#Article: बतकही गांव की : गर्मी की छुट्टी और ननियाउर | #NayaSaveraNetwork
पंकज तिवारी@ नया सवेरा नेटवर्क
छुट्टियां पड़ते ही भोलू अपने मम्मी कमला के साथ ननिहाल चला आया था। साल भर के पढ़ाई के बाद दो महीने के लिए छुट्टी मिल गई थी। खुशी मन भर था। पैदल के साथ ही इक्का और रेलगाड़ी से बारी-बारी सवारी करने का मौका मिला था। भोलू और उसकी मां स्टेशन से उतरते ही हाथ में बड़की डोलची लिए घर की तरफ चल पड़े थे कि सूजल ददा की मिठाई वाली दुकान दिख गई थी। मामा के गांव से ही थे ददा। समोसा, जलेबी जी भर कर खाने के बाद सूजल ददा से किलो भर मिठाई बंधवाने के साथ ही केला भी रख लिया गया था, लाई गट्टी सो अलग।
मटका से निकाल कर खूब पानी पीने के बाद भी प्यास थी कि जाने का नाम ही नहीं ले रही थी। दोनों रास्ते में चलते जा रहे थे और घाम आंखे तरेर घूरता जा रहा था। पसीना तल, तल, तल बहे जा रहा था। बंगारू के इक्के की याद खूब आ रही थी पर इक्का कहीं दिख ही नहीं रहा था। भोलू छांह पाते ही रोते हुए छैइला कर बैठ जाता था पर खूब समझाने के बाद फिर चल पड़ रहा था। दूर घामे में चरते और हांफते गोरू-बछरू को देख कमला के मन में कुछ सुकून सा उभर आता रहा कि आस-पास लोग तो हैं। कोई अमिया तोड़ रहा है तो कोई चिल्होरपाती खेलने में मगन है। सारा कष्ट नैहर के नजदीक पहुंचने मात्र से ही कम होता जा रहा था।
गांव में प्रवेश करते ही बरगद, बाग, बगइचा रास्ते में पड़ने वाली हर एक वस्तु भोलू की मां को पहचान से रहे थे, मां सभी को छू कर अपने पुराने दिनों को याद करते जा रही थी, छांव में सुस्ता भी ले रही थी जबकि भोलू अपने साथ खेलने वाले बच्चों को पहचान रहा था और उसकी निगाहें उन्हीं सभी को ढूंढ रही थी। चौरा माई का दर्शन शुभ माना जाता था। मंदिर पहुंचते ही डोलची नीचे रख कमला दर्शन करने पहुंच गई। गबरुआ दूर से ही दोनों को आते देख लिया था दौड़ कर सूचना घर पर पहुंचा आया। बच्चों की टोली फूआ-फूआ करते पास आ गई। किरनी फूआ की सहायता करने हेतु डोलची लेना चाही पर फूआ झट से डोलची अपने तरफ खींच लीं।
'नाही बिटिया डोलची में बहुत जरूरी समान बाऽ, तूं रहइ दऽ लेइकेऽ, हम लिहेऽ चलब्', नाही, नाही बिटिया'
घर के बाहर मामी लोटा में दहेड़ी लिए खड़ी थीं। फूआ के पहुंचते ही दहेड़ी लड़ाया गया। टाठी में पांव धुला गया, फूआ का खूब आवभगत् हुआ। मन मगन हो उठा। माई के गले लगकर कमला खूब रोई थी। खुशी मिलने का था। मामा के घर पहुंचते ही भोलू एकदम से शुरू हो गया था। ओसारे में रखी लकड़ी की कुर्सी पर बार-बार उछल कूद करता रहा। नाना के कंधे पर बैठ पूरा गांव घूम आया, कहीं-कहीं तोड़-फोड़ भी कर आया और मौका मिलते ही नाना की चुनौटी भी गायब कर दिया, नाना को जब खैनी की आवश्यकता हुई, ढूंढ़ने पर भी नहीं मिली। मम्मी के हाथों पिटने के बाद भोलू चुनौटी लाकर नाना को दिया, कहने लगा मैंने इसे अपने दादू के लिए रख लिया था।
दादा और दादी को खूब मानता था भोलू। दाल, भात, आमे कऽ चटनी दिन में कई-कई बार खा जाता था। बखारी में रखा गुड़ तो भोलू के आने के बाद बहुत ही तेजी से खतम हो रहा था। मामी खूब गुस्साती थी, कभी-कभी तो अकेले पाकर पीट भी देती थी पर रोने के पहले ही लेमन चूस या गुड़ देकर मना लेती थी। आंगन में दरवाजे के पास बैठकर माठा, दही, दूध, नैन, और भी चीजें नानी जबरदस्ती ठूंस-ठूंस कर दोनों को खिलाया करती थी। ननिहाल का ये प्रेम देखकर मामा और नाना दोनों के आंखों से आंसू छलक पड़ते थे जबकि मामी अंदर ही अंदर किल्हिक के रह जाती थीं।
पंकज तिवारी
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)
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