हिंदी के प्रमुख रचनाकार, जिनकी है अमिट छाप

  1. प्रेमचंद : कहानी/उपन्यास
  2. जयशंकर प्रसाद : नाटक
  3. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ : मुक्तक काव्य
  4. रामकुमार वर्मा : एकांकी
  5. हरिवंशराय बच्चन : काव्य (रूबाइयां)
  6. रामधारी सिंह ‘दिनकर’ : राष्ट्रीय चेतना
  7. फणीश्वरनाथ रेणु : आंचलिक उपन्यास
  8. हरिशंकर परसाई : व्यंग्य
  9. दुष्यंत कुमार : हिंदी गजल


Dr. Ajeet Rai
 
  • मुंशी प्रेमचंद  : उपन्यास सम्राट, महान कहानीकार
“मैं एक मज़दूर हूँ. जिस दिन कुछ लिख न लूँ, उस दिन मुझे रोटी खाने का कोई हक नहीं.” स्वयं को इस पंक्ति से परिभाषित करने वाले महान कहानीकार ‘मुंशी प्रेमचंद’ हिन्दी साहित्य के न केवल एक सुप्रसिद्ध नाम हैं, बल्कि हिन्दी साहित्य जगत के वह अमूल्य अध्याय हैं, जिनके नामोल्लेख के बिना हिन्दी से जुड़ी कोई भी साहित्यिक चर्चा सार्थक हो ही नहीं सकती. 300 से अधिक कहानियों की रचना करने वाले मुंशी जी ने लगभग एक दर्जन उपन्यासों की रचना कर हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया. उनकी रचनाओं को देखकर विख्यात बंगाली उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें 'उपन्यास सम्राट' की उपाधि दी थी.
31 जुलाई 1880 को वाराणसी जिले के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में आनन्दी देवी तथा मुंशी अजायबराय की संतान के रूप में जन्मे प्रेमचंद के बचपन का नाम धनपत राय श्रीवास्तव था. उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन उर्दू में भी कई रचनाएं कीं, जिसमें वे अपना नाम नवाब राय लिखते थे. वहीं हिन्दी में उनकी रचनाएं ‘प्रेमचंद’ के नाम से उपलब्ध हैं. एक बार उन्होंने अपने उद्बोधन कहा था “हमें हुस्न का मेयार तब्दील करना होगा. अभी तक उसका मेयार अमीराना और ऐश परवराना था.” इस बात को उन्होंने सिर्फ कहा नहीं बल्कि अपनी रचनाओं में उसे जीवंत किया. प्रेमचंद एक ऐसे साहित्यकार है, जिन्होंने साहित्य का रूहानी, रूमानी दुनिया और महलों-बंगलों की दुनिया से निकालकर यथार्थ के धरातल पर लाकर खड़ा कर दिया. प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य से मध्यमवर्ग का ध्यान हटाकर आम आदमी, गरीब, देहाती और किसानों को उपन्यासों और कहानियों का विषय बनाया, जो अपने आप में क्रांतिकारी कदम था.’ रामवृक्ष बेनीपुरी ने प्रेमचंद के बारे में लिखा है-  “इस प्रथम कलाकार ने ही अपनी कला को कितनी मोहक, आकर्षक और रंगीन बना पाया. जिन्हें हम गूँगा मूक समझते थे, उन्हें उसने जुबान दी, जिन्हें हम अंधा सूर समझते थे, उनकी आँखों को उसने नूर बख्शा. झोपड़ियों की कौन बात, खेत की मेड़ पर बनी मड़ैयों तक को उसने बोलना, हँसना, प्यार करना, रोना सिखलाया.”
आजीवन साहित्य सेवा करने वाले प्रेमचंद जी ने अपनी रचनाओं में मानवीय, सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों को इतने शानदार सलीके से प्रस्तुत किया है, कि उन्हें पढ़ते समय हर एक पाठक उसमें डूब जाता है. ऐसा प्रतीत होता है, जैसे ये बातें, यह कथानक तो आज की ही बात है.  रचनाओं में जीवन मूल्यों के पैरोकार रहे मुंशीजी राजनीतिक मुद्दे पर भी मुखर रहे. दिसम्बर 1934 में दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के अधिवेशन में हमारी लोकतांत्रित एवं चुनावी व्यवस्था पर बोलते हुए कहा था-
“जो राष्ट्र के अगुआ हैं, जो इलेक्शनों में खड़े होते हैं और फतह पाते हैं, उनसे मैं बड़े अदब के साथ गुजारिश करूँगा कि हजरत, इस तरह के एक सौ इलेक्शन आएँगे और निकल जाएँगे, आप कभी हारेंगे, कभी जीतेंगे, लेकिन स्वराज्य आपसे उतनी ही दूर रहेगा, जितनी दूर स्वर्ग है.”
  • प्रमुख कृतियां :
उपन्यास : गोदान, ग़बन, कर्मभूमि, कायाकल्प, निर्मला, प्रतिज्ञा, प्रेमाश्रम, मंगलसूत्र (अपूर्ण), अलंकार
कहानी : प्रेमचंद ने 300 से अधिक कहानियां लिखीं, जिनमें से अधिकांश कहानियों मानसरोवर के भाग 1 से भाग 7 संकलित हैं। उनकी कहानियों में ईदगाह, बड़े भाईसाहब, ठाकुर का कुआँ, पूस की रात, दो बैलों की कथा, शतरंज के खिलाड़ी, मंत्र, बड़े घर की बेटी, पंच-परमेश्‍वर एवं कफन विशेष रूप से उल्लेखनीय है. 
नाटक : संग्राम, कर्बला, प्रेम की वेदी
अनुवाद : टॉलस्‍टॉय की कहानियाँ, हड़ताल, चाँदी की डिबिया, न्‍याय, आजाद कथा. 
निबंध : पुराना जमाना नया जमाना, स्‍वराज के फायदे, कहानी कला (1,2,3), कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार, हिन्दी-उर्दू की एकता, महाजनी सभ्‍यता, उपन्‍यास, जीवन में साहित्‍य का स्‍थान।

  • जयशंकर प्रसाद
महाकवि कथाकार नाटककार जयशंकर प्रसाद को कौन नहीं जानता। कक्षा पांचवी से लेकर 12वीं तक ग्रेजुएशन से लेकर पोस्ट ग्रेजुएशन तक हिंदी साहित्य में जयशंकर प्रसाद की रचनाएं देखने को मिलती हैं। जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय और रचनाएं ना केवल पढ़ने में सरल और सुलभ होती हैं बल्कि हमें यथार्थ ज्ञान और प्रेरणा भी देती है। छायावाद के कवि जयशंकर प्रसाद रचना को अपनी साधना समझते थे। वह उपन्यास को ऐसे लिखते थे मानो जैसे वह उसे पूजते हो। जयशंकर प्रसाद जी के बारे में अभी बातें खत्म नहीं हुई है उनकी कई सारी कविताएं कहानियां है जो आपको यथार्थ का भाव कराएंगी। 
  • नाम : जयशंकर प्रसाद
  • जन्म सन : 1890 ईस्वी में
  • जन्म स्थान : उत्तर प्रदेश राज्य के काशी में
  • पिता का नाम : श्री देवी प्रसाद
  • शैक्षणिक योग्यता : अंग्रेजी, फारसी, उर्दू, हिंदी व संस्कृत का स्वाध्याय
  • रुचि : साहित्य के प्रति, काव्य रचना, नाटक लेखन
  • लेखन विधा : काव्य, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध
  • मृत्यु 15 नवंबर, 1937 ईस्वी में
  • साहित्य में पहचान : छायावादी काव्यधारा के प्रवर्तक
  • भाषा : भावपूर्ण एवं विचारात्मक
  • शैली विचारात्मक, अनुसंधानात्मक, इतिवृत्तात्मक, भावात्मक एवं चित्रात्मक.
  • साहित्य में स्थान : जयशंकर प्रसाद जी को हिंदी साहित्य में नाटक को नई दिशा देने के कारण ‘प्रसाद युग’ का निर्माणकर्ता तथा छायावाद का प्रवर्तक कहा गया है.
  • जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय
महान लेखक और कवि जयशंकर प्रसाद का जन्म – सन् 1889 ई. में हुआ तथा मृत्यु – सन् 1937 ई में हुई।बहुमुखी प्रतिभा के धनी जयशंकर प्रसाद का जन्म वाराणसी के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था| बचपन में ही पिता के निधन से पारिवारिक उत्तरदायित्व का बोझ इनके कधों पर आ गया। मात्र आठवीं तक औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद स्वाध्याय द्वारा उन्होंने संस्कृत, पाली, हिन्दी, उर्दू व अंग्रेजी भाषा तथा साहित्य का विशद ज्ञान प्राप्त किया। जयशंकर प्रसाद छायावाद के कवि थे। यह एक प्रयोगधर्मी रचनाकार थे।
1926 ईस्वी से 1929 ईस्वी तक जयशंकर प्रसाद के कई दृष्टिकोण देखने को मिलते हैं। जयशंकर प्रसाद कवि,कथाकार, नाटककार,उपन्यासकार आदि रहे।इनके आने से ही हिंदी काव्य में खड़ी बोली के माधुर्य का विकास हुआ। यह आनंद वाद के समर्थक थे। इनके पिता बाबू देवीप्रसाद विद्यानुरागी थे, जिन्हें लोग सुँघनी साहु कहकर बुलाते थे। प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा का प्रबंध पहले घर पर ही हुआ। बाद में इन्हें क्वीन्स कॉलेज में अध्ययन हेतु भेजा गया। अल्प आयु में ही अपनी मेधा से इन्होंने संस्कृत, हिन्दी, उर्दू, फारसी और अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। काव्य रचना के साथ-साथ नाटक, उपन्यास एवं कहानी विधा में भी इन्होंने अपना कौशल दिखाया। 
प्रसाद जी की प्रतिभा बहुमुखी है, किन्तु साहित्य के क्षेत्र में कवि एवं नाटककार के रूप में इनकी ख्याति विशेष है। छायावादी कवियों में ये अग्रगण्य हैं। कामायनी इनका अन्यतम काव्य ग्रन्थ है, जिसकी तुलना संसार के श्रेष्ठ काव्यों से की जा सकती है। सत्यं शिवं सुन्दरम् का जीता जागता रूप प्रसाद के काव्य में मिलता है। मानव सौन्दर्य के साथ-साथ इन्होंने प्रकृति सौन्दर्य का सजीव एवं मौलिक वर्णन किया इन्होंने ब्रजमाषा एवं खड़ी बोली दोनों का प्रयोग किया है। इनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ है।
  • साहित्यिक परिचय
जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय अपने बचपन से ही उनका प्रेम और रुझान हिन्दी साहित्य की ओर दिखता है। उन्होंने मात्र 9 साल की उम्र में अपने गुरु – “रसमय सिद्ध” को एक सवैया लिख कर दिया था जिसका नाम था ‘कलाधर’। पहले उनके बड़े भी शंभू रत्न चाहते थे कि ये अपने पैतृक व्यवसाय को संभाले लेकिन काव्य रचना की तरफ उनकी प्रेम देखते हुए उन्होंने जयशंकर प्रसाद जी को पूरी छूट दे दी। अपने बड़े भी की सहमति और उनके आशीर्वाद के साथ वे पूरी तन्मयता के साथ हिन्दी साहित्य लेखन और काव्य रचना के क्षेत्र में लग गए।
  • जयशंकर प्रसाद की रचनाएं
रचनाओं से भरा हुआ है। उनकी रचनाएं भारत के गौरवमय इतिहास व संस्कृति से अनुप्राणित है कामायनी उनका सर्वाधिक लोकप्रिय महाकाव्य है जिसमें आनन्दवाद की नई संकल्पना समरसता का संदेश निहित है। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं -झरना, ऑसू, लहर, कामायनी, प्रेम पथिक (काव्य) स्कंदगुप्त चंद्रगुप्त, पुवस्वामिनी जन्मेजय का नागयज्ञ राज्यश्री, अजातशत्रु, विशाख, एक घूँट, कामना, करुणालय, कल्याणी परिणय, अग्निमित्र प्रायश्चित सज्जन (नाटक) छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आँधी. इंद्रजाल(कहानी संग्रह) तथा ककाल तितली इरावती (उपन्यास)।
  • जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखी गई कहानियां
कहानियों से भरा हुआ है, नीचे उनकी कहानियों के नाम दिए गए हैं-
देवदासी, बिसाती, प्रणय-चिह्न, नीरा, शरणागत, चंदा, गुंडा, स्वर्ग के खंडहर में, पंचायत, जहांआरा, मधुआ, उर्वशी, इंद्रजाल, गुलाम, ग्राम, भीख में, चित्र मंदिर, ब्रह्मर्षि, पुरस्कार, रमला, छोटा जादूगर, बभ्रुवाहन, विराम चिन्ह, सालवती, अमिट स्मृति, रसिया बालम, सिकंदर की शपथ, आकाशदीप.
  • जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखी गई कविताएं
पेशोला की प्रतिध्वनि, शेरसिंह का शस्त्र समर्पण, अंतरिक्ष में अभी सो रही है, मधुर माधवी संध्या में, ओ री मानस की गहराई, निधरक तूने ठुकराया तब, अरे!आ गई है भूली-सी, शशि-सी वह सुन्दर रूप विभा, अरे कहीं देखा है तुमने, काली आँखों का अंधकार, चिर तृषित कंठ से तृप्त-विधुर, जगती की मंगलमयी उषा बन, अपलक जगती हो एक रात, वसुधा के अंचल पर, जग की सजल कालिमा रजनी, मेरी आँखों की पुतली में, कितने दिन जीवन जल-निधि में, कोमल कुसुमों की मधुर रात, अब जागो जीवन के प्रभात, तुम्हारी आँखों का बचपन, आह रे,वह अधीर यौवन, आँखों से अलख जगाने को, उस दिन जब जीवन के पथ में, हे सागर संगम अरुण नील.
  • जयशंकर प्रसाद की साहित्यिक विशेषताएं
बचपन से ही इनकी रुचि साहित्य की ओर थी।इन्दु’ नामक मासिक पत्रिका का इन्होंने सम्पादन किया। साहित्य जगत में इन्हें वहीं से पहचान मिली।प्रेम समर्पण कर्तव्य एवं बलिदान की भावना से ओतप्रोत उनकी कहानियों पाठक को अभिभूत कर देती है। वह हिंदी साहित्य को अपनी साधना समझते थे। महाकवि जयशंकर प्रसाद हिंदी साहित्य में योगदान देने वाले सर्वश्रेष्ठ रचनाकारों में से एक थे। उन्होंने हिंदी साहित्य में अपना बहुत योगदान दिया। उन्होंने अपनी कहानियों,नाटक तथा कविताओं के जरिए हिंदी साहित्य में अपना माधुर्य बिखेरा। राजनीतिक संघर्ष तथा संकट की स्थिति में राजपुरुष का व्यवहार उन्होंने बड़ी गहराई से समझा और लिखा। आधुनिक उपन्यास के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद जी ने यथार्थ और आदर्शवादी रचनाकारों का सूत्रपात किया।
  • नाटक
प्रसाद ने आठ ऐतिहासिक, तीन पौराणिक और दो भावात्मक, कुल 13 नाटकों की सर्जना की। ‘कामना’ और ‘एक घूँट’ को छोड़कर ये नाटक मूलत: इतिहास पर आधृत हैं। इनमें महाभारत से लेकर हर्ष के समय तक के इतिहास से सामग्री ली गई है। वे हिंदी के सर्वश्रेष्ठ नाटककार हैं। उनके नाटकों में सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना इतिहास की भित्ति पर संस्थित है।
स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, जन्मेजय का नाग, यज्ञ, राज्यश्री, कामना, एक घूंट.
  • जयशंकर प्रसाद की भाषा शैली
हमारे देश के सबसे बड़े कवियों में से एक जयशंकर प्रसाद जी ने अपने काव्य लेखन की शुरुआत ब्रजभाषा में की थी। लेकिन धीरे -धीरे वे खड़ी बोली की तरफ भी आते गए और उनको यह भाषा शैली पसंद आती गई। इनकी रचनाओं में मुख्य रूप से भावनात्मक , विचारात्मक , इतिवृत्तात्मक और चित्रात्मक भाषा शैली का प्रयोग देखने को मिलता है । इनकी शैली अत्यंत मीठी और सरल भाषा में थी जिनको कोई भी आसानी से पढ़ और समझ सकता था।
  • जयशंकर प्रसाद के लेखन का दूरगामी प्रभाव
हिन्दी काव्य में एक तरह से छायावाद की स्थापना का श्रेय जयशंकर प्रसाद को जाता है. इनके द्वारा रचित खड़ी बोली के काव्य में न केवल कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई, बल्कि जीवन के सूक्ष्म एवं व्यापक आयामों के चित्रण की शक्ति भी संचित हुई और कामायनी तक पहुँचकर वह काव्य प्रेरक शक्तिकाव्य के रूप में भी प्रतिष्ठित हो गया। जयशंकर प्रसाद के बाद के कई प्रगतिशील एवं नई कविता दोनों धाराओं के प्रमुख आलोचकों ने उसकी लेखनी को खूब सराहा है। इनकी वजह से ही बाद में खड़ी बोली हिन्दी काव्य की निर्विवाद सिद्ध भाषा बन गयी।

  • जयशंकर प्रसाद की किस वर्ष में कौनसी रचनाएं आई?
  • जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय वर्षों के हिसाब से नीचे दिया गया है-
  • रीवाइज़्ड वर्ष रचनाएं फर्स्ट एडिशन ईयर
  • 1914 प्रेमपथिक 1909
  • 1927 झरना 1918
  • 1928 करुणालय 1913
  • 1928 महाराणा का महत्त्व 1914
  • 1928 चित्राधार 1918
  • 1929 कानन कुसुम 1913 पुनः 1918
  • 1933 आँसू 1925
  • 1935 लहर
  • 1936 कामायनी
  • जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय में उपन्यास
जय शंकर प्रसाद जी के तीन प्रसिद्ध उपन्यास है - कंकाल, तितली, इरावती। तितली जयशंकर प्रसाद का ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास है जबकि कंकाल में नागरिक सभ्यता को दिखाया गया है।
पुरस्कार : जयशंकर प्रसाद को ‘कामायनी’ की रचना के लिए मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था।

  • सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला (जन्म- माघ शुक्ल 11 सम्वत् 1953 अथवा 21 फ़रवरी, 1896 ई., मेदनीपुर बंगाल; मृत्यु- 15 अक्टूबर, 1961, प्रयाग) हिन्दी के छायावादी कवियों में कई दृष्टियों से विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। निराला जी एक कवि, उपन्यासकार, निबन्धकार और कहानीकार थे। उन्होंने कई रेखाचित्र भी बनाये। उनका व्यक्तित्व अतिशय विद्रोही और क्रान्तिकारी तत्त्वों से निर्मित हुआ है। उसके कारण वे एक ओर जहाँ अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तनों के स्रष्टा हुए, वहाँ दूसरी ओर परम्पराभ्यासी हिन्दी काव्य प्रेमियों द्वारा अरसे तक सबसे अधिक ग़लत भी समझे गये। उनके विविध प्रयोगों- छन्द, भाषा, शैली, भावसम्बन्धी नव्यतर दृष्टियों ने नवीन काव्य को दिशा देने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसलिए घिसी-पिटी परम्पराओं को छोड़कर नवीन शैली के विधायक कवि का पुरातनतापोषक पीढ़ी द्वारा स्वागत का न होना स्वाभाविक था। लेकिन प्रतिभा का प्रकाश उपेक्षा और अज्ञान के कुहासे से बहुत देर तक आच्छन्न नहीं रह सकता।
  • जीवन परिचय
'निराला' का जन्म महिषादल स्टेट मेदनीपुर (बंगाल) में माघ शुक्ल पक्ष की एकादशी, संवत् 1953, को हुआ था। इनका अपना घर उन्नाव ज़िले के गढ़ाकोला गाँव में है। निराला जी का जन्म रविवार को हुआ था इसलिए यह सुर्जकुमार कहलाए। 11 जनवरी, 1921 ई. को पं. महावीर प्रसाद को लिखे अपने पत्र में निराला जी ने अपनी उम्र 22 वर्ष बताई है। रामनरेश त्रिपाठी ने कविता कौमुदी के लिए सन् 1926 ई. के अन्त में जन्म सम्बंधी विवरण माँगा तो निराला जी ने माघ शुक्ल 11 सम्वत 1953 (1896) अपनी जन्म तिथि लिखकर भेजी। यह विवरण निराला जी ने स्वयं लिखकर दिया था। बंगाल में बसने का परिणाम यह हुआ कि बांग्ला एक तरह से इनकी मातृभाषा हो गयी।
  • परिवार
'निराला' के पिता का नाम पं. रामसहाय था, जो बंगाल के महिषादल राज्य के मेदिनीपुर ज़िले में एक सरकारी नौकरी करते थे। निराला का बचपन बंगाल के इस क्षेत्र में बीता जिसका उनके मन पर बहुत गहरा प्रभाव रहा है। तीन वर्ष की अवस्था में उनकी माँ की मृत्यु हो गयी और उनके पिता ने उनकी देखरेख का भार अपने ऊपर ले लिया।
  • शिक्षा
निराला की शिक्षा यहीं बंगाली माध्यम से शुरू हुई। हाईस्कूल पास करने के पश्चात् उन्होंने घर पर ही संस्कृत और अंग्रेज़ी साहित्य का अध्ययन किया। हाईस्कूल करने के पश्चात् वे लखनऊ और उसके बाद गढकोला (उन्नाव) आ गये। प्रारम्भ से ही रामचरितमानस उन्हें बहुत प्रिय था। वे हिन्दी, बंगला, अंग्रेज़ी और संस्कृत भाषा में निपुण थे और श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द और श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर से विशेष रूप से प्रभावित थे। मैट्रीकुलेशन कक्षा में पहुँचते-पहुँचते इनकी दार्शनिक रुचि का परिचय मिलने लगा। निराला स्वच्छन्द प्रकृति के थे और स्कूल में पढ़ने से अधिक उनकी रुचि घूमने, खेलने, तैरने और कुश्ती लड़ने इत्यादि में थी। संगीत में उनकी विशेष रुचि थी। अध्ययन में उनका विशेष मन नहीं लगता था। इस कारण उनके पिता कभी-कभी उनसे कठोर व्यवहार करते थे, जबकि उनके हृदय में अपने एकमात्र पुत्र के लिये विशेष स्नेह था।
  • विवाह
पन्द्रह वर्ष की अल्पायु में निराला का विवाह मनोहरा देवी से हो गया। रायबरेली ज़िले में डलमऊ के पं. रामदयाल की पुत्री मनोहरा देवी सुन्दर और शिक्षित थीं, उनको संगीत का अभ्यास भी था। पत्नी के ज़ोर देने पर ही उन्होंने हिन्दी सीखी। इसके बाद अतिशीघ्र ही उन्होंने बंगला के बजाय हिन्दी में कविता लिखना शुरू कर दिया। बचपन के नैराश्य और एकाकी जीवन के पश्चात् उन्होंने कुछ वर्ष अपनी पत्नी के साथ सुख से बिताये, किन्तु यह सुख ज़्यादा दिनों तक नहीं टिका और उनकी पत्नी की मृत्यु उनकी 20 वर्ष की अवस्था में ही हो गयी। बाद में उनकी पुत्री जो कि विधवा थी, की भी मृत्यु हो गयी। वे आर्थिक विषमताओं से भी घिरे रहे। ऐसे समय में उन्होंने विभिन्न प्रकाशकों के साथ प्रूफ रीडर के रूप में काम किया, उन्होंने 'समन्वय' का भी सम्पादन किया।
  • पारिवारिक विपत्तियाँ
16-17 वर्ष की उम्र से ही इनके जीवन में विपत्तियाँ आरम्भ हो गयीं, पर अनेक प्रकार के दैवी, सामाजिक और साहित्यिक संघर्षों को झेलते हुए भी इन्होंने कभी अपने लक्ष्य को नीचा नहीं किया। इनकी माँ पहले ही गत हो चुकी थीं, पिता का भी असामायिक निधन हो गया। इनफ्लुएँजा के विकराल प्रकोप में घर के अन्य प्राणी भी चल बसे। पत्नी की मृत्यु से तो ये टूट से गये। पर कुटुम्ब के पालन-पोषण का भार स्वयं झेलते हुए वे अपने मार्ग से विचलित नहीं हुए। इन विपत्तियों से त्राण पाने में इनके दार्शनिक ने अच्छी सहायता पहुँचायी।
  • कार्यक्षेत्र
निराला जी ने 1918 से 1922 तक महिषादल राज्य की सेवा की। उसके बाद संपादन स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य किया। इन्होंने 1922 से 23 के दौरान कोलकाता से प्रकाशित 'समन्वय' का संपादन किया। 1923 के अगस्त से 'मतवाला' के संपादक मंडल में काम किया। इनके इसके बाद लखनऊ में गंगा पुस्तक माला कार्यालय और वहाँ से निकलने वाली मासिक पत्रिका 'सुधा' से 1935 के मध्य तक संबद्ध रहे। इन्होंने 1942 से मृत्यु पर्यन्त इलाहाबाद में रह कर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य भी किया। वे जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा के साथ हिन्दी साहित्य में छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कहानियाँ उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेष रूप से कविता के कारण ही है।
  • रचनाएँ
निराला की रचनाओं में अनेक प्रकार के भाव पाए जाते हैं। यद्यपि वे खड़ी बोली के कवि थे, पर ब्रजभाषा व अवधी भाषा में भी कविताएँ गढ़ लेते थे। उनकी रचनाओं में कहीं प्रेम की सघनता है, कहीं आध्यात्मिकता तो कहीं विपन्नों के प्रति सहानुभूति व सम्वेदना, कहीं देश-प्रेम का ज़ज़्बा तो कहीं सामाजिक रूढ़ियों का विरोध व कहीं प्रकृति के प्रति झलकता अनुराग। इलाहाबाद में पत्थर तोड़ती महिला पर लिखी उनकी कविता आज भी सामाजिक यथार्थ का एक आईना है। उनका ज़ोर वक्तव्य पर नहीं वरन् चित्रण पर था, सड़क के किनारे पत्थर तोड़ती महिला का रेखांकन उनकी काव्य चेतना की सर्वोच्चता को दर्शाता है –
  • वह तोड़ती पत्थर
  • देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर
  • वह तोड़ती पत्थर
  • कोई न छायादार पेड़
  • वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार
  • श्याम तन, भर बंधा यौवन
  • नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन
  • गुरु हथौड़ा हाथ
  • करती बार-बार प्रहार
  • सामने तरू-मालिका अट्टालिका प्राकार
  • इसी प्रकार राह चलते भिखारी पर उन्होंने लिखा-
  • पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक
  • चल रहा लकुटिया टेक
  • मुट्ठी भर दाने को,
  • भूख मिटाने को
  • मुँह फटी पुरानी झोली को फैलाता
  • दो टूक कलेजे के करता पछताता।
  • राम की शक्ति पूजा के माध्यम से निराला ने राम को समाज में एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया। वे लिखते हैं -
  • होगी जय, होगी जय
  • हे पुरुषोत्तम नवीन
  • कह महाशक्ति राम के बदन में हुईं लीन।
सौ पदों में लिखी गयी तुलसीदास निराला की सबसे बड़ी कविता है, जो कि 1934 में लिखी गयी और 1935 में सुधा के पाँच अंकों में किस्तवार प्रकाशित हुयी। इस प्रबन्ध काव्य में निराला ने पत्नी के युवा तन-मन के आकर्षण में मोहग्रस्त तुलसीदास के महाकवि बनने को बख़ूबी दिखाया है –
  • जागा जागा संस्कार प्रबल
  • रे गया काम तत्क्षण वह जल
  • देखा वामा, वह न थी, अनल प्रमिता वह
  • इस ओर ज्ञान, उस ओर ज्ञान
  • हो गया भस्म वह प्रथम भान
  • छूटा जग का जो रहा ध्यान।
निराला की रचनाधर्मिता में एकरसता का पुट नहीं है। वे कभी भी बँधकर नहीं लिख पाते थे और न ही यह उनकी फक्कड़ प्रकृति के अनुकूल था। निराला की जूही की कली कविता आज भी लोगों के जेहन में बसी है। इस कविता में निराला ने अपनी अभिव्यक्ति को छंदों की सीमा से परे छन्दविहीन कविता की ओर प्रवाहित किया है–
  • विजन-वन वल्लरी पर
  • सोती थी सुहाग भरी स्नेह स्वप्न मग्न
  • अमल कोमल तन तरुणी जूही की कली
  • दृग बंद किये, शिथिल पत्रांक में
  • वासन्ती निशा थी
यही नहीं, निराला एक जगह स्थिर होकर कविता-पाठ भी नहीं करते थे। एक बार एक समारोह में आकाशवाणी को उनकी कविता का सीधा प्रसारण करना था, तो उनके चारों ओर माइक लगाए गए कि पता नहीं वे घूम-घूम कर किस कोने से कविता पढ़ें। निराला ने अपने समय के मशहूर रजनीसेन, चण्डीदास, गोविन्द दास, विवेकानन्द और रवीन्द्र नाथ टैगोर इत्यादि की बांग्ला कविताओं का अनुवाद भी किया, यद्यपि उन पर टैगोर की कविताओं के अनुवाद को अपना मौलिक कहकर प्रकाशित कराने के आरोप भी लगे। राजधानी दिल्ली को भी निराला ने अभिव्यक्ति दी-
  • यमुना की ध्वनि में
  • है गूँजती सुहाग-गाथा
  • सुनता है अन्धकार खड़ा चुपचाप जहाँ
  • आज वह फ़िरदौस, सुनसान है पड़ा
  • शाही दीवान आम स्तब्ध है हो रहा है
  • दुपहर को, पार्श्व में
  • उठता है झिल्ली रव
  • बोलते हैं स्यार रात यमुना-कछार में
  • लीन हो गया है रव
  • शाही अँगनाओं का
  • निस्तब्ध मीनार, मौन हैं मक़बरे।
निराला की मौलिकता, प्रबल भावोद्वेग, लोकमानस के हृदय पटल पर छा जाने वाली जीवन्त व प्रभावी शैली, अद्भुत वाक्य विन्यास और उनमें अन्तनिहित गूढ़ अर्थ उन्हें भीड़ से अलग खड़ा करते हैं। बसंत पंचमी और निराला का सम्बन्ध बड़ा अद्भुत रहा और इस दिन हर साहित्यकार उनके सान्निध्य की अपेक्षा रखता था। ऐसे ही किन्हीं क्षणों में निराला की काव्य रचना में यौवन का भावावेग दिखा-
  • रोक-टोक से कभी नहीं रुकती है
  • यौवन-मद की बाढ़ नदी की
  • किसे देख झुकती है
  • गरज-गरज वह क्या कहती है, कहने दो
  • अपनी इच्छा से प्रबल वेग से बहने दो।
  • यौवन के चरम में प्रेम के वियोगी स्वरूप को भी उन्होंने उकेरा-
  • छोटे से घर की लघु सीमा में
  • बंधे हैं क्षुद्र भाव
  • यह सच है प्रिय
  • प्रेम का पयोधि तो उमड़ता है
  • सदा ही नि:सीम भूमि पर।
निराला के काव्य में आध्यात्मिकता, दार्शनिकता, रहस्यवाद और जीवन के गूढ़ पक्षों की झलक मिलती है पर लोकमान्यता के आधार पर निराला ने विषयवस्तु में नये प्रतिमान स्थापित किये और समसामयिकता के पुट को भी ख़ूब उभारा। अपनी पुत्री सरोज के असामायिक निधन और साहित्यकारों के एक गुट द्वारा अनवरत अनर्गल आलोचना किये जाने से निराला अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में मनोविक्षिप्त से हो गये थे। पुत्री के निधन पर शोक-सन्तप्त निराला सरोज-स्मृति में लिखते हैं-
  • मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल
  • युग वर्ष बाद जब हुई विकल
  • दुख ही जीवन की कथा रही
  • क्या कहूँ आज, जो नहीं कही।
  • लोकप्रिय रचना
सन् 1916 ई. में 'निराला' की अत्यधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय रचना 'जुही की कली' लिखी गयी। यह उनकी प्राप्त रचनाओं में पहली रचना है। यह उस कवि की रचना है, जिसने 'सरस्वती' और 'मर्यादा' की फ़ाइलों से हिन्दी सीखी, उन पत्रिकाओं के एक-एक वाक्य को संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेज़ी व्याकरण के सहारे समझने का प्रयास किया। इस समय वे महिषादल में ही थे। 'रवीन्द्र कविता कानन' के लिखने का समय यही है। सन् 1916 में इनका 'हिन्दी-बंग्ला का तुलनात्मक व्याकरण' 'सरस्वती' में प्रकाशित हुआ।
  • काव्य प्रतिभा को प्रकाश
एक सामान्य विवाद पर महिषादल की नौकरी छोड़कर वे घर वापस चले आये। कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले रामकृष्ण मिशन के पत्र 'समन्वय' में वे सन् 1922 में चले गये। 'समन्वय' के सम्पादन काल में उनके दार्शनिक विचारों के पुष्ट होने का बहुत ही अच्छा अवसर मिला। इस काल में जो दार्शनिक चेतना उनको प्राप्त हुई, उससे उनकी काव्यशक्ति और भी समृद्ध हुई। सन् 1923-24 ई. में महादेव बाबू ने उन्हें 'मतवाला' के सम्पादन मण्डल में बुला लिया। फिर तो काव्य प्रतिभा को प्रकाश में ले आने का सर्वाधिक श्रेय 'मतवाला' को ही है। 'मतवाला' में भी ये 2-3 वर्षों तक ही रह पाये। इस काल की लिखी गयी अधिकांश कविताएँ 'परिमल' में संग्रहीत हैं।
  • आर्थिक संकट का काल
सन् 1927-30 ई. तक वे बराबर अस्वस्थ रहे। फिर स्वेच्छा से गंगा पुस्तक माला का सम्पादन तथा 'सुधा' में सम्पादकीय का लेखन करने लगे। सन् 1930 से 42 तक उनका अधिकांश समय लखनऊ में ही बीता। यह समय उनके घोर आर्थिक संकट का काल था। इस समय जीवकोपार्जन के लिए उन्हें जनता के लिए लिखना पड़ता था। सामान्य जनरुचि कथा साहित्य के अधिक अनुकूल होती है। उनके कहानी संग्रह 'लिली', 'चतुरी चमार', 'सुकुल की बीबी', (1941 ई.) और सखी की कहानियाँ तथा 'अप्सरा', 'अलका', 'प्रभावती', (1946 ई.) 'निरुपमा' इत्यादि उपन्यास उनके अर्थ संकट के फलस्वरूप प्रणीत हुए। वे समय-समय पर फ़ुटबॉल लेख भी लिखते रहे। इन लेखों का संग्रह 'प्रबन्ध पद्म' के नाम से इसी समय में प्रकाशित हुआ। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वे जनरुचि के कारण अपने धरातल से उतर कर सामान्य भूमि पर आ गये। उनके काव्यगत प्रयोग चलते रहे। सन् 1936 ई. में स्वरताल युक्त उनके गीतों का संग्रह 'गीतिका' नाम से प्रकाशित हुआ। दो वर्ष के बाद अर्थात् सन् 1938 ई. में उनका 'अनामिका' काव्य संग्रह प्रकाश में आया। यह संग्रह सन् 1922 ई. में प्रकाशित 'अनामिका' संग्रह से बिल्कुल भिन्न है। सन् 1938 ई. ही उनके अंतर्मुखी प्रबन्ध काव्य 'तुलसीदास' का भी प्रकाशन हुआ।
  • मुक्त वृत्त
हिन्दी काव्य क्षेत्र में 'निराला' का पदार्पण मुक्त वृत्त के साथ होता है। वे इस वृत्त के प्रथम पुरस्कर्त्ता हैं। वास्तव में 'निराला' की उद्दाम भाव धारा को छन्द के बन्धन बाँध नहीं सकते थे। गिनी-गिनाई मात्राओं और अन्त्यानुप्रासों के बँधे घाटों के बीच उनका भावोल्लास नहीं बँट सकता था। ऐसी स्थिति में काव्याभिव्यक्ति के लिए मुक्त वृत्त की अनिवार्यता स्वत: ही सिद्ध है। उन्होंने 'परिमल' की भूमिका में लिखा है-
मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्य की मुक्ति कर्म के बन्धन में छुटकारा पाना है और कविता मुक्त छन्दों के शासन से अलग हो जाना है। जिस तरह मुक्त मनुष्य कभी किसी तरह दूसरों के प्रतिकूल आचरण नहीं करता, उसके तमाम कार्य औरों को प्रसन्न करने के लिए होते हैं फिर भी स्वतंत्र। इसी तरह कविता का भी हाल है।
  • 'मेरे गीत और कला' शीर्षक निबन्ध में उन्होंने लिखा है-
भावों की मुक्ति छन्दों की मुक्ति चाहती है। यहाँ भाषा, भाव और छन्द तीनों स्वछन्द हैं।
रीतिकाल की कृत्रिम छन्दोबद्ध रचना के विरुद्ध यह नवीन उन्मेषशील काव्य की पहली विद्रोह वाणी है। भाव-व्यंजना की दृष्टि से मुक्तछन्द कोमल और परुष दोनों प्रकार की भावाभिव्यक्ति के लिए समान रूप से समर्थ हैं, यद्यपि 'निराला' का कहना है कि, 'यह कविता स्त्री की सुकुमारता नहीं, कवित्त्व का पुरुष गर्व है', किन्तु 'जूही की कली' जैसी उत्कृष्ट कोटि की श्रृंगारिक रचना इसी वृत्त में लिखी गयी है।
'निराला' द्वारा प्रस्तुत मुक्त छन्द का आधार कवित्त छन्द है। इसमें कवि को भावानुकूल चरणों के प्रसार की खुली छूट है। भाव की पूर्णता के साथ वृत्त भी समाप्त हो जाता है। आज तो मुक्त वृत्त काव्य-रचना का मुख्य छन्द हो गया है, पर अपनी विशिष्ट नादयोजना के कारण 'निराला' ने उसमें प्रभावपूर्ण संगीतात्मकता ला दी है। 'शेफ़लिका का पत्र' आदि रचनाएँ इसी छन्द में लिखी गयी हैं। 'पंचवटी प्रसंग'-गीति नाट्य के लिए इससे अधिक उपयुक्त और कोई छन्द नहीं हो सकता था। ये समस्त रचनाएँ 'परिमल' के तृतीय खण्ड में संग्रहीत हैं।
'परिमल' के द्वितीय खण्ड की रचनाएँ स्वच्छन्द छन्द में लिखी गयी हैं, जिसे 'निराला' मुक्तिगीत कहते हैं। इन गीतों में तुक का आग्रह तो है पर मात्राओं का नहीं। पन्त के 'आँसू', 'उच्छ्वास' और 'परिवर्तन' भी इसी छन्द में लिखे गये हैं। 'परिमल' के प्रथम खण्ड में सममात्रिक तुकान्त कविताएँ हैं। मुक्त वृत्तात्मक कविताएँ आख्यान प्रधान हैं तो मुक्तगीत चित्रण प्रधान और मात्रिक छन्द में लिखी गयी कविताओं में भाव और कल्पना की प्रधानता देखी जा सकती है। उनकी बहु-वस्तुस्पर्शिनी प्रतिभा का परिचय आरम्भ से ही मिलने लगता है-विशेष रूप से सड़ी-गली मान्यताओं के प्रति तीव्र विद्रोह तथा निम्नवर्ग के प्रति गहरी सहानुभूति उनमें प्रारम्भ से ही दिखाई देती है।
छायावादी कवियों ने मुख्यत: प्रगीतों की रचना की है। ये प्रगीत गेय तो होते हैं पर ये शास्त्रानुमोदित ढंग पर नहीं गाये जा सकते हैं। नाद-योजना की ओर अधिक झुकाव होने के कारण 'निराला' ने नये स्वर-ताल से युक्त गीतों की सृष्टि की। अंग्रेज़ी स्वर-मैत्री का प्रभाव बंगला के गीतों पर पड़ चुका था, उसके रंग-ढंग पर बंगला गीतों की स्वर लिपियाँ भी तैयार की गयीं। हिन्दी के कवियों में 'निराला' इस दिशा में भी अग्रसर हुए। उन्हें हिन्दी संगीत की शब्दावली और गाने के ढंग दोनों खटकते थे। इसके फलस्वरूप 'गीतिका' की रचना हुई।
  • गीत
निराला के गीत गायकों के गीतों की भाँति राग-रागनियों की रूढ़ियों से बँधे हुए नहीं हैं। उच्चारण का नया आधार लिये हुए सभी गीत एक अलग भूमि पर प्रतिष्ठित हैं। इनके स्वर, ताल और लय अंग्रेज़ी गीतों से प्रभावित हैं। पियानों पर गाये जाने वाले धार्मिक गीतों की झलक इन गीतों में मिलती है। इसलिए इन गीतों की गायन-पद्धति और भावविन्यास में पवित्रता का स्पष्ट संकेत मिलता है। यद्यपि 'गीतिका' की मूल भावना श्रृंगारिक है, फिर भी बहुत से गीतों में माधुर्य भाव से आत्मनिवेदन किया गया है। जगह-जगह मनोरम प्रकृति-वर्णन तथा उत्कृष्ट देश-प्रेम का चित्रण भी मिलता है। इस संग्रह की एक बड़ी विशेषता यह भी है कि इसमें संगीतात्मकता के नाम पर काव्य पक्ष को कहीं पर भी विकृत नहीं होने दिया गया है।
  • प्रौढ़काल
1935 ई. से 1938 ई. तक 'निराला' की काव्य रचना को प्रौढ़काल कहा जा सकता है। इस बीच लिखी हुई कविताएँ 'अनामिका' में संग्रहीत हैं। 'अनामिका' का प्रकाशन 1938 ई. में हुआ। 'अनामिका' में संग्रहीत अधिकांश रचनाएँ 'निराला' की उत्कृष्ट भाव-व्यंजना तथा कलात्मक प्रौढ़ता की द्योतक हैं। 'प्रेयसी', 'रेखा', 'सरोजस्मृति', 'राम की शक्तिपूजा' आदि उनकी श्रेष्ठतम रचनाएँ हैं। 'सरोजस्मृति' हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ शोक-गीत है तो 'राम की शक्तिपूजा' आदि उनकी श्रेष्ठतम रचनाएँ हैं। 'सरोजस्मृति' में करुणा की पृष्ठभूमि पर श्रृंगार, हास्य, व्यंग्य इत्यादि अनेक भावों का काव्यात्मक संगुम्फन किया गया है। नाटकीय गुणों से ओत-प्रोत होने के कारण वह और भी प्रभावपूर्ण हो उठी है। काव्य में कर्ता के जिस निर्लेप व्यक्तित्व का महत्त्व टी.एस. इलियट ने स्थापित किया है, वह इस कविता में चरम ऊँचाई पर पहुँचा हुआ है। 'राम की शक्तिपूजा' में कवि का पौरुष और ओज चरमोत्कर्ष के साथ अभिव्यक्त हुआ है। महाकाव्य में भावगत औदात्य के अनुकूल कलागत औदात्य आवश्यक है। इस कविता में दोनों प्रकार की उदात्तताओं का नीर-क्षीर सम्मिश्रण हुआ है।
  • प्रथम प्रेरणा केन्द्र
'तुलसीदास' में कथा की अपेक्षा चिन्तन का विस्तार अधिक है। इस प्रबन्ध में तुलसी के मानस पक्ष का उद्घाटन करते हुए तत्कालीन परिवेश का पूरा सहारा लिया गया है। चित्रकूट कानन की छवि की चिन्ताधारा का प्रथम प्रेरणा केन्द्र है। प्रकृति का जो चित्र कवि के सम्मुख प्रस्तुत हुआ है, उसको दो पक्ष हैं-प्रकृति का स्वयं का पक्ष और तत्कालीन समाज का निरूपण। कवि ने इन दोनों पक्षों का निर्वाह बहुत कुशलतापूर्वक किया है। भारत के सांस्कृतिक ह्रास के पुनरुद्धार की प्रेरणा तुलसी को प्रकृति के माध्यम से ही मिलती है। इसे देखकर उनकी अन्तर्वृत्तियाँ मन्थित हो उठी हैं। इन्हीं अन्तर्वृत्तियों का निरूपण पुस्तक की मूल चिन्ताधारा है। इस प्रबन्ध में भी उनके शिल्पी का रूप सहज ही भासित हो जाता है। छन्दों की बंदिश, रूपकों की विशद योजना, नवीन शब्द-विन्यास आदि उनके अपने हैं। पर इस ग्रन्थ में ऐसे शब्दों का व्यवहार भी हुआ है, जो अर्थ की दृष्टि से इसे दुरूह बना देते हैं। फिर भी जो लोग काव्य में बुद्धि-तत्त्व की अहमियत स्वीकार करेंगे, वे इसे निर्विवाद रूप से एक श्रेष्ठ रचना मानेंगे।
  • पूर्ण कविताएँ
प्रौढ़ कृतियों की सर्जना के साथ ही 'निराला' व्यंग्यविनोद पूर्ण कविताएँ भी लिखते रहे हैं। जिनमें से कुछ 'अनामिका' में संग्रहीत हैं। पर इसके बाद बाह्य परिस्थितियों के कारण, जिनमें उनके प्रति परम्परावादियों का उग्र विरोध भी सम्मिलित है, उनमें विशेष परिवर्तन दिखाई पड़ने लगा। 'निराला' और पन्त मूलत: अनुभूतिवादी कवि हैं। ऐसे व्यक्तियों को व्यक्तिगत और सामाजिक परिस्थितियाँ बहुत प्रभावित करती हैं। इसके फलस्वरूप उनकी कविताओं में व्यंग्योक्तियों के साथ-साथ निषेधात्मक जीवन की गहरी अभिव्यक्ति होने लगी। 'कुकुरमुत्ता' तक पहुँचते-पहुँचते वह प्रगतिवाद के विरोध में तर्क उपस्थित करने लगता है। उपालम्भ और व्यंग्य के समाप्त होते-होते कवि में विषादात्मक शान्ति आ जाती है। अब उनके कथन में दुनिया के लिए सन्देश भगवान् के प्रति आत्मनिवेदन है और है साहित्यिक-राजनीतिक महापुरुषों के प्रशस्ति अंकन का प्रयास। 'अणिमा' जीवन के इन्हीं पक्षों की द्योतक है, पर इसकी कुछ अनुभूतियों की तीव्रता मन को भीतर से कुरेद देती है। 'बेला' और 'नये पत्ते' में कवि की मुख्य दृष्टि उर्दू और फ़ारसी के बन्दों (छन्दों) को हिन्दी में डालने की ओर रही है। इसके बाद के उनके दो गीत-संग्रहों-'अर्चना' और 'गीतगुंज' में कहीं पर गहरी आत्मानुभूति की झलक है तो कहीं व्यंग्योक्ति की। उनके व्यंग्य की बानगी देखने के लिए उनकी दो गद्य की रचनाओं 'कुल्लीभाँट' और 'बिल्लेसुर बकरिहा' को भुलाया नहीं जा सकता।
  • द्रष्टा कवि
सब मिलाकर 'निराला' भारतीय संस्कृति के द्रष्टा कवि हैं-वे गलित रूढ़ियों के विरोधी तथा संस्कृति के युगानुरूप पक्षों के उद्घाटक और पोषक रहे हैं पर काव्य तथा जीवन में निरन्तर रूढ़ियों का मूलोच्छेद करते हुए इन्हें अनेक संघर्षों का सामना करना पड़ा। मध्यम श्रेणी में उत्पन्न होकर परिस्थितियों के घात-प्रतिघात से मोर्चा लेता हुआ आदर्श के लिए सब कुछ उत्सर्ग करने वाला महापुरुष जिस मानसिक स्थिति को पहुँचा, उसे बहुत से लोग व्यक्तित्व की अपूर्णता कहते हैं। पर जहाँ व्यक्ति के आदर्शों और सामाजिक हीनताओं में निरन्तर संघर्ष हो, वहाँ व्यक्ति का ऐसी स्थिति में पड़ना स्वाभाविक ही है। हिन्दी की ओर से 'निराला' को यह बलि देनी पड़ी। जागृत और उन्नतिशील साहित्य में ही ऐसी बलियाँ सम्भव हुआ करती हैं- प्रतिगामी और उद्देश्यहीन साहित्य में नहीं।
  • प्रमुख कृतियाँ
  • कविता संग्रह
  • परिमल, अनामिका, गीतिका, कुकुरमुत्ता, आदिमा, बेला, नये पत्त्ते, अर्चना, आराधना, तुलसीदास, जन्मभूमि।
  • उपन्यास
  • अप्सरा, अल्का, प्रभावती, निरूपमा, चमेली, उच्च्श्रंखलता, काले कारनामे।
  • पुराण कथा : महाभारत।
  • कहानी संग्रह
  • चतुरी चमार, शुकुल की बीवी, सखी, लिली, देवी।
  • आलोचना : रविन्द्र-कविता-कन्नन।
  • निबन्ध संग्रह
  • प्रबन्ध-परिचय, प्रबन्ध प्रतिभा, बंगभाषा का उच्चरन, प्रबन्ध पद्य, प्रबन्ध प्रतिमा, चाबुक, चयन, संघर्ष।
  • सहायक ग्रन्थ
  • क्रान्तिकारी कवि 'निराला': बच्चन सिंह, निराला की साहित्य-साधना: रामविलास शर्मा।
  • अनुवाद
  • आनन्द मठ, विश्व-विकर्ष, कृष्ण कान्त का विल, कपाल कुण्डला, दुर्गेश नन्दिनी, राज सिंह, राज रानी, देवी चौधरानी, युगलंगुलिया, चन्द्रशेखर, रजनी, श्री रामकृष्णा वचनामृत, भारत में विवेकानन्द, राजयोग।
  • निधन : 15 अक्टूबर, 1961 को अपनी यादें छोड़कर निराला इस लोक को अलविदा कह गये पर मिथक और यथार्थ के बीच अन्तर्विरोधों के बावजूद अपनी रचनात्मकता को यथार्थ की भावभूमि पर टिकाये रखने वाले निराला आज भी हमारे बीच जीवन्त हैं। इनकी मृत्यु प्रयाग में हुई थी। मुक्ति की उत्कट आकांक्षा उनको सदैव बेचैन करती रही, तभी तो उन्होंने लिखा –
  • तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा
  • पत्थर की, निकलो फिर गंगा-जलधारा
  • गृह-गृह की पार्वती
  • पुन: सत्य-सुन्दर-शिव को सँवारती
  • उर-उर की बनो आरती
  • भ्रान्तों की निश्चल ध्रुवतारा
  • तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा।

  • रामकुमार वर्मा
रामकुमार वर्मा (जन्म: 15 सितंबर, 1905; मृत्यु: 1990) आधुनिक हिन्दी साहित्य में 'एकांकी सम्राट' के रूप में जाने जाते हैं। डॉ. रामकुमार वर्मा हिन्दी भाषा के सुप्रसिद्ध साहित्यकार, व्यंग्यकार और हास्य कवि के रूप में जाने जाते हैं। रामकुमार वर्मा की हास्य और व्यंग्य दोनों विधाओं में समान रूप से पकड़ है। नाटककार और कवि के साथ-साथ उन्होंने समीक्षक, अध्यापक तथा हिन्दी-साहित्य के इतिहास-लेखक के रूप में भी हिन्दी साहित्य-सर्जन में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। रामकुमार वर्मा एकांकीकार, आलोचक और कवि हैं। इनके काव्य में 'रहस्यवाद' और 'छायावाद' की झलक है।
  • जीवन परिचय
डॉ. रामकुमार वर्मा का जन्म मध्य प्रदेश के सागर ज़िले में 15 सितंबर सन् 1950 ई. में हुआ। इनके पिता लक्ष्मी प्रसाद वर्मा डिप्टी कलैक्टर थे। वर्माजी को प्रारम्भिक शिक्षा इनकी माता श्रीमती राजरानी देवी ने अपने घर पर ही दी, जो उस समय की हिन्दी कवयित्रियों में विशेष स्थान रखती थीं। बचपन में इन्हें 'कुमार' के नाम से पुकारा जाता था। रामकुमार वर्मा में प्रारम्भ से ही प्रतिभा के स्पष्ट चिह्न दिखाई देते थे। ये सदैव अपनी कक्षा में प्रथम आया करते थे। पठन-पाठन की प्रतिभा के साथ ही साथ रामकुमार वर्मा शाला के अन्य कार्यों में भी काफ़ी सहयोग देते थे। अभिनेता बनने की रामकुमार वर्मा की बड़ी प्रबल इच्छा थी। अतएव इन्होंने अपने विद्यार्थी जीवन में कई नाटकों में एक सफल अभिनेता का कार्य किया है। रामकुमार वर्मा सन् 1922 ई. में दसवीं कक्षा में पहुँचे। इसी समय प्रबल वेग से असहयोग की आँधी उठी और रामकुमार वर्मा राष्ट्र सेवा में हाथ बँटाने लगे तथा एक राष्ट्रीय कार्यकर्ता के रूप में जनता के सम्मुख आये। इसके बाद वर्माजी ने पुनः अध्ययन प्रारम्भ किया और सब परीक्षाओं में सफलता प्राप्त करते हुए प्रयाग विश्वविद्यालय से हिन्दी विषय में एम. ए. में सर्वप्रथम आये। रामकुमार वर्मा ने नागपुर विश्वविद्यालय की ओर से 'हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' पर पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। अनेक वर्षों तक रामकुमार वर्मा प्रयाग विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक तथा फिर अध्यक्ष रहे हैं।

  • सुप्रसिद्ध कवि
रामकुमार वर्मा आधुनिक हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध कवि, एकांकी नाटक-लेखक और आलोचक हैं। चित्ररेखा' काव्य-संग्रह पर इन्हें हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ देव पुरस्कार मिला है। साथ ही 'सप्त किरण' एकांकी संग्रह पर अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन पुरस्कार और मध्यप्रदेश शासन परिषद से विजयपर्व नाटक पर प्रथम पुरस्कार मिला है। रामकुमार वर्मा रूसी सरकार के विशेष आमंत्रण पर मास्को विश्वविद्यालय के अंतर्गत प्रायः एक वर्ष तक शिक्षा कार्य कर चुके हैं। हिन्दी एकांकी के जनक रामकुमार वर्मा ने ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और साहित्यिक विषयों पर 150 से अधिक एकांकी लिखीं। भगवतीचरण वर्मा ने कहा था, 'डॉ. रामकुमार वर्मा रहस्यवाद के पंडित हैं। उन्होंने रहस्यवाद के हर पहलू का अध्ययन किया है। उस पर मनन किया है। उसको समझना हो और उसका वास्तविक और वैज्ञानिक रूप देखना हो तो उसके लिए श्री वर्मा की ‘चित्ररेखा’ सर्वश्रेष्ठ काव्य ग्रंथ होगा।

  • रुचि
डॉ. रामकुमार वर्मा की कविता, संगीत और कलाओं में गहरी रुचि थी। 1921 तक आते-आते युवक रामकुमार गाँधी जी के उनके असहयोग आंदोलन में सम्मिलित हो गए। उन्होंने 17 वर्ष की आयु में एक कविता प्रतियोगिता में 51 रुपए का पुरस्कार जीता था। यहीं से उनकी साहित्यिक यात्रा आरंभ हुई थी। डॉ. रामकुमार वर्मा ने देश ही नहीं विदेशों में भी हिन्दी का परचम लहराया। 1957 में वे मास्को विश्वविद्यालय के अध्यक्ष के रूप में सोवियत संघ की यात्रा पर गए। 1963 में उन्हें नेपाल के त्रिभुवन विश्वविद्यालय ने शिक्षा सहायक के रूप में आमंत्रित किया। 1967 में वे श्रीलंका में भारतीय भाषा विभाग के अध्यक्ष के रूप में भेजे गए।

  • कृतियाँ : रूस में रामकुमार वर्मा की रचनाएँ सन् 1922 ई. से प्रारम्भ हुईं। इनकी कृतियाँ इस प्रकार हैं:-
  • 'वीर हमीर' (काव्य-सन 1922 ई.), 'चित्तौड़ की चिंता' (काव्य सन् 1929 ई.), 'साहित्य समालोचना' (सन 1929 ई.), 'अंजलि' (काव्य-सन 1930 ई.), 'अभिशाप' (कविता-सन 1931 ई.), 'हिन्दी गीतिकाव्य' (संग्रह-सन 1931 ई.), 'निशीथ' (कविता-सन 1935 ई.), 'चित्ररेखा' (कविता-सन 1936 ई.), 'पृथ्वीराज की आँखें' (एकांकी संग्रह-सन 1938 ई.), 'कबीर पदावली' (संग्रह सम्पादन-सन 1938 ई.), 'हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' (सन 1939 ई.), 'आधुनिक हिन्दी काव्य' (संग्रह सम्पादन-सन 1939 ई.), 'जौहर' (कविता संग्रह- 1941 ई.), 'रेशमी टाई' (एकांकी संग्रह-सन 1941 ई.), 'शिवाजी' (सन 1943 ई.), 'चार ऐतिहासिक एकांकी' (संग्रह-सन 1950 ई.), 'रूपरंग' (एकांकी संग्रह-सन 1951 ई.), 'कौमुदी महोत्सव'
  • ऐतिहासिक नाटक
  • 'एकलव्य', 'उत्तरायण', 'ओ अहल्या'

  • पूरा नाम डॉ. रामकुमार वर्मा
  • जन्म 15 सितंबर, 1905
  • जन्म भूमि सागर ज़िला, मध्यप्रदेश
  • मृत्यु 1990 ई.
  • अभिभावक श्री लक्ष्मी प्रसाद वर्मा, श्रीमती राजरानी देवी
  • कर्म भूमि मध्य प्रदेश
  • कर्म-क्षेत्र साहित्य
  • मुख्य रचनाएँ 'अंजलि', 'अभिशाप', 'निशीथ', 'जौहर', 'चित्तौड़ की चिता' आदि।
  • भाषा हिन्दी
  • विद्यालय प्रयाग विश्वविद्यालय, नागपुर विश्वविद्यालय
  • पुरस्कार-उपाधि देव पुरस्कार, पद्म भूषण
  • प्रसिद्धि एकांकीकार, आलोचक और कवि
  • नागरिकता भारतीय
  • छायावाद
डॉ. वर्मा का कवि-व्यक्तित्व द्विवेदीयुगीन प्रवृत्तियों से उदित होकर छायावाद क्षेत्र में मूल्यवान उपलब्धि सिद्ध हुआ। इनकी काव्यगत विशेषताओं में कल्पनावृत्ति, संगीतात्मकता, रहस्यमय सौन्दर्य-दृष्टि (रहस्यवाद) का स्थान अनन्य है। छायावादकाल की कविताएँ इनकी कवि प्रतिभा का सुन्दर प्रतिनिधित्व करती हैं।
  • रहस्यवाद
हिन्दी रहस्यवाद के क्षेत्र में इनकी अपनी विशेष देन है। अपनी रहस्यवादी कृतियों में इन्होंने प्रकृति और मानवीय हृदय के सूक्ष्म तत्त्वों, जिनमें अलौकिक सत्ता का अबाध प्रकाश है, बहुत बड़ा सहारा लिया है। इन्होंने प्रकृति की विराट सत्ता में सर्वत्र ईश्वरीय संकेत की अनुभूति की है। इस प्रकार जहाँ इन्होंने अपने इस धरातल के काव्य-जगत में एक ओर मानव आत्मा की सफल प्रेममय प्रवृत्तियों की थाह ली है, वहाँ उन्होंने प्रकृति के रहस्यों का भी सफल अंवेषण किया है। सर्वत्र भावना क्षेत्र में तद्विषयक अभिव्यक्ति के लिए प्रायः रूपकों का सहारा लिया है, जिनमें एक ओर आध्यात्मिक संकेत हैं और दूसरी ओर एक अलौकिक व्यंजना।
  • नाटककार
नाटककार रामकुमार वर्मा का व्यक्तित्व कवि-व्यक्तित्व से अधिक शाक्तिशाली और लोकप्रिय सिद्ध हुआ है। नाटककार धरातल से उनका एकांकीकार स्वरूप ही उनकी विशेष महत्ता है और इस दिशा में वे आधुनिक हिन्दी एकांकी के जनक कहे जाते हैं, जो निर्विवाद सत्य है। प्रारम्भिक प्रभाव की दृष्टि से इन पर शा, इब्सन मैटरलिंक, चेखब आदि का विशेष प्रभाव पड़ा है किंतु यह सत्य है कि डॉ. वर्मा इस क्षेत्र में, विशेषकर मनोवेगों की अभिव्यक्ति और अपने दृष्टिकोण में सदा मौलिक और भारतीय रहे हैं। 'बादल की मृत्यु' इनका सर्वप्रथम एकांकी नाटक था, जो 1930 ई. में 'विश्वामित्र' में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद डॉ. वर्मा ने क्रमशः दस मिनट, नहीं का रहस्य, पृथ्वीराज की आँखें, चम्पक और एक्ट्रेस आदि नाटकों (एकांकी) की रचना की तथा इस उदय के बाद इनका एकांकीकार व्यक्तित्व आधुनिक हिन्दी नाटय साहित्य का प्रकाश-स्तभ हो गया।
  • कृतित्व
रेशमीटाई के उपरांत डॉ. वर्मा के कृतित्व में एक विशेष धारा ऐतिहासिक एकांकियों की विकसित हुई, जिसमें डॉ. रामकुमार एक ऐसे आदर्शवादी कलाकार के रूप में हिन्दी नाटय जगत् के सामने आये, जिनमें उनके सांस्कृतिक और साहित्यिक मान्यताओं का सुन्दरतम समंवय स्थापित हुआ है। 'वे कलुष के भीतर से पवित्रता, दैन्य के भीतर से शालीनता, वासना के भीतर से आत्मसंयम एवं क्षुद्रता से महानता का अंवेषण करने में समर्थ हुए हैं और यह सब उन्होंने पात्रों और परिस्थितियों के संघर्ष से स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत किया है।'
  • आलोचक
रामकुमार वर्मा एकांकीकार, आलोचक और कवि हैं। इनके काव्य में रहस्यवाद और छायावाद की झलक है। आलोचना के क्षेत्र में रामकुमार वर्मा की कबीरविषयक खोज और उनके पदों का प्रथम शुद्ध पाठ तथा कबीर के रहस्यवाद और योगसाधना की पद्धति की समालोचना विशेष उपलब्धि है। हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन क्षेत्र में उनके प्रसिद्ध ग्रंथ हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास (1938 ई.) का विशेष महत्त्व है। सामाजिक तथा शाक्तियों के अध्ययन परिप्रेक्ष्य में हिन्दी साहित्य के आदि युग और मध्य युग को समग्र रूप में देखने का यह पहला सफल प्रयास है। इसके अतिरिक्त काव्य, कला और साहित्य के विभिन्न अंगों तथा माध्यमों पर ललित लेख डॉ. वर्मा के निबन्धकार व्यक्तित्व के सुन्दरतम उदाहरण हैं। ‘‘जिस देश के पास हिंदी जैसी मधुर भाषा है वह देश अंग्रेज़ी के पीछे दीवाना क्यों है? स्वतंत्र देश के नागरिकों को अपनी भाषा पर गर्व करना चाहिए। हमारी भावभूमि भारतीय होनी चाहिए। हमें जूठन की ओर नहीं ताकना चाहिए’’ हिंदी को लेकर यह पीड़ा अपनी भाषा के प्रति गहरी प्रतिबद्धता और आस्था रखने वाले डॉ रामकुमार वर्मा की है।
  • हिंदी एकांकी के जनक
हिंदी की लघु नाट्य परंपरा को एक नया मोड़ देने वाले डॉ. रामकुमार वर्मा आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘एकांकी सम्राट्’ के रूप में समादृत हैं। उन्होंने हिंदी नाटक को एक नया संरचनात्मक आदर्श सौंपा। नाट्य कला के विकास की संभावनाओं के नए पाट खोलते हुए नाट्य साहित्य को जन जीवन के निकट पहुँचा दिया। नाटककार और कवि के साथ-साथ उन्होंने समीक्षक, अध्यापक तथा हिंदी साहित्येतिहास-लेखक के रूप में भी हिंदी साहित्य-सृजन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नाटककार के रूप में उन्होंने मनोविज्ञान के अनेकानेक स्तरों पर मानव-जीवन की विविध संवेदनाओं को स्वर दिया तो छाया वादी कवियों की कतार में खड़े होकर रहस्य और अध्यात्म की पृष्ठभूमि में अपने काव्यात्मक संस्कारों को विकसित कर रहस्यमयी जगत् के स्वप्नों में सहृदय को प्रवेश कराया। डॉ. वर्मा के साहित्यिक व्यक्तित्व को नाटककार और कवि के रूप में अधिक प्रमुखता मिली सन् 1930 में रचित ’बादल की मृत्यु’ उनका पहला एकांकी है, जो फेंटेसी के रूप में अत्यंत लोकप्रिय हुआ। भारतीय आत्मा और पाश्चात्य तकनीक के समन्वय से उन्होंने हिंदी एकांकी कला को निखार दिया। उन्होंने ऐतिहासिक और सामाजिक दो तरह के एकांकी नाटकों की सृष्टि की। ऐतिहासिक नाटकों में उन्होंने भारतीय इतिहास से स्वर्णिम पृष्ठों से नाटकों की विषय-वस्तु को ग्रहण कर चरित्रों की ऐसी सुदृढ़ रूप रेखा प्रस्तुत की जो पाठकों में उच्च चारित्रिक संस्कार भर सके और सामयिक जीवन की समस्याओं को समाधान की दिशा दे सके। उनके नाटक भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीय उद्बोधन के स्वर बखूबी समेटे हुए हैं। गर्व के साथ वे कहते हैं, ’ऐतिहासिक एकांकियों में भारतीय संस्कृति का मेरुदंड-नैतिक मूल्यों में आस्था और विश्वास का दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है।’ उनके सामाजिक एकांकी प्रेम और सेक्स की समस्याओं से संबंधित हैं। ये एकांकी मानसिक अंतर्द्वंद की आधार भूमि पर यथार्थवादी कलेवर में समाज और जीवन की वस्तु-स्थिति तक पहुँचते हैं। पर इन एकांकियों में लेखक की आदर्शवादी सोच इतनी गहरी है कि वे आदर्शवादी झोंक में यथार्थ को मनमाना नाटकीय मोड़ दे बैठते हैं। इसलिए उनके स्त्री पात्र शिक्षा और नए संस्कारों के बावजूद प्रेम और जीवन के संघर्ष में जीवन का मोह त्यागकर प्रेम के लिए उत्सर्ग कर बैठते हैं मानो उत्सर्ग या प्राणांत ही सच्चे प्रेम की कसौटी हो। आधुनिक पात्रों पर भी लेखक ने अपनी आदर्शवादी सोच को थोप दिया है।
  • आलोचकों का दृष्टिकोण
डॉ. रामकुमार वर्मा बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। लेखन की ऐसी कोई विधा नहीं जो उनकी कलम से अछूती रह गई हो। कभी कवि तो कभी एकांकीकार, कभी नाटककार तो कभी संपादक, कभी शोधकर्ता तो कभी साहित्य के इतिहास लेखक, न जाने कितने-कितने रूपों में इस कृतिकार ने हिंदी के साहित्य आकाश को अपनी आभा से चमत्कृत किया। 101 से अधिक कृतियाँ उनकी सृजनशीलता का दस्तावेज़ हैं। कोई उन्हें नाटक सम्राट मानता है तो कोई हिंदी एकांकी का जनक। कोई कहता है आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद अगर किसी ने प्रमाणिक हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा है तो वे डॉ रामकुमार वर्मा ही है। सच तो यह है कि किसी एक व्यक्ति का साहित्य की इतनी विधाओं पर ऐसा अधिकार होना आलोचकों के लिए हैरत का प्रश्न है। महात्मा बुद्ध, भगवान महावीर, अशोक, समुद्र गुप्त, चंद्रगुप्त और शिवाजी से लेकर 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के महानायकों तक सभी उनके नाटकों के पात्र रहे हैं। अपने 26 से अधिक नाटकों के माध्यम से वे देशवासियों में भारतीयता, देश प्रेम और इतिहास से प्रेरणा लेने की चेतना भरते रहे हैं। साहित्यकार कमलेश्वर कहते हैं,डॉ. वर्मा ने एकांकी विधा का सृजन करके साहित्य में प्रयोगवाद को बढ़ावा दिया। डॉ. धर्मवीर भारती, अजित कुमार, जगदीश गुप्त, मार्कण्डेय, दुष्यंत कुमार, राजनारायण, कन्हैयालाल नंदन, रमानाथ अवस्थी, ओंकारनाथ श्रीवास्तव, उमाकांत मालवीय और स्वयं मैं उनका छात्र रहा हूँ। ऐतिहासिक नाटकों का यही स्रष्टा जब भावुक हो उठा तो उसके कवि मन से ‘एकलव्य’, ‘उत्तरायण’, एवं ‘ओ अहल्या’ जैसे कालजई सांस्कृतिक महाकाव्य लिख डाले। हिंदी एकांकी के इस जनक ने ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और साहित्यिक विषयों पर रंगमंच पर खेले जा सकने वाले 150 से अधिक एकांकी लिख सबको हतप्रभ कर दिया। यही वजह थी कि भगवतीचरण वर्मा ने कहा था, ‘‘ डॉ. रामकुमार वर्मा रहस्यवाद के पंडित हैं। उन्होंने रहस्यवाद के हर पहलू का अध्ययन किया है। उस पर मनन किया है। उसको समझना हो और उसका वास्तविक और वैज्ञानिक रूप देखना हो तो उसके लिए श्री वर्मा की ‘चित्ररेखा’ सर्वश्रेष्ठ काव्य ग्रंथ होगा’’

  • स्मरणीय तथ्य
  • 15 सितंबर, 1905 को जन्मे डॉ. रामकुमार वर्मा की कविता, संगीत और कलाओं में गहरी रुचि थी।
  • 1921 तक आते-आते युवक रामकुमार गाँधी जी के उनके असहयोग आंदोलन में सम्मिलित हो गए।
  • उन्होंने 17 वर्ष की आयु में एक कविता प्रतियोगिता में 51 रुपए का पुरस्कार जीता था। यही से उनकी साहित्यिक यात्रा आरंभ हुई थी।
  • डॉ. रामकुमार वर्मा ने देश ही नहीं विदेशों में भी हिंदी का परचम लहराया।
  • 1957 में वे मास्को विश्वविद्यालय के अध्यक्ष के रूप में सोवियत संघ की यात्रा पर गए।
  • 1963 में उन्हें नेपाल के त्रिभुवन विश्वविद्यालय ने शिक्षा सहायक के रूप में आमंत्रित किया।
  • 1967 में वे श्रीलंका में भारतीय भाषा विभाग के अध्यक्ष के रूप में भेजे गए।
  • उनके कृतित्व से प्रभावित होकर स्विट्जरलैंड के मूर विश्वविद्यालय ने उन्हें डीलिट की उपाधि से सम्मानित किया।
  • भारत सरकार ने उन्हें 1965 में पद्म भूषण के राष्ट्रीय अलंकरण से विभूषित किया।
  • उनकी जन्मशती साहित्य जगत् के लिए सृजन का एक पर्व है। इसीलिए पूरे वर्ष भर देश में जगह-जगह उनकी याद और सम्मान में कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।
  • पुरस्कार
रामकुमार वर्मा को उपन्यास 'चित्ररेखा' पर देव पुरस्कार एवं एकांकी संग्रह पर अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन पुरस्कार मिला। इनको भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण अलंकरण से विभूषित किया गया। उनके कृतित्व से प्रभावित होकर स्विट्जरलैंड के मूर विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट की उपाधि से सम्मानित किया।

  • हरिवंश राय बच्चन
हरिवंश राय बच्चन हिंदी भाषा के कविथे, ऐसा माना जाता हैं इनकी कविताओं ने भारतीय साहित्य में परिवर्तन किया था, इनकी शैली पूर्व कवियों से भिन्न थी. इसलिए इन्हें नयी सदी का रचियता कहा जाता हैं. इनकी रचनाओं ने भारत के काव्य में नयी धारा का संचार किया.
  • नाम हरिवंशराय बच्चन
  • जन्म मृत्यु 27 नवंबर 1907- 18 जनवरी 2003
  • पत्नी श्यामा एवम तेजी बच्चन
  • संतान अजिताभ एवम अमिताभ
  • कार्य कवि
  • शैली हिंदी, छायावाद
कविताये मधुशाला लो दिन बीता, लो रात गई  किस कर में यह वीणा धर दूँ? कवि की वासना जीवन की आपाधापी में  है अँधेरी रात पर दीया जलानाकब मना है अँधेरे का दीपक
हरिवंशराय बच्चन जिनकी कई कवितायेँ आज हम सुनते और उनका आनंद लेते हैं आज वे हमारे बीच तो नहीं हैं, लेकिन उनकी कविताये उन्हें सदैव सजीव रखती हैं. उनकी कविता वास्तविक्ता का दर्पण हैं जिनमे जीवन की सच्चाई का अनूठा विवरण मिलता हैं. ऐसे महान राष्ट्रवादी कवि हरिवंश राय बच्चन का जन्म 27 नवंबर 1907 को इलाहाबाद के पास प्रतापगढ़ जिले के छोटे से गाँव बाबूपट्टी में हुआ था. इन्हें छाया वाद का कविकहा जाता हैं भारतीय सिनेमा जगत के सुपर स्टार श्री अमिताभ बच्चन के पिता के तौर पर इनकी ख्याति और भी अधिक प्रभावशील हैं . इनका स्वभाव तेज होने के कारण एंग्री मेन कहे जाने वाले अमिताभ भी इनके सामने निगाहे उपर नहीं कर सकते थे. उनकी यह शैली उनकी कृतियों से भी साफ़ जाहिर होती हैं . हरिवंशराय बच्चन को हिंदी के महान कवियों के रूप में जाना जाता हैं . 18 जनवरी 2003 में इन्होने जीवन से रुक्सत ली लेकिन आज भी अपनी कविताओं के रूप में जीवित हैं. इनकी कविताओं का लयबद्ध रूपांतरण जिसे हम इनके सुपुत्र की आवाज में सुनते हैं बहुत ही मनमोहक लगती हैं.
  • हरिवंशराय बच्चन शिक्षा एवम प्रारंभिक जीवन
इलाहाबाद के छोटे से गाँव बाबूपट्टी में जन्मे हरिवंशराय जी प्रताप नारायण श्रीवास्तव एवम सरस्वती देवी के बड़े बेटे थे. वे इनको प्यार से बच्चन कह कर बुलाया करते थे. हरिवंशराय जी अपनी शिक्षा म्युनिसिपल स्कूल से शुरू की थी, इसके बाद वे उर्दू सीखने के लिए कायस्त स्कूल चले गए. 1938 में इन्होंने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से इंग्लिश लिटरेचर में MA किया और 1952 तक वे इसी यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर भी रहे. इस दौरान वे देश की स्वतंत्रता के लिए महात्मा गाँधी से भी जुड़े. लेकिन थोड़े ही समय में उनको ये अहसास हुआ कि वे ज़िन्दगी में कुछ और करना चाहते है और वे फिर बनारस यूनिवर्सिटी चले गए.1952 में इंग्लिश लिटरेचर में PHD करने के लिए इंग्लैंड की कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी चले गए. इसके बाद वे अपने नाम के आगे श्रीवास्तव की जगह बच्चन लगाने लगे. वे दुसरे भारतीय थे जिन्हें कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से इंग्लिश लिटरेचर में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त हुई थी. वापस आकर वे फिर से यूनिवर्सिटी में पढ़ने लगे साथ ही साथ ऑल इंडिया रेडियो अलाहाबाद में काम करने लगे.
  • हरिवंशराय बच्चन का विवाह
हरिवंश बच्चन जब बी.ए. प्रथम वर्ष में थे, उसी दौरान उनकी मुलाकात श्यामा बच्चन से हुई। जिसके बाद दोनों के बीच प्रेम हो गया। प्रेम होने के बाद 1926 में दोनों ने सबकी रजामंदी के शादी कर ली। शादी से पहले हरिवंश राय बच्चन की कई मशहूर कविताएं प्रसिद्ध हुई। जिसके बाद उनके घर में लोग और दोस्त उनसे मिलने आने लगे। तभी शादी होने के कुछ समय बाद उनकी पत्नी श्यामा बच्चन का अचानक ही निधन हो गया। उनके इस दुनिया से जाने से हरिवंश राय बच्चन काफी अकेले और उदास रहने लगे। उसके बाद वो अपने दोस्त प्रकाश के पास आए जहां उनकी मुलाकात मिस तेजी सूरी से हुई यही से शुरूआत हुई उनकी दोबारा लव स्टोरी की। 24 जनवरी 1942 को हरिवंश राय बच्चन ने तेजी सूरी से शादी कर ली।
  • हरिवंशराय बच्चन द्वारा प्राप्त सम्मान एवम ख्याति
1955 में हरिवंशराय जी Delhi चले गए और भारत सरकार ने उन्हें विदेश मंत्रालय में हिंदी विशेषज्ञ के रूप में नियुक्त कर लिया. 1966 में इनका नाम राज्य सभा के लिए लिया गया था. 3 साल बाद भारत सरकार द्वारा इनको साहित्य अकादमी अवार्ड दिया गया. 1976 में हिंदी साहित्य में इनके योगदान के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया गया. हरिवंशराय जी को सरस्वती सम्मान, नेहरु अवार्ड, लोटस अवार्ड से भी सम्मानित किया गया था. हरिवंशराय जी ने शेक्सपियर की Macbeth and Othello को हिंदी में रूपांतरित किया जिसके लिए उन्हें सदैव स्मरण किया जाता है. 1984 में हरिवंशराय जी ने इंदिरा गाँधी की मौत के बाद अपनी आखिरी रचना “1 नवम्बर 1984” लिखी थी.
  • हरिवंशराय बच्चन काव्य शैली एवं रचनायें
हरिवंशराय जी व्यक्तिवादी गीत कविता या हालावादी काव्य के अग्रणी कवि थे. इनकी प्रसिध्य रचना ‘मधुशाला’ इन्होंने उमर खैय्याम की रूबाइयों से प्रेरित होकर लिखी थी. मधुशाला बेहद प्रसिद्द हुई और कवि प्रेमियों के पसंदीदा कवि के रूप में हरिवंशराय जी का नाम सामने आया. हरिवंशराय जी की मुख्य कृतियां निशा निमंत्रण, मधुकलश, मधुशाला, सतरंगिनी, एकांत संगीत, खादी के फूल, दो चट्टान, मिलन, सूत की माला एवं आरती व अंगारे है. हरिवंशराय बच्चन जी की कई कविताओं को अमिताभ बच्चन ने अपनी आवाज देकर उसे और भी सुंदर बना दिया हैं, पुत्र द्वारा पिता को दिया यह तौहफा बहुत ही दिल को छूने वाला हैं .
हिंदी साहित्य के महान कवि हरिवंशराय जी ने बहुत सी रचनाएँ लिखी है, ये मुख्य रूप से अपनी कविता ‘मधुशाला’ के लिए जाने जाते थे. वर्तमान समय में अमिताभ ने अपने पिता की कई कविताओं को अपनी आवाज दी . वे सभी भी श्रोताओं द्वारा बहुत पसंद की गई . हरिवंश राय जी की शैली भिन्न थी इसलिए उन्हें नवीन युग के प्रारम्भ के रूप में जाना जाता हैं .
  • हरिवंशराय बच्चन का निधन
हरिवंशराय जी का 18 जनवरी 2003 में 95 वर्ष की आयु में बम्बई में निधन हो गया. अपने 95 वर्ष के इस जीवन में बच्चन जी ने पाठको एवम श्रोताओं को अपनी कृतियों के रूप में जो तौहफा दिया हैं वो सराहनीय हैं .म्रत्यु तो बस एक क्रिया हैं जो होना स्वाभाविक हैं लेकिन हरिवंशराय बच्चन जी अपनी कृतियों के जरिये आज भी जीवित हैं और हमेशा रहेंगे और याद किये जायेंगे .इनकी रचनाओं ने इतिहास रचा और भारतीय काव्य को नयी दिशा दी जिसके लिए सभी इनके आभारी हैं और गौरवान्वित भी कि ऐसे महानुभाव ने भारत भूमि पर जन्म लिया .
हरिवंशराय बच्चन जैसे महान कविकम ही मिलते हैं . ऐसी विचारधारा वाले कवि कई सदियों में एक एक बार ही जन्म लेते हैं . उनकी सभी रचनाये देश के लिए धरोहर हैं, जिनका सम्मान हम सभी का हक़ एवम कर्तव्य हैं .
हरिवंश राय बच्चन द्वारा बच्चन की आत्मकथा चार खंड़ो में लिखी हुई है। जैसे-
क्या भूलूं क्या याद करूं,
नींड़ का निर्माण फिर,
बसेरे से दूर,
दशद्वारा से सोपाना तक संस्करण है।
इन संक्षिप्त संस्करण से ही बच्चन की जीवन प्रक्रिया का विस्तार से व्याख्या करता है। इस संक्षिप्त आत्मकथा का वर्णन हिंदी-अग्रेजी के साथ-साथ कई भाषाओं में भी किया गया है। हरिवंश राय बच्चन की ये आत्मकथा की रचना को आज भी लोग पढ़ना पसंद करते हैं। कई सालों से पढ़ने वाली ये आत्मकथओं का वर्णन आज भी लोग करना पसंद करते हैं।
हरिवंश राय बच्चन का जन्म 27 नवम्बर 1907 को इलाहाबाद में हुआ।
हरिवंश राय बच्चन की पहली पत्नी का आक्समिक निधन हो गया था। जिसके गम से वो निकल नहीं पाए तभी उनकी मुलाकात तेजी सूरी से हुई जिसके बाद उनकी शादी हुई।
उनके दो बच्चे हैं एक पुत्र अमिताभ बच्चन जो अभिनेता हैं, और दूसरे अजिताभ बच्चन जो की बिजनेस मैन है।
मधुशाला (1933), मधुबाला (1936) और मधुकलश (1937)  उनकी रचना का विशेष अनुवाद है।
मधुशाला का प्रकाशन 2015 में हुआ।जिसे लोगों ने काफी पसंद किया।

  • जीवन परिचय : रामधारी सिंह 'दिनकर'
रामधारी सिंह 'दिनकर' हिन्दी के प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। 'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद 'राष्ट्रकवि' के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है।जन्मदिनकर' जी का जन्म 24 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गाँव में एक सामान्य किसान 'रवि सिंह' तथा उनकी पत्नी 'मनरूप देवी' के पुत्र के रूप में हुआ था। दिनकर दो वर्ष के थे, जब उनके पिता का देहावसान हो गया। परिणामत: दिनकर और उनके भाई-बहनों का पालन-पोषण उनकी विधवा माता ने किया। दिनकर का बचपन और कैशोर्य देहात में बीता, जहाँ दूर तक फैले खेतों की हरियाली, बांसों के झुरमुट, आमों के बग़ीचे और कांस के विस्तार थे। प्रकृति की इस सुषमा का प्रभाव दिनकर के मन में बस गया, पर शायद इसीलिए वास्तविक जीवन की कठोरताओं का भी अधिक गहरा प्रभाव पड़ा।शिक्षासंस्कृत के एक पंडित के पास अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्रारंभ करते हुए दिनकर जी ने गाँव के 'प्राथमिक विद्यालय' से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की एवं निकटवर्ती बोरो नामक ग्राम में 'राष्ट्रीय मिडिल स्कूल' जो सरकारी शिक्षा व्यवस्था के विरोध में खोला गया था, में प्रवेश प्राप्त किया। यहीं से इनके मनोमस्तिष्क में राष्ट्रीयता की भावना का विकास होने लगा था। हाई स्कूल की शिक्षा इन्होंने 'मोकामाघाट हाई स्कूल' से प्राप्त की। इसी बीच इनका विवाह भी हो चुका था तथा ये एक पुत्र के पिता भी बन चुके थे। 1928 में मैट्रिक के बाद दिनकर ने पटना विश्वविद्यालय से 1932 में इतिहास में बी. ए. ऑनर्स किया। उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था।पदबी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक विद्यालय में अध्यापक हो गये। 1934 से 1947 तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक पदों पर कार्य किया। रेणुका और हुंकार की कुछ रचनाऐं यहाँ-वहाँ प्रकाश में आईं और अंग्रेज़ प्रशासकों को समझते देर न लगी कि वे एक ग़लत आदमी को अपने तंत्र का अंग बना बैठे हैं और दिनकर की फ़ाइल तैयार होने लगी, बात-बात पर क़ैफ़ियत तलब होती और चेतावनियाँ मिला करतीं। 4 वर्ष में 22 बार उनका तबादला किया गया। 1947 में देश स्वाधीन हुआ और वह बिहार विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रध्यापक व विभागाध्यक्ष नियुक्त होकर मुज़फ़्फ़रपुर पहुँचे। 1952 में जब भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ, तो उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया और वह दिल्ली आ गए। दिनकर 12 वर्ष तक संसद-सदस्य रहे, बाद में उन्हें सन 1964 से 1965 ई. तक भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया। लेकिन अगले ही वर्ष भारत सरकार ने उन्हें 1965 से 1971 ई. तक अपना हिन्दी सलाहकार नियुक्त किया और वह फिर दिल्ली लौट आए।कृतियाँउन्होंने सामाजिक और आर्थिक समानता और शोषण के खिलाफ कविताओं की रचना की। एक प्रगतिवादी और मानववादी कवि के रूप में उन्होंने ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को ओजस्वी और प्रखर शब्दों का तानाबाना दिया। उनकी महान रचनाओं में रश्मिरथी और परशुराम की प्रतीक्षा शामिल है। उर्वशी को छोड़कर दिनकर की अधिकतर रचनाएँ वीर रस से ओतप्रोत है। भूषण के बाद उन्हें वीर रस का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है।

ज्ञानपीठ से सम्मानित उनकी रचना उर्वशी की कहानी मानवीय प्रेम, वासना और सम्बन्धों के इर्द-गिर्द घूमती है। उर्वशी स्वर्ग परित्यक्ता एक अप्सरा की कहानी है। वहीं, कुरुक्षेत्र, महाभारत के शान्ति-पर्व का कवितारूप है। यह दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लिखी गयी रचना है। वहीं सामधेनी की रचना कवि के सामाजिक चिन्तन के अनुरुप हुई है। संस्कृति के चार अध्याय में दिनकरजी ने कहा कि सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद भारत एक देश है। क्योंकि सारी विविधताओं के बाद भी, हमारी सोच एक जैसी है।काव्य कृतियाँबारदोली-विजय संदेश (1928), प्रणभंग (1929), रेणुका (1935), हुंकार (1938), रसवन्ती (1939), द्वंद्वगीत (1940), कुरूक्षेत्र (1946), धूप-छाँह (1947), सामधेनी (1947), बापू (1947), इतिहास के आँसू (1951), धूप और धुआँ (1951), मिर्च का मजा (1951), रश्मिरथी (1952), दिल्ली (1954), नीम के पत्ते (1954), नील कुसुम (1955), सूरज का ब्याह (1955), चक्रवाल (1956), कवि-श्री (1957), सीपी और शंख (1957), नये सुभाषित (1957), लोकप्रिय कवि दिनकर (1960), उर्वशी (1961), परशुराम की प्रतीक्षा (1963), आत्मा की आँखें (1964), कोयला और कवित्व (1964), मृत्ति-तिलक (1964), दिनकर की सूक्तियाँ (1964), हारे को हरिनाम (1970), संचियता (1973), दिनकर के गीत (1973), रश्मिलोक (1974), उर्वशी तथा अन्य शृंगारिक कविताएँ (1974) ।गद्य कृतियाँमिट्टी की ओर 1946, चित्तौड़ का साका 1948, अर्धनारीश्वर 1952, रेती के फूल 1954, हमारी सांस्कृतिक एकता 1955, भारत की सांस्कृतिक कहानी 1955, संस्कृति के चार अध्याय 1956, उजली आग 1956, देश-विदेश 1957, राष्ट्र-भाषा और राष्ट्रीय एकता 1955, काव्य की भूमिका 1958, पन्त-प्रसाद और मैथिलीशरण 1958, वेणुवन 1958, धर्म, नैतिकता और विज्ञान 1969, वट-पीपल 1961, लोकदेव नेहरू 1965, शुद्ध कविता की खोज 1966, साहित्य-मुखी 1968, राष्ट्रभाषा आंदोलन और गांधीजी 1968, हे राम! 1968, संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ 1970, भारतीय एकता 1971, मेरी यात्राएँ 1971, दिनकर की डायरी 1973, चेतना की शिला 1973, विवाह की मुसीबतें 1973, आधुनिक बोध 1973 ।सम्मानदिनकरजी को उनकी रचना कुरुक्षेत्र के लिये काशी नागरी प्रचारिणी सभा, उत्तरप्रदेश सरकार और भारत सरकार से सम्मान मिला। संस्कृति के चार अध्याय के लिये उन्हें 1959 में साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें 1959 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया। भागलपुर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलाधिपति और बिहार के राज्यपाल जाकिर हुसैन, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने, ने उन्हें डॉक्ट्रेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया। गुरू महाविद्यालय ने उन्हें विद्या वाचस्पति के लिये चुना। 1968 में राजस्थान विद्यापीठ ने उन्हें साहित्य-चूड़ामणि से सम्मानित किया। वर्ष 1972 में काव्य रचना उर्वशी के लिये उन्हें ज्ञानपीठ से सम्मानित किया गया। 1952 में वे राज्यसभा के लिए चुने गये और लगातार तीन बार राज्यसभा के सदस्य रहे।

30 सितम्बर 1987 को उनकी 13वीं पुण्यतिथि पर तत्कालीन राष्ट्रपति जैल सिंह ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। 1999 में भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया। केंद्रीय सूचना और प्रसारण मन्त्री प्रियरंजन दास मुंशी ने उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर रामधारी सिंह दिनकर- व्यक्तित्व और कृतित्व पुस्तक का विमोचन किया। उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार ने उनकी भव्य प्रतिमा का अनावरण किया। कालीकट विश्वविद्यालय में भी इस अवसर को दो दिवसीय सेमिनार का आयोजन किया गया।विशिष्ट महत्त्वदिनकर जी की प्राय: 50 कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं। हिन्दी काव्य छायावाद का प्रतिलोम है, यह कहना तो शायद उचित नहीं होगा पर इसमें सन्देह नहीं कि हिन्दी काव्य जगत पर छाये छायावादी कुहासे को काटने वाली शक्तियों में दिनकर की प्रवाहमयी, ओजस्विनी कविता के स्थान का विशिष्ट महत्त्व है। दिनकर छायावादोत्तर काल के कवि हैं, अत: छायावाद की उपलब्धियाँ उन्हें विरासत में मिलीं पर उनके काव्योत्कर्ष का काल छायावाद की रंगभरी सन्ध्या का समय था।द्विवेदी युगीन स्पष्टताकविता के भाव छायावाद के उत्तरकाल के निष्प्रभ शोभादीपों से सजे-सजाये कक्ष से ऊब चुके थे, बाहर की मुक्त वायु और प्राकृतिक प्रकाश और चाहतेताप का संस्पर्श थे। वे छायावाद के कल्पनाजन्य निर्विकार मानव के खोखलेपन से परिचित हो चुके थे, उस पार की दुनिया के अलभ्य सौन्दर्य का यथेष्ट स्वप्न दर्शन कर चुके थे, चमचमाते प्रदेश में संवेदना की मरीचिका के पीछे दौड़ते थक चुके थे, उस लाक्षणिक और अस्वाभिक भाषा शैली से उनका जी भर चुका था, जो उन्हें बार-बार अर्थ की गहराइयों की झलक सी दिखाकर छल चुकी थी। उन्हें अपेक्षा थी भाषा में द्विवेदी युगीन स्पष्टता की, पर उसकी शुष्कता की नहीं, व्यक्ति और परिवेश के वास्तविक संस्पर्श की, सहजता और शक्ति की। 'बच्चन' की कविता में उन्हें व्यक्ति का संस्पर्श मिला, दिनकर के काव्य में उन्हें जीवन समाज और परिचित परिवेश का संस्पर्श मिला। दिनकर का समाज व्यक्तियों का समूह था, केवल एक राजनीतिक तथ्य नहीं था।द्विवेदी युग और छायावादआरम्भ में दिनकर ने छायावादी रंग में कुछ कविताएँ लिखीं, पर जैसे-जैसे वे अपने स्वर से स्वयं परिचित होते गये, अपनी काव्यानुभूति पर ही अपनी कविता को आधारित करने का आत्म विश्वास उनमें बढ़ता गया, वैसे ही वैसे उनकी कविता छायावाद के प्रभाव से मुक्ति पाती गयी पर छायावाद से उन्हें जो कुछ विरासत में मिला था, जिसे वे मनोनुकूल पाकर अपना चुके थे, वह तो उनका हो ही गया।

उनकी काव्यधारा जिन दो कुलों के बीच में प्रवाहित हुई, उनमें से एक छायावाद था। भूमि का ढलान दूसरे कुल की ओर था, पर धारा को आगे बढ़ाने में दोनों का अस्तित्व अपेक्षित और अनिवार्य था। दिनकर अपने को द्विवेदी युगीन और छायावादी काव्य पद्धतियों का वारिस मानते थे। उन्हीं के शब्दों में "पन्त के सपने हमारे हाथ में आकर उतने वायवीय नहीं रहे, जितने कि वे छायावाद काल में थे," किन्तु द्विवेदी युगीन अभिव्यक्ति की शुभ्रता हम लोगों के पास आते-जाते कुछ रंगीन अवश्य हो गयी। अभिव्यक्ति की स्वच्छन्दता की नयी विरासत हमें आप से आप प्राप्त हो गयी।आत्म परीक्षणदिनकर ने अपने कृतित्व के विषय में एकाधिक स्थानों पर विचार किया है। सम्भवत: हिन्दी का कोई कवि अपने ही कवि कर्म के विषय में दिनकर से अधिक चिन्तन व आलोचना न करता होगा। वह दिनकर की आत्मरति का नहीं, अपने कवि कर्म के प्रति उनके दायित्व के बोध का प्रमाण है कि वे समय-समय पर इस प्रकार आत्म परीक्षण करते रहे। इसी कारण अधिकतर अपने बारे में जो कहते थे, वह सही होता था। उनकी कविता प्राय: छायावाद की अपेक्षा द्विवेदी युगीन स्पष्टता, प्रसाद गुण के प्रति आस्था और मोह, अतीत के प्रति आदर प्रदर्शन की प्रवृत्ति, अनेक बिन्दुओं पर दिनकर की कविता द्विवेदी युगीन काव्यधारा का आधुनिक ओजस्वी, प्रगतिशील संस्करण जान पड़ती है। उनका स्वर भले ही सर्वदा, सर्वथा 'हुंकार' न बन पाता हो, 'गुंजन' तो कभी भी नहीं बनता।सामाजिक चेतना के चारणहज़ारी प्रसाद द्विवेदी: वे अहिन्दीभाषी जनता में भी बहुत लोकप्रिय थे क्योंकि उनका हिन्दी प्रेम दूसरों की अपनी मातृभाषा के प्रति श्रद्धा और प्रेम का विरोधी नहीं, बल्कि प्रेरक था।

हरिवंशराय बच्चन: दिनकर जी ने श्रमसाध्य जीवन जिया। उनकी साहित्य साधना अपूर्व थी। कुछ समय पहले मुझे एक सज्जन ने कलकत्ता से पत्र लिखा कि दिनकर को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलना कितना उपयुक्त है ? मैंने उन्हें उत्तर में लिखा था कि यदि चार ज्ञानपीठ पुरस्कार उन्हें मिलते, तो उनका सम्मान होता- गद्य, पद्य, भाषणों और हिन्दी प्रचार के लिए।

अज्ञेय: उनकी राष्ट्रीयता चेतना और व्यापकता सांस्कृतिक दृष्टि, उनकी वाणी का ओज और काव्यभाषा के तत्त्वों पर बल, उनका सात्त्विक मूल्यों का आग्रह उन्हें पारम्परिक रीति से जोड़े रखता है।

रामवृक्ष बेनीपुरी: हमारे क्रान्ति-युग का सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व कविता में इस समय दिनकर कर रहा है। क्रान्तिवादी को जिन-जिन हृदय-मंथनों से गुजरना होता है, दिनकर की कविता उनकी सच्ची तस्वीर रखती है।

नामवर सिंह: दिनकर जी सचमुच ही अपने समय के सूर्य की तरह तपे। मैंने स्वयं उस सूर्य का मध्याह्न भी देखा है और अस्ताचल भी। वे सौन्दर्य के उपासक और प्रेम के पुजारी भी थे। उन्होंने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ नामक विशाल ग्रन्थ लिखा है, जिसे पं. जवाहर लाल नेहरू ने उसकी भूमिका लिखकर गौरवन्वित किया था। दिनकर बीसवीं शताब्दी के मध्य की एक तेजस्वी विभूति थे।

  • राजेन्द्र यादव: दिनकरजी की रचनाओं ने मुझे बहुत प्रेरित किया।
  • काशीनाथ सिंह: दिनकरजी राष्ट्रवादी और साम्राज्य-विरोधी कवि थे।

दिनकर का नाम प्रगतिवादी कवियों में लिया जाता था, पर अब शायद साम्यवादी विचारक उन्हें उस विशिष्ट पंक्ति में स्थान देने के लिए तैयार न हों, क्योंकि आज का दिनकर "अरुण विश्व की काली जय हो! लाल सितारों वाली जय हो"? के लेखक से बहुत दूर जान पड़ता है। जो भी हो, साम्यवादी विचारक आज के दिनकर को किसी भी पंक्ति में क्यों न स्थान देना चाहे, इससे इंकार किया ही नहीं जा सकता कि जैसे बच्चन मूलत: एकांत व्यक्तिवादी कवि हैं, वैसे ही दिनकर मूलत: सामाजिक चेतना के चारण हैं।दिनकर की शैलीदिनकर आधुनिक कवियों की प्रथम पंक्ति में बैठने के अधिकारी हैं, इस पर दो राय नहीं हो सकती। उनकी कविता में विचार तत्त्व की कमी नहीं है, यदि अभाव है तो विचार तत्त्व के प्राचुर्य के अनुरूप गहराई का। उनके व्यक्तित्व की छाप उनकी प्रत्येक पंक्ति पर है, पर कहीं-कहीं भावक को व्यक्तित्व की जगह वक्तृत्व ही मिल पाता है। दिनकर की शैली में प्रसादगुण यथेष्ट हैं, प्रवाह है, ओज है, अनुभूति की तीव्रता है, सच्ची संवेदना है। यदि कमी खटकती है तो तरलता की, घुलावट की। पर यह कमी कम ही खटकती है, क्योंकि दिनकर ने प्रगीत कम लिखे हैं। इनकी अधिकांश रचनाओं में काव्य की शैली रचना के विषय और 'मूड' के अनुरूप हैं। उनके चिन्तन में विस्तार अधिक और गहराई कम है, पर उनके विचार उनके अपने ही विचार हैं। उनकी काव्यनुभूति के अविच्छेद्य अंग हैं, यह स्पष्ट है। यह दिनकर की कविता का विशिष्ट गुण है कि जहाँ उसमें अभिव्यक्ति की तीव्रता है, वहीं उसके साथ ही चिन्तन-मनन की प्रवृत्ति भी स्पष्ट दिखती है।जीवन-दर्शनउनका जीवन-दर्शन उनका अपना जीवन-दर्शन है, उनकी अपनी अनुभूति से अनुप्राणित, उनके अपने विवेक से अनुमोदित परिणामत: निरन्तर परिवर्तनशील है। दिनकर प्रगतिवादी, जनवादी, मानववादी आदि रहे हैं और आज भी हैं, पर 'रसवन्ती' की भूमिका में यह कहने में उन्हें संकोच नहीं हुआ कि "प्रगति शब्द में जो नया अर्थ ठूँसा गया है, उसके फलस्वरूप हल और फावड़े कविता का सर्वोच्च विषय सिद्ध किये जा रहे हैं और वातावरण ऐसा बनता जा रहा है कि जीवन की गहराइयों में उतरने वाले कवि सिर उठाकर नहीं चल सकें।"

गांधीवादी और अहिंसा के हामी होते हुए भी 'कुरुक्षेत्र' में वह कहते नहीं हिचके कि कौन केवल आत्मबल से जूझकर, जीत सकता देह का संग्राम है, पाशविकता खड्ग जो लेती उठा, आत्मबल का एक वश चलता नहीं। योगियों की शक्ति से संसार में, हारता लेकिन नहीं समुदाय है।बाल-साहित्यजो कवि सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति सचेत हैं तथा जो अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित हैं, प्रतिबद्ध हैं, वे बाल-साहित्य लिखने के लिए भी अवकाश निकाल लेते हैं। विश्व-कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे अतल-स्पर्शी रहस्यवादी महाकवि ने कितना बाल-साहित्य लिखा है, यह सर्वविदित है। अतः दिनकर जी की लेखनी ने यदि बाल-साहित्य लिखा है तो वह उनके महत्त्व को बढ़ाता ही है। बाल-काव्य विषयक उनकी दो पुस्तिकाएँ प्रकाशित हुई हैं —‘मिर्च का मजा’ और ‘सूरज का ब्याह’। ‘मिर्च का मजा’ में सात कविताएँ और ‘सूरज का ब्याह’ में नौ कविताएँ संकलित हैं। 'मिर्च का मजा' में एक मूर्ख क़ाबुलीवाले का वर्णन है, जो अपने जीवन में पहली बार मिर्च देखता है। मिर्च को वह कोई फल समझ जाता है-
सोचा, क्या अच्छे दाने हैं, खाने से बल होगा,
यह ज़रूर इस मौसम का कोई मीठा फल होगा।

'सूरज का ब्याह' में एक वृद्ध मछली का कथन पर्याप्त तर्क-संगत है।सामाजिक चेतनादिनकर की प्रगतिशीलता साम्यवादी लीग पर चलने की प्रक्रिया का साहित्यिक नाम नहीं है, एक ऐसी सामाजिक चेतना का परिणाम है, जो मूलत: भारतीय है और राष्ट्रीय भावना से परिचालित है। उन्होंने राजनीतिक मान्यताओं को राजनीतिक मान्यताएँ होने के कारण अपने काव्य का विषय नहीं बनाया, न कभी राजनीतिक लक्ष्य सिद्धि को काव्य का उद्देश्य माना, पर उन्होंने नि:संकोच राजनीतिक विषयों को उठाया है और उनका प्रतिपादन किया है, क्योंकि वे काव्यानुभूति की व्यापकता स्वीकार करते हैं। राजनीतिक दायित्वों, मान्यताओं और नीतियों का बोध सहज ही उनकी काव्यानुभूति के भीतर समा जाता है।ओजस्वी-तेजस्वी स्वरूपअलाउद्दीन ख़िलज़ी ने जब चित्तौड़ पर कब्ज़ा कर लिया, तब राणा अजय सिंह अपने भतीजे हम्मीर और बेटों को लेकर अरावली पहाड़ पर कैलवारा के क़िले में रहने लगे। राजा मुंज ने वहीं उनका अपमान किया था, जिसका बदला हम्मीर ने चुकाया। उस समय हम्मीर की उम्र सिर्फ़ ग्यारह साल की थी। आगे चलकर हम्मीर बहुत बड़ा योद्धा निकला और उसके हठ के बारे में यह कहावत चल पड़ी कि 'तिरिया तेल हमीर हठ चढ़ै न दूजी बार।’ इस रचना में दिनकर जी का ओजस्वी-तेजस्वी स्वरूप झलका है। क्योंकि इस कविता की विषय-सामग्री उनकी रुचि के अनुरूप थी। बालक हम्मीर कविता राष्ट्रीय गौरव से परिपूर्ण रचना है। इस कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ पाठक के मन में गूँजती रहती हैं-
धन है तन का मैल, पसीने का जैसे हो पानी,
एक आन को ही जीते हैं इज्जत के अभिमानी।

  • फणीश्वरनाथ रेणु
फणीश्वरनाथ रेणु (अंग्रेज़ी: Phanishwarnath 'Renu', जन्म: 4 मार्च, 1921 - मृत्यु: 11 अप्रैल, 1977) एक सुप्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार थे। हिन्दी कथा साहित्य के महत्त्वपूर्ण रचनाकार फणीश्वरनाथ 'रेणु' का जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के पूर्णिया ज़िला के 'औराही हिंगना' गांव में हुआ था। रेणु के पिता शिलानाथ मंडल संपन्न व्यक्ति थे। भारत के स्वाधीनता संघर्ष में उन्होंने भाग लिया था। रेणु के पिता कांग्रेसी थे। रेणु का बचपन आज़ादी की लड़ाई को देखते समझते बीता। रेणु ने स्वंय लिखा है - पिताजी किसान थे और इलाके के स्वराज-आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ता। खादी पहनते थे, घर में चरखा चलता था। स्वाधीनता संघर्ष की चेतना रेणु में उनके पारिवारिक वातावरण से आयी थी। रेणु भी बचपन और किशोरावस्था में ही देश की आज़ादी की लड़ाई से जुड़ गए थे। 1930-31 ई. में जब रेणु 'अररिया हाईस्कूल' के चौथे दर्जे में पढ़ते थे तभी महात्मा गाँधी की गिरफ्तारी के बाद अररिया में हड़ताल हुई, स्कूल के सारे छात्र भी हड़ताल पर रहे। रेणु ने अपने स्कूल के असिस्टेंट हेडमास्टर को स्कूल में जाने से रोका। रेणु को इसकी सज़ा मिली लेकिन इसके साथ ही वे इलाके के बहादुर सुराजी के रूप में प्रसिद्ध हो गए।[1]

रेणु की प्रारंभिक शिक्षा 'फॉरबिसगंज' तथा 'अररिया' में हुई। रेणु ने प्रारम्भिक शिक्षा के बाद मैट्रिक नेपाल के 'विराटनगर' के 'विराटनगर आदर्श विद्यालय' से कोईराला परिवार में रहकर किया। रेणु ने इन्टरमीडिएट काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 1942 में किया और उसके बाद वह स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। 1950 में रेणु ने 'नेपाली क्रांतिकारी आन्दोलन' में भी भाग लिया।
समाजवाद और बिहार सोशलिस्ट पार्टी
बाद में रेणु पढ़ने के लिए बनारस चले गये। बनारस में रेणु ने 'स्टुडेंट फेडरेशन' के कार्यकर्ता के रूप में भी कार्य किया। आगे चलकर रेणु समाजवाद से प्रभावित हुए। 1938 ई० में सोनपुर, बिहार में 'समर स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स' में रेणु शामिल हुए। इस स्कूल के प्रिंसिपल जयप्रकाश नारायण थे और कमला देवी चट्टोपाध्याय, मीनू मसानी, अच्युत पटवर्धन, नरेन्द्र देव, अशोक मेहता जैसे लोगों ने इस स्कूल में शिक्षण कार्य किया था। इसी स्कूल में भाग लेने के बाद रेणु समाजवाद और 'बिहार सोशलिस्ट पार्टी' से जुड़ गए। समाजवाद के प्रति रुझान पैदा करने वाले लोगों में रेणु रामवृक्ष बेनीपुरी का भी नाम लेते हैं।
राजनीति और आंदोलन
वे सिर्फ़ सृजनात्मक व्यक्तित्व के स्वामी ही नहीं बल्कि एक सजग नागरिक व देशभक्त भी थे। 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' में उन्होंने सक्रिय रूप से योगदान दिया। इस प्रकार एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बनाई। इस चेतना का वे जीवनपर्यंत पालन करते रहे और सत्ता के दमन और शोषण के विरुद्ध आजीवन संघर्षरत रहे। 1950 में बिहार के पड़ोसी देश नेपाल में राजशाही दमन बढने पर वे नेपाल की जनता को राणाशाही के दमन और अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के संकल्प के साथ वहां पहुंचे और वहां की जनता द्वारा जो सशस्त्र क्रांति व राजनीति की जा रही थी, उसमें सक्रिय योगदान दिया। दमन और शोषण के विरुद्ध आजीवन संघर्षरत रहे 'रेणु' ने सक्रिय राजनीति में भी हिस्सेदारी की। 1952-53 के दौरान वे बहुत लम्बे समय तक बीमार रहे। फलस्वरूप वे सक्रिय राजनीति से हट गए। उनका झुकाव साहित्य सृजन की ओर हुआ। 1954 में उनका पहला उपन्यास 'मैला आंचल' प्रकाशित हुआ। मैला आंचल उपन्यास को इतनी ख्याति मिली कि रातों-रात उन्हें शीर्षस्थ हिन्दी लेखकों में गिना जाने लगा।
जीवन के सांध्यकाल में राजनीतिक आन्दोलन से उनका पुनः गहरा जुड़ाव हुआ। 1975 में लागू आपातकाल का जे.पी. के साथ उन्होंने भी कड़ा विरोध किया। सत्ता के दमनचक्र के विरोध स्वरूप उन्होंने पद्मश्री की मानद उपाधि लौटा दी। उनको न सिर्फ़ आपात स्थिति के विरोध में सक्रिय हिस्सेदारी के लिए पुलिस यातना झेलनी पड़ी बल्कि जेल भी जाना पड़ा। 23 मार्च 1977 को जब आपात स्थिति हटी तो उनका संघर्ष सफल हुआ। परन्तु वो इसके बाद अधिक दिनों तक जीवित न रह पाए। रोग से ग्रसित उनका शरीर जर्जर हो चुका था।
लेखन कार्य
फणीश्वरनाथ रेणु ने 1936 के आसपास से कहानी लेखन की शुरुआत की थी। उस समय कुछ कहानियाँ प्रकाशित भी हुई थीं, किंतु वे किशोर रेणु की अपरिपक्व कहानियाँ थी। 1942 के आंदोलन में गिरफ़्तार होने के बाद जब वे 1944 में जेल से मुक्त हुए, तब घर लौटने पर उन्होंने 'बटबाबा' नामक पहली परिपक्व कहानी लिखी। 'बटबाबा' 'साप्ताहिक विश्वमित्र' के 27 अगस्त 1944 के अंक में प्रकाशित हुई। रेणु की दूसरी कहानी 'पहलवान की ढोलक' 11 दिसम्बर 1944 को 'साप्ताहिक विश्वमित्र' में छ्पी। 1972 में रेणु ने अपनी अंतिम कहानी 'भित्तिचित्र की मयूरी' लिखी। उनकी अब तक उपलब्ध कहानियों की संख्या 63 है। 'रेणु' को जितनी प्रसिद्धि उपन्यासों से मिली, उतनी ही प्रसिद्धि उनको उनकी कहानियों से भी मिली। 'ठुमरी', 'अगिनखोर', 'आदिम रात्रि की महक', 'एक श्रावणी दोपहरी की धूप', 'अच्छे आदमी', 'सम्पूर्ण कहानियां', आदि उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं।
फ़िल्म 'तीसरी क़सम'
उनकी कहानी 'मारे गए गुलफ़ाम' पर आधारित फ़िल्म 'तीसरी क़सम' ने भी उन्हें काफ़ी प्रसिद्धि दिलवाई। इस फ़िल्म में राजकपूर और वहीदा रहमान ने मुख्य भूमिका में अभिनय किया था। 'तीसरी क़सम' को बासु भट्टाचार्य ने निर्देशित किया था और इसके निर्माता सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र थे। यह फ़िल्म हिंदी सिनेमा में मील का पत्थर मानी जाती है। कथा-साहित्य के अलावा उन्होंने संस्मरण, रेखाचित्र और रिपोर्ताज आदि विधाओं में भी लिखा। उनके कुछ संस्मरण भी काफ़ी मशहूर हुए। 'ऋणजल धनजल', 'वन-तुलसी की गंध', 'श्रुत अश्रुत पूर्व', 'समय की शिला पर', 'आत्म परिचय' उनके संस्मरण हैं। इसके अतिरिक्त वे 'दिनमान पत्रिका' में रिपोर्ताज भी लिखते थे। 'नेपाली क्रांति कथा' उनके रिपोर्ताज का उत्तम उदाहरण है।

आंचलिक कथा
उन्होंने हिन्दी में आंचलिक कथा की नींव रखी। सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय, एक समकालीन कवि, उनके परम मित्र थे। इनकी कई रचनाओं में कटिहार के रेलवे स्टेशन का उल्लेख मिलता है।

लेखन शैली
इनकी लेखन शैली वर्णनात्मक थी जिसमें पात्र के प्रत्येक मनोवैज्ञानिक सोच का विवरण लुभावने तरीके से किया होता था। पात्रों का चरित्र-निर्माण काफ़ी तेज़ीसे होता था क्योंकि पात्र एक सामान्य-सरल मानव मन (प्रायः) के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता था। इनकी लगभग हर कहानी में पात्रों की सोच घटनाओं से प्रधान होती थी। 'एक आदिम रात्रि की महक' इसका एक सुंदर उदाहरण है। इनकी लेखन-शैली प्रेमचंद से काफ़ी मिलती थी और इन्हें आज़ादी के बाद का प्रेमचंद की संज्ञा भी दी जाती है। अपनी कृतियों में उन्होंने आंचलिक पदों का बहुत प्रयोग किया है।

मैला आंचल
'रेणु' जी का 'मैला आंचल' वस्तु और शिल्प दोनों स्तरों पर सबसे अलग है। इसमें एक नए शिल्प में ग्रामीण-जीवन को चित्रित किया गया है। इसकी विशेषता है कि इसका नायक कोई व्यक्ति (पुरुष या महिला) नहीं वरन् पूरा का पूरा अंचल ही इसका नायक है। मिथिलांचल की पृष्ठभूमि पर रचे इस उपन्यास में उस अंचल की भाषा विशेष का अधिक से अधिक प्रयोग किया गया है। यह प्रयोग इतना सार्थक है कि वह वहां के लोगों की इच्छा-आकांक्षा, रीति-रिवाज़, पर्व-त्यौहार, सोच-विचार, को पूरी प्रामाणिकता के साथ पाठक के सामने उपस्थित करता है। इसकी भूमिका, 9 अगस्त 1954, को लिखते हुए फणीश्वरनाथ 'रेणु' कहते हैं, 'यह है मैला आंचल, एक आंचलिक उपन्यास। इस उपन्यास के केन्द्र में है बिहार का पूर्णिया ज़िला, जो काफ़ी पिछड़ा है।' रेणु कहते हैं,

इसमें फूल भी है, शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन भी, सुंदरता भी है, कुरूपता भी – मैं किसी से दामन बचाकर नहीं निकल पाया।[2]

भाषा द्वारा चित्रण
उन्होंने अंचल विशेष की भाषा का अधिक से अधिक प्रयोग किया ताकि उस जन समुदाय को ज़्यादा से ज़्यादा प्रमाणिकता से चित्रित किया जा सके। 'रेणु' ने अपनी अनेक रचनाओं में आंचलिक परिवेश के सौंदर्य, उसकी सजीवता और मानवीय संवेदनाओं को अद्वितीय ढंग से वर्णित किया है। दृश्यों को चित्रित करने के लिए उन्होंने गीत, लय-ताल, वाद्य, ढोल, खंजड़ी नृत्य, लोकनाटक जैसे उपकरणों का सुंदर प्रयोग किया है। 'रेणु' ने मिथक, लोकविश्वास, अंधविश्वास, किंवदंतियां, लोकगीत- इन सभी को अपनी रचनाओं में स्थान दिया है। उन्होंने 'मैला आंचल' उपन्यास में अपने अंचल का इतना गहरा व व्यापक चित्र खींचा है कि सचमुच यह उपन्यास हिन्दी में आंचलिक औपन्यासिक परंपरा की सर्वश्रेष्ठ कृति बन गया है। उनका साहित्य हिंदी जाति के सौंदर्य बोध को समृद्ध करने के साथ-साथ अमानवीयता, पराधीनता और साम्राज्यवाद का प्रतिवाद भी करता है। व्यक्ति और कृतिकार दोनों ही रूपों में 'रेणु' अप्रतिम थे।[3]

रचनाएँ
रेणु की कुल 26 पुस्तकें हैं। इन पुस्तकों में संकलित रचनाओं के अलावा भी काफ़ी रचनाएँ हैं जो संकलित नहीं हो पायीं, कई अप्रकाशित आधी अधूरी रचनाएँ हैं। असंकलित पत्र पहली बार 'रेणु रचनावली' में शामिल किये गये हैं।
साहित्यिक कृतियां
उपन्यास
मैला आंचल 1954, परती परिकथा 1957, जूलूस 1965, दीर्घतपा 1964 (जो बाद में कलंक मुक्ति (1972) नाम से प्रकाशित हुई), कितने चौराहे 1966, पल्टू बाबू रोड 1979, 
कथा-संग्रह
आदिम रात्रि की महक 1967, ठुमरी 1959, अगिनखोर 1973, अच्छे आदमी 1986, 
संस्मरण
आत्म परिचय, समय की शिला पर
रिपोर्ताज
ऋणजल धनजल 1977, नेपाली क्रांतिकथा 1977, वनतुलसी की गंध 1984, एक श्रावणी दोपहरी की धूप 1984, श्रुत अश्रुत पूर्व 1986, 
प्रसिद्ध कहानियां
मारे गये गुलफाम, एक आदिम रात्रि की महक, लाल पान की बेगम, पंचलाइट, तबे एकला चलो रे, ठेस, संवदिया 
ग्रंथावली : फणीश्वरनाथ रेणु ग्रंथावली
प्रकाशित पुस्तकें 
वनतुलसी की गंध 1984, एक श्रावणी दोपहरी की धूप 1984, श्रुत अश्रुत पूर्व 1986, अच्छे आदमी 1986, एकांकी के दृश्य 1987, रेणु से भेंट 1987, आत्म परिचय 1988, कवि रेणु कहे 1988, उत्तर नेहरू चरितम्‌ 1988, फणीश्वरनाथ रेणु: चुनी हुई रचनाएँ 1990, समय की शिला पर 1991, फणीश्वरनाथ रेणु अर्थात्‌ मृदंगिये का मर्म 1991, प्राणों में घुले हुए रंग 1993, रेणु की श्रेष्ठ कहानियाँ 1992, चिठिया हो तो हर कोई बाँचे (यह पुस्तक प्रकाश्य में है).
सम्मान और पुरस्कार
अपने प्रथम उपन्यास मैला आंचल के लिये उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
निधन
रेणु सरकारी दमन और शोषण के विरुद्ध ग्रामीण जनता के साथ प्रदर्शन करते हुए जेल गये। रेणु ने आपातकाल का विरोध करते हुए अपना 'पद्मश्री' का सम्मान भी लौटा दिया। इसी समय रेणु ने पटना में 'लोकतंत्र रक्षी साहित्य मंच' की स्थापना की। इस समय तक रेणु को 'पैप्टिक अल्सर' की गंभीर बीमारी हो गयी थी। लेकिन इस बीमारी के बाद भी रेणु ने 1977 ई. में नवगठित जनता पार्टी के लिए चुनाव में काफ़ी काम किया। 11 अप्रैल 1977 ई. को रेणु उसी 'पैप्टिक अल्सर' की बीमारी के कारण चल बसे।

हरिशंकर परसाई
हरिशंकर परसाई (अंग्रेज़ी: Harishankar Parsai, जन्म- 22 अगस्त, 1922, होशंगाबाद, मध्य प्रदेश; मृत्यु- 10 अगस्त, 1995, जबलपुर) हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और व्यंग्यकार थे। ये हिंदी के पहले रचनाकार थे, जिन्होंने व्यंग्य को विधा का दर्जा दिलाया और उसे हल्के-फुल्के मनोरंजन की परंपरागत परिधि से उबारकर समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा। उनकी व्यंग्य रचनाएँ हमारे मन में गुदगुदी ही पैदा नहीं करतीं, बल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमने-सामने खड़ा करती हैं, जिनसे किसी भी व्यक्ति का अलग रह पाना लगभग असंभव है। लगातार खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को हरिशंकर परसाई ने बहुत ही निकटता से पकड़ा है। सामाजिक पाखंड और रूढ़िवादी जीवन–मूल्यों की खिल्ली उड़ाते हुए उन्होंने सदैव विवेक और विज्ञान सम्मत दृष्टि को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा-शैली में एक ख़ास प्रकार का अपनापन नज़र आता है।
जीवन परिचय
हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त, 1922 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद ज़िले में 'जमानी' नामक गाँव में हुआ था। गाँव से प्राम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे नागपुर चले आये थे। 'नागपुर विश्वविद्यालय' से उन्होंने एम. ए. हिंदी की परीक्षा पास की। कुछ दिनों तक उन्होंने अध्यापन कार्य भी किया। इसके बाद उन्होंने स्वतंत्र लेखन प्रारंभ कर दिया। उन्होंने जबलपुर से साहित्यिक पत्रिका 'वसुधा' का प्रकाशन भी किया, परन्तु घाटा होने के कारण इसे बंद करना पड़ा। हरिशंकर परसाई जी ने खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को बहुत ही निकटता से पकड़ा है। उनकी भाषा-शैली में ख़ास किस्म का अपनापन है, जिससे पाठक यह महसूस करता है कि लेखक उसके सामने ही बैठा है।

कार्यक्षेत्र
मात्र अठारह वर्ष की उम्र में हरिशंकर परसाई ने 'जंगल विभाग' में नौकरी की। वे खण्डवा में छ: माह तक बतौर अध्यापक भी नियुक्त हुए थे। उन्होंन ए दो वर्ष (1941–1943 में) जबलपुर में 'स्पेस ट्रेनिंग कॉलिज' में शिक्षण कार्य का अध्ययन किया। 1943 से हरिशंकर जी वहीं 'मॉडल हाई स्कूल' में अध्यापक हो गये। किंतु वर्ष 1952 में हरिशंकर परसाई को यह सरकारी नौकरी छोड़ी। उन्होंने वर्ष 1953 से 1957 तक प्राइवेट स्कूलों में नौकरी की। 1957 में उन्होंने नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र लेखन की शुरूआत की।

पूछिये परसाई से
हरिशंकर परसाई जबलपुर-रायपुर से निकलने वाले अख़बार 'देशबंधु' में पाठकों द्वारा पूछे जाने वाले उनके अनेकों प्रश्नों के उत्तर देते थे। अख़बार में इस स्तम्भ का नाम था- "पूछिये परसाई से"। पहले इस स्तम्भ में हल्के इश्किया और फ़िल्मी सवाल पूछे जाते थे। धीरे-धीरे परसाईजी ने लोगों को गम्भीर सामाजिक-राजनीतिक प्रश्नों की ओर भी प्रवृत्त किया। कुछ समय बाद ही इसका दायरा अंतर्राष्ट्रीय हो गया। यह सहज जन शिक्षा थी। लोग उनके सवाल-जवाब पढ़ने के लिये अख़बार का बड़ी बेचैनी से इंतज़ार करते थे।[1]

साहित्यिक परिचय
हरिशंकर परसाई जी की पहली रचना "स्वर्ग से नरक जहाँ तक" है, जो कि मई, 1948 में प्रहरी में प्रकाशित हुई थी, जिसमें उन्होंने धार्मिक पाखंड और अंधविश्वास के ख़िलाफ़ पहली बार जमकर लिखा था। धार्मिक खोखला पाखंड उनके लेखन का पहला प्रिय विषय था। वैसे हरिशंकर परसाई कार्लमार्क्स से अधिक प्रभावित थे। परसाई जी की प्रमुख रचनाओं में "सदाचार का ताबीज" प्रसिद्ध रचनाओं में से एक थी जिसमें रिश्वत लेने देने के मनोविज्ञान को उन्होंने प्रमुखता के साथ उकेरा है।
रचनाएँ
निबंध संग्रह
तब की बात और थी, भूत के पाँव पीछे, बेईमानी की परत, पगडण्डियों का जमाना, शिकायत मुझे भी है, सदाचार का ताबीज, और अंत मे, प्रेमचन्द के फटे जूते, माटी कहे कुम्हार से, काग भगोड़ा, 
कहानी संग्रह
हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे, भोलाराम का जीव, दो नाकवाले लोग
उपन्यास
रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज, ज्वाला और जल
व्यंग्य संग्रह
वैष्णव की फिसलन, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, विकलांग श्रद्धा का दौरा
संस्मरण
तिरछी रेखाएँ
साहित्यिक विशेषताएँ
पाखंड, बेईमानी आदि पर परसाई जी ने अपने व्यंग्यों से गहरी चोट की है। वे बोलचाल की सामान्य भाषा का प्रयोग करते हैं और चुटीला व्यंग्य करने में परसाई जी बेजोड़ हैं।

भाषा शैली
हरिशंकर परसाई की भाषा में व्यंग्य की प्रधानता है। उनकी भाषा सामान्य और संरचना के कारण विशेष क्षमता रखती है। उनके एक-एक शब्द में व्यंग्य के तीखेपन को स्पष्ट देखा जा सकता है। लोकप्रचलित हिंदी के साथ-साथ उर्दू, अंग्रेज़ी शब्दों का भी उन्होंने खुलकर प्रयोग किया है। परसाईजी की अलग-अलग रचनाओं में ही नहीं, किसी एक रचना में भी भाषा, भाव और भंगिमा के प्रसंगानुकूल विभिन्न रूप और अनेक स्तर देखे जा सकते हैं। प्रसंग बदलते ही उनकी भाषा-शैली में जिस सहजता से वांछित परिवर्तन आते-जाते हैं, और उससे एक निश्चित व्यंग्य उद्देश्य की भी पूर्ति होती है, उनकी यह कला, चकित कर देने वाली है। परसाईजी की एक रचना की यह पंक्तियाँ कि- 'आना-जाना तो लगा ही रहता है। आया है, सो जाएगा'- 'राजा रंक फ़कीर' में सूफ़ियाना अंदाज़है, तो वहीं दूसरी ओर ठेठ सड़क–छाप दवाफरोश की यह बाकी अदा भी दर्शनीय है- "निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं। निंदा ख़ून साफ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है। निंदा से मांसपेशियाँपुष्ट होती हैं। निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है।"

संतों का प्रसंग आने पर हरिशंकर परसाई का शब्द वाक्य-संयोजन और शैली, सभी कुछ एकदम बदल जाता है, जैसे- "संतों को परनिंदा की मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं। मो सम कौन कुटिल खल कामी- यह संत की विनय और आत्मस्वीकृति नहीं है, टॉनिक है। संत बड़ा काइंयां होता है। हम समझते हैं, वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है।" एक अन्य रचना में वे "पैसे में बड़ा विटामिन होता है" लिखकर ताकत की जगह 'विटामिन' शब्द से वांछित प्रभाव पैदा कर देते हैं, जैसे बुढ़ापे में बालों की सफेदी के लिए 'सिर पर कासं फूल उठा' या कमज़ोरी के लिए 'टाईफाइड ने सारी बादाम उतार दी।' जब वे लिखते हैं कि 'उनकी बहू आई और बिना कुछ कहे, दही-बड़े डालकर झम्म से लौट गई' तो इस 'झम्म से' लौट जाने से ही झम्म-झम्म पायल बजाती हुई नई-नवेली बहू द्वारा तेज़ीसे थाली में दही-बड़े डालकर लौटने की समूची क्रिया साकार हो जाती है। एक सजीव और गतिशील बिंब मूर्त्त हो जाता है। जब वे लिखते हैं कि- 'मौसी टर्राई' या 'अश्रुपात होने लगा' तो मौसी सचमुच टर्राती हुई सुन पड़ती है और आंसुओं की झड़ी लगी नजर आती है। 'टर्राई' जैसे देशज और 'अश्रुपात' जैसे तत्सम शब्दों के बिना रचना में न तो यह प्रभाव ही उत्पन्न किया जा सकता था और न ही इच्छित व्यंग्य।

सम्मान और पुरस्कार
साहित्य अकादमी पुरस्कार - 'विकलांग श्रद्धा का दौर' के लिए
शिक्षा सम्मान - मध्य प्रदेश शासन द्वारा
डी.लिट् की मानद उपाधि - 'जबलपुर विश्वविद्यालय' द्वारा
शरद जोशी सम्मान
निधन
अपनी हास्य व्यंग्य रचनाओं से सभी के मन को भा लेने वाले हरिशंकर परसाई का निधन 10 अगस्त, 1995 को जबलपुर, मध्य प्रदेश में हुआ। परसाई जी मुख्यतः व्यंग लेखक थे, किंतु उनका व्यंग केवल मनोरंजन के लिए नहीं है। उन्होंने अपने व्यंग के द्वारा बार-बार पाठकों का ध्यान व्यक्ति और समाज की उन कमज़ोरियों और विसंगतियों की ओर आकृष्ट किया था, जो हमारे जीवन को दूभर बना रही हैं। उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं शोषण पर अपनी व्यंग रचनाओं के माध्यम से करारे प्रहार किए हैं। उनका हिन्दी व्यंग साहित्य अनूठा है। परसाईजी अपने लेखन को एक सामाजिक कर्म के रूप में परिभाषित करते थे। उनकी मान्यता थी कि सामाजिक अनुभव के बिना सच्चा और वास्तविक साहित्य लिखा ही नहीं जा सकता। हरिशंकर परसाई ने हिन्दी साहित्य में व्यंग विधा को एक नई पहचान दी और उसे एक अलग रूप प्रदान किया, जिसके लिए हिन्दी साहित्य उनका हमेशा ऋणी रहेगा।

दुष्यंत कुमार 
दुष्यंत कुमार हिंदी कवि एवं गजलकार थे. भारत के महान गजलकारों में उनका नाम सबसे ऊपर आता है. हिंदी गजलकार के रूप में जो लोकप्रियता दुष्यंत कुमार को मिली वो दशकों में शायद ही किसी को मिली हो. वह एक कालजयी कवि थे और ऐसे कवि समय काल मे परिवर्तन होने के बाद भी प्रासंगिक रहते हैं. इनकी कविता एवं गज़ल के स्वर आज तक संसद से सड़क तक गुंजते है. इन्होंने हिंदी साहित्य में काव्य, गीत, गज़ल, कविता, नाटक, उपन्यास, कथा आदि अनेक विधाओं में लेखन किया. लेकिन उन्हें गज़ल में अत्यंत लोकप्रियता प्राप्त हुई.
नाम दुष्यंत कुमार त्यागी
जन्म 1 सितम्बर 1933
आयु 42 वर्ष
जन्म स्थान ग्राम राजपुर नवादा, उत्तरप्रदेश
पिता का नाम चौधरी भगवत सहाय
माता का नाम राजकिशोरी देवी त्यागी
पत्नी का नाम राजेश्वरी कौशिक
पेशा लेखक, कवि
बच्चे ज्ञात नहीं
मृत्यु 30 दिसम्बर 1975
मृत्यु स्थान —-
प्रसिद्धि गज़ल
प्रारंभिक जीवन एवं परिवार 
महान गज़लकार दुष्यंत कुमार का जन्म 1 सितम्बर 1933 को माना जाता है. लेकिन दुष्यन्त साहित्य के मर्मज्ञ विजय बहादुर सिंह के अनुसार इनकी वास्तविक जन्मतिथि 27 सितंबर 1931 है. इनका जन्म उत्तर प्रदेश के बिजनौर जनपद की तहसील नजीबाबाद के ग्राम राजपुर नवादा में हुआ. इनका पूरा नाम दुष्यंत कुमार त्यागी था. उनकी प्रारम्भिक शिक्षा नहटौर, जनपद-बिजनौर में हुई. उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा एन.एस.एम. इन्टर कॉलेज चन्दौसी, मुरादाबाद से उत्तीर्ण की. उच्च शिक्षा के लिए 1954 में उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए.की डिग्री प्राप्त की. अपनी कॉलेज की शिक्षा के समय 1949 में उनका विवाह राजेश्वरी से हुआ. वास्तविक जीवन में दुष्यंत बहुत, सहज, सरल और मनमौजी व्यक्ति थे.
दुष्यंत कुमार का कार्यक्षेत्र
दुष्यंत कुमार ने कक्षा दसवीं से ही कविता लिखना प्रारंभ कर दिया था. प्रारम्भ में वे परदेशी के नाम से लेखन करते थे. 1958 में उन्होंने आकाशवाणी, दिल्ली में पटकथा लेखक के रूप में कार्य किया. 1960 में वे सहायक निर्देशक के पद के रूप में उन्नत होकर आकाशवाणी, भोपाल आ गए. आकाशवाणी के बाद वे मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग के अंतर्गत भाषा विभाग में रहे. इस दौरान आपातकाल के समय उनका कविमन अत्यंत क्षुब्ध और आक्रोशित हो उठा जिसकी अभिव्यक्ति उनके द्वारा कुछ कालजयी ग़ज़लों के रूप में हुई.
दुष्यंत कुमार का काव्य परिचय 
दुष्यंत कुमार ने हिदी साहित्य में अतुलनीय योगदान दिया. उन्होंने बहुत से नाटक, कविताए, उपन्यास, ग़ज़ल और लघु कहानियाँ लिखी. दुष्यंत कुमार ने जिस समय साहित्य की दुनिया में अपने कदम रखे उस समय भोपाल के दो प्रगतिशील शायरों ताज भोपाली तथा क़ैफ़ भोपाली का ग़ज़लों का दुनिया पर राज था. ऐसे समय मे उन्होंने अपनी गज़लों के माध्यम से अत्यंत लोकप्रियता हासिल की. उनकी गज़लो ने हिंदी गज़ल को नए आयाम दिए, उसे हर आम आदमी की संवेदना से जोड़ा. उनकी प्रत्येक गज़ल आम आदमी की गज़ल बन गयी. उनके लेखन में भ्रष्टाचार एक प्रमुख विषय था. दुष्यंत कुमार की कविता उभरती कवियों की पूरी पीढ़ी के लिए एक प्रेरणा बन गई है.
दुष्यंत कुमार की रचनाएं 
कविताएं–
मुक्तक, आज सड़कों पर लिखित हैं, मत कहो, आकाश में, 
धूप के पाँव, गुच्छे भर अमलतास, सूर्य का स्वागत, कहीं पेन्स की चादर, बाढ़ की संभावना, यह नदी की धार में, हो गया है पीर पर्वत-सी, किसी रेल सी गुज़रती है, कहाँ तो तय था, कैसे मनेर, खंडहर बचे हुए हैं, जो शहतीर है, ज़िंदगानी का कोई उद्देश्य नहीं, आवाजों के घेरे, जलते हुए वन का वसन्त, आज सड़कों पर, आग जलती रही, एक आशीर्वाद, आग जालनी चाहिए, मापदण्ड बदलो
उपन्यास–
छोटे-छोटे सवाल, आँगन में एक वृक्ष, दुहरी ज़िंदगी
एकांकी–
मन के कोण
नाटक–
और मसीहा मर गया
गज़ल-संग्रह–
साये में धूप, आदमी की पीर, आग जलनी चाहिए
मृत्यु
दुष्यंत कुमार की मृत्यु 30 दिसम्बर 1975 को मात्र 42 वर्ष की उम्र में हुई. इतनी कम उम्र में उन्होंने अनेक काव्य, गजल, नाटक, कविता, उपन्यास आदि की रचना कर हिंदी साहित्य में अपना अमूल्य योगदान दिया. तथा इनकी गजल एवं कविताओं ने इन्हें साहित्य में अमर कर दिया.



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