा स्त्री भाषा की प्रतिष्ठा की है  । प्रजनन को बुर्जुआवादी मानसिकता से मुक्त करना उनके कथा साहित्य को उच्च गरिमा प्रदान करता है। सोबती स्वाधीन स्त्री चरित्र को उजागर कर रही होती हैं। बहू के हाथ में फल होते हैं, बहू के भाग्य में फल होते हैं। ‘बहनों’ जैसी कहानी में प्रजनन की अक्षमता पर स्त्रियाँ दुःखी हैं। स्त्री का कोख रिजर्व फॉरेस्ट है इस मिथ को सोबती के पात्र तोड़ते हैं। सूरजमुखी अंधेरे के दिवाकर का चरित्र इस दृष्टि से देखने योग्य है। सोबती और निर्मल का साहित्य पहाड़ी भू वर्चस्वमान केंद्र निर्मित करता है। पहाड़ी कथानक आते ही उनकी भाषा असमावेशी होने लगती है। पहाड़ों में सुरुचिपूर्ण एलीट तबके का उल्लेख है। सोबती के तिन पहाड़ में मुख्य पात्र के अलावा स्थानीय पात्र के रूप में रौस है। और निर्मल के एक चिथड़ा सुख में भोटियों का ज़िक्र अन्यत्व प्रभाव छोड़ता है। पहाड़ी भू दृश्य बुर्जुआ समाज को मिटाने का एक स्पेस है। लाल टीन की छत में आदिवासियों को देखकर लेखक को रहस्यमयता की अनुभूति होने लगती है। निर्मल ने अपने साहित्य में प्रभुसत्तात्मक यूरोप और भारत के बुर्जुआ वर्ग को तरजीह दी है। निर्मल के यहाँ छिपा पशु बिंब मिलता है। ‘चमकीला रेंगता स्वर’ इसी तरह का एक बिम्ब है। बनैले जंतुओं की उपस्थिति उनके साहित्य में अधिक होती है। अगले वक्ता अभिषेक मिश्र ने बताया कि सोबती के साहित्य में सामाजिक और व्यक्तिगत यथार्थ का सजीव चित्र देखने को मिलता है। मित्रो की परिकल्पना इस समय को उस समय में देखना है। मित्रो पारिवारिक बंधनों और यौनिक बंधनों का प्रतिकार करती है। मित्रो अपनी इच्छा अनुसार जीने वाली पात्र है। कथाकार अध्येता शिवेन्द्र कुमार ने ‘क्या एडम और इव ब्लैक थे’ शीर्षक से स्वयं द्वारा रचित गल्प आख्यान के जरिए कृष्णा-वैद-निर्मल: गल्प और यथार्थ विषय को समझाने की कोशिश की। उन्होंने बताया कि आज भी संकेतों के बिना हमारा काम नहीं चल सकता है। संकेत साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं। इसमें हिचकियों के माध्यम से गल्प और यथार्थ के पड़ाव को स्पष्ट किया गया है। पहली हिचकी अद्वैतवाद की है जिसका दार्शनिक आधार है। जगत और ईश्वर अभिन्न हैं। दूसरी हिचकी डार्विन का विकासवाद है, जिसमें जीवित वही रह सकता है जिसमें अनुकूलन की क्षमता हो। सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट और तीसरी हिचकी नीत्शे की है, ईश्वर मर गया। इसने यथार्थवादियों को एकदम ऊँचाई पर चढ़ा दिया। चौथी हिचकी कलावादियों की है। कलावाद का जन्म कोई आधुनिक घटना नहीं है। अरस्तू ने आनंद को कला का मूल माना है। कला और यथार्थ जब एक दूसरे से गलबहियाँ करते हैं तब दोनों बड़े हो जाते हैं। बिना गल्प के न कोई कला निखर सकती है और न ही यथार्थ गहरा बन सकता है। वक्ता आनंद पाण्डेय ने बताया कि गल्प का यथार्थ कल्पना शक्ति के जरिए रचा हुआ होता है। यथार्थ से रहित कोई रचना होती ही नहीं है। सोबती के सामाजिक यथार्थ का घनत्व अधिक है। निर्मल वर्मा ने खुद को यथार्थवादी डिमांड से दूर रखा है और अपने लेखकीय व्यक्तित्व को तरजीह दी है। इनके यहाँ भी मिनिमम करुणा है, मिनिमम संवेदना है। ऐ लड़की की अम्मू जिन्दगी और मौत के बीच झूल रही है। अंतिम अरण्य के मेहरा साहब उस अरण्य में मरने की इच्छा से प्रस्थान कर रहे हैं। मुक्त मानव की कल्पना। जब जीवन स्थिर हो चुका हो, सारे वर्ग संघर्ष समाप्त हो चुके हो, रोटी, कपड़ा, मकान की समस्या हल हो चुका हो फिर मरने के लिए व्यक्ति अंतिम अरण्य जैसा विकल्प ही खोजेगा। निर्मल के यहाँ ऐसा यथार्थ है जो रोटी, कपड़ा, मकान से कुछ लार्जर है और ब्रॉड है।
सत्र के पर्यवेक्षक आदरणीय संजीव कुमार जी थे। उन्होंने कहा कोई भी सुझाव आपको समृद्ध करने लिए ही होता है। हम सबसे पहले इसमें उपस्थित ‘त्रयी’ के बारे में कहना होगा। कृष्णा बलदेव और निर्मल ही क्यों कृष्णा राकेश और रेणु क्यों नहीं? गल्प और यथार्थ के बीच की बैचेनी शिवेन्द्र के लेख में मिली। गल्प का मतलब कल्पना आधारित और यथार्थ से तात्पर्य रॉ मैटेरियल से है। हमारी कल्पना जीवन के तथ्यों से संवलित होकर निर्मित होती है। ऐ लड़की में शाम का समय था अम्मू की आवाज़ सुनाई पड़ती है ऐ लड़की घोड़ों को तो काबू में कर लिया लेकिन घर को कैसे करती। न ययौ न तस्थो यानि गल्प और यथार्थ में आगे-पीछे वाली स्थिति बनी रहेगी। उदाहरण ऐसे होने चाहिए जो आपके कही बातों के लिए पहले आपको आश्वस्त करते हों। यथार्थ को या तो तथ्य के रूप में ग्रहण करते हैं या अपने आस पास से बने समझ को यथार्थ के रूप में मानते हैं। यह दौर साम्प्रदायिक नव उदारवादी शक्तियों के गठजोड़ का दौर है। तथ्य और विज्ञान की दृष्टि से देखे तब अफ्रीका में पहला मनुष्य जन्मा तब वह ब्लैक ही होगा। अंततः ठोस यथार्थ भी कोई चीज़ होती है। कार्यक्रम के अंत में वरिष्ठ कवि संस्कृतकर्मी अशोक वाजपेयी ने कहा साहित्य में जो परिवर्तन हुए हैं उसको सबसे पहले सपने के रूप में ही देखा गया होगा।
 20 फरवरी को युवा 2025 का दूसरा दिन था। छठवाँ सत्र जिसका विषय ‘वर्तमान लोकतांत्रिक संकट में सोबती- आवाज़’ था। इस सत्र में युवा लेखक कविता कर्मकार, बालकीर्ति कुमारी और संतोष अर्श शामिल थे। सत्र में दिए गए वक्तव्यों की समीक्षा सृजनधर्मी आलोचक प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल ने की। आयोजन का सातवाँ सत्र ‘स्वतंत्रता, विभाजन और साहित्य’ पर आधारित रहा जिसमें फ़हीम अहमद, संजय जायसवाल, विशाल श्रीवास्तव और विपिन तिवारी बतौर युवा वक्ता शामिल थे। टिप्पणीकर्ता जगदीश्वर चतुर्वेदी जी ने कहा कि हमारे ज़्यादातर लेखक बिना किसी अवधारणा के लिख रहे हैं जबकि लेखन के दौरान के मुकम्मल अवधारणा हमारी दृष्टि में होनी चाहिए। सोबती की दृष्टि स्वाधीनता आंदोलन को लेकर कमजोर है क्योंकि वे लेखक हैं इतिहासकार नहीं। जहाँ वे इतिहास में दाख़िल होती हैं उनका कमजोर पक्ष उभर कर सामने आ जाता है। नई कहानी आंदोलन के कहानीकारों ने विभाजन पर कम लिखा है। (किन्तु हमें ध्यान में रखना चाहिए कि नई कहानी की त्रयी में शामिल मोहन राकेश ने विभाजन पर ‘मलबे का मालिक’ और कमलेश्वर ने ‘कितने पाकिस्तान’ जैसा उपन्यास लिखा है।) हिन्दी के आलोचकों के यहाँ विभाजन पर एक निबंध लिखा नहीं मिलेगा। आलोचना में विभाजन क्यों नहीं आया। विभाजन का साइड इफेक्ट था एलिनेशन। अज्ञेय हिन्दी के उन लेखकों में से हैं जिन्होंने विभाजन पर कहानियाँ लिखी। आपातकाल पर ‘महावृक्ष के नीचे’ जैसी कविताएँ लिखी। 46-48 के बीच तेलंगाना विद्रोह हुआ था जिसमें 50 हजार से अधिक किसानों को जेल में ठूस दिए गए। सन् सत्तावन में केरल में कम्युनिस्टों की इलेक्टेड गवर्नमेंट बनी। दो साल के भीतर राष्ट्रपति शासन लगाकर उस कम्युनिस्ट पार्टी को गिरा दिया गया क्योंकि उन्होंने धर्मों को शिक्षा के पाठ्यक्रम से निकाल दिया था। कृष्णा सोबती हिन्दी की पहली एकमात्र कंप्लीट पॉलिटिकल राइटर हैं। कृष्णा सोबती को आप फेमिनिस्ट मत बनाइए। हमें जेंडर को केंद्र में नहीं रखना है बल्कि मनुष्य को केन्द्र में रखना है। हर व्यक्ति को मिनिमम रिस्पेक्ट मिलना ही चाहिए। सोबती कहती थी मैं लेखक नागरिक हूँ। नागरिक की तरह सोचने पर के कारण ही वे विभाजन पर लिख पाईं। (सिक्का बदल गया, गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान) सोबती का लेखन नागरिक बोध पैदा करता है यह बड़ी बात है। आठवाँ सत्र ‘भारत का सोबती-आख्यान’ विषय पर केंद्रित रहा। अनुरंजनी, अनुराधा ओस, दिनेश कुमार और युवा कवि केतन यादव ने विषय परअपनी बात रखी। नवाँ सत्र ‘कृष्णा सोबती, इस्मत चुग़ताई और महाश्वेता देवी’ त्रयी पर आधारित रहा। सत्र की समीक्षक प्रख्यात स्त्री आलोचक रोहिणी अग्रवाल थी और कवि चाहत अन्वी तथा कु. रोशनी ने इन तीनों लेखिकाओं के साहित्य में निहित सम्बन्धनात्मक सूत्र पर अपनी बात रखी। समापन सत्र में अपनी बात रखते हुए संस्कृतकर्मी अशोक वाजपेयी ने कहा कि हम इस बात से तटस्थ नहीं हो सकते कि इस समय हिन्दी सबसे भयानक संकट में है, भाषा के रूप में, अंचल के रूप में, संवाद के रूप में। हिन्दी इस समय झगड़े, झांसा, घृणा फैलाने, झूठ फैलाने का माध्यम हिंदी को बनाया जा रहा है। विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों में ऐसे लोगों की घुसपैठ हो चुकी है जो हिन्दी और हिन्दी साहित्य में संकीर्णतावादी तत्वों और तथ्यों को तरजीह दे रहे हैं। कृष्णा जी से यदि कोई सीख लेनी हो तो हमें हर समझौते के खिलाफ़ जाने की सीख लेनी होगी। बड़े होने का मतलब है, बड़ा साहित्यकार होने का मतलब है कि आप जी हुजूरी न करें। ‘ना’ कहने का साहस रखें। कृष्ण बलदेव वैद, विजयदेव नारायण शाही को कोई साहित्य अकादमी नहीं मिला तो क्या उन्होंने लिखना छोड़ दिया या उनकी महत्ता कम हो गई। आत्मालोचन बहुत जरूरी है। आपके लेखन में औचित्य प्रकट होना चाहिए। इस युवा 2025 में स्त्रियों ने पुरुषों को पछाड़ दिया। आलोचना की एक बड़ी समस्या है कि रचना की भाषा तो बदलती है लेकिन आलोचना की भाषा नहीं बदलती। समकालीन समय में जो कुछ घटित हो रहा है उसे आलोचना से जोड़ देना बड़ी बात है। हमारा समय भयानक समय है। सत्य तो वैसे भी संदिग्ध है लेकिन सत्य के प्रति आज जो घृणा फैल रही है। राजनीति इतनी सर्वग्रासी हो गई है कि उससे ख़ुद को बरका नहीं सकते वो आपके दरवाज़े पर दस्तक दे रही है। स्त्री, बच्चों, आदिवासी, मुसलमान, दलितों के खिलाफ़ सबसे अधिक जघन्य अपराध हिन्दी अंचल में होते हैं। लगभग 67-68% अपराध हिन्दी अंचल में होते हैं और हमारी सजगता ऐसी है कि हम उसे पहचान नहीं पा रहे हैं।




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