Varanasi News: लोक को बचाने हेतु स्मृतिभ्रंश, बाजारीकरण और उपनिवेशीकरण पर विचार की आवश्यकता है: डॉ. अविनाश
नया सवेरा नेटवर्क
भोजपुरी अध्ययन केन्द्र, बीएचयू द्वारा आयोजित सप्तदिवसीय अंतर-विषयक राष्ट्रीय कार्यशाला के आयोजन का दिनांक 20 नवंबर 2025 को चतुर्थ दिन था। कार्यशाला के चौथे दिन का विषय ‘भोजपुरी लोकगीत, संगीत और चित्रकला’ था। यह आयोजन भोजपुरी अध्ययन केन्द्र के समन्वयक प्रो. प्रभाकर सिंह और प्रो. शांतिस्वरूप सिन्हा के संयोजकत्व में सम्पन्न हो रहा है। इस आयोजन के सचिव डॉ. कुमार अम्बरीष चंचल जी हैं।
प्रो. प्रभाकर सिंह ने बताया कि जब गीत के साथ संगीत और संगीत के साथ कला का संयोजन होता है तब अद्भुत संयोग घटित होता है। उन्होंने सभी अतिथियों का स्वागत और अभिनंदन किया।
आधार वक्तव्य देते हुए डॉ. अविनाश कुमार सिंह ने कहा कि भोजपुरी क्षेत्र अधिक विस्थापन का शिकार रहा है। बंगाल में शुरू में सिंदूर की फैक्ट्री थी और गोरखपुर में टिकुलि की फैक्ट्री थी। यहां से विस्थापित मजदूर खूबसूरत बंगाली स्त्रियों के मोहपाश में बंध जाते थे। भोजपुर की स्त्रियों ने अपने लोकगीतों में बंगालिन नायिकाओं को खूब गालियां दी हैं।
‘मारे गुंडन पर नजरिया, हावड़ा पुलवा पे ठाड़ी।’
‘रेलिया बैरन पिया को लेई जाय रे’
इन सब के बावजूर स्त्रियों पर परिवारिक कर्त्तव्य का बहुत भार रहता है। सबका ख़्याल भी रखना है। उसमें कहीं न कहीं स्त्रियों का अस्तित्व, अस्मिता तिरोहित हो जाती है। भोजपुरी लोकगीतों की ताल प्रलम्ब हैं, लम्बे हैं। जबकि पहाड़ी गीतों में ताल, आरोह और अवरोह बहुत जल्दी जल्दी होता है। हर समाज ने अपने भौगोलिक स्थिति के अनुसार, अपने रहन सहन के अनुसार अपने गीत और संगीत विकसित किए हैं। क्रिस्टोफर काडवेल ने कहा था श्रम से संगीत पैदा होती है। रामविलास शर्मा ने कहा था कि ऋग्वेद की ऋचाएं श्रमगीत हैं। शहर के गीतों के दो रूप में मिलते हैं एक जिसमें दुःख है आए दूसरा जिसमें ननद भौजाई की ठिठोली की। जतसार में कबीर का यह गीत है, ‘चलती चाकी देखके दिया कबीरा रोय, दुई पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।’ कबीर के दोहे में दुई पाट पितृसत्ता की है जो एक पिता के घर का है और एक ससुराल का। कबीर को आधुनिक ढंग से भी पढ़ा जाना चाहिए। मेरा मानना है कि लोक में स्मृतिभ्रंश नहीं है। लोक में चल रहे चीज़ों के दस्तावेजीकरण की जरूरत नहीं। दूसरा उपनिवेशीकरण और बाजारीकरण के खतरे को देखना होगा लेकिन इन दोनों को हम नकार नहीं सकते हैं। स्मृतिभ्रंश, बाजारीकरण और उपनिवेशीकरण पर विचार करने की आवश्यकता है।
‘उत्तम खेती, मध्यम बांध
निर्बाध चाकरी…’ अर्थात् दूसरे की चाकरी नहीं करनी हैं।
राष्ट्रीय कार्यशाला के चतुर्थ दिवस की अध्यक्षता हिन्दी विभाग, बीएचयू की प्रो. श्रद्धा सिंह ने की। उन्होंने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि हमारी मातृभूमि काशी विद्यापीठ और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मेरी कर्मभूमि है। मातृभूमि जड़ है तो कर्मभूमि मेरा विकास। उन्होंने बताया कि दुर्गेश जी ने अपने संगीत के माध्यम से हरेराम द्विवेदी को श्रद्धांजलि अर्पित की। ऋतु मौसमों का एक संगीत रूपक है जो कृषि रूपक ऐसे ग्रामीण जीवन के रूपक को स्पष्ट करता है। हमारे कृषि प्रधान देश की दिनचर्या, ज्यादातर त्यौहार ऋतुओं से जुड़े हुए है। मौसमी बदलाव जीवन को प्रभावित करते हैं। श्रमगीत में श्रम के दौरान होने वाली थकान को मिटाने की एक थेरेपी है।
दृश्य कला संकाय बीएचयू के डॉ. सुनील कुमार पटेल ने भारतीय लोकचित्रों में आधुनिकता का विकास विषय पर अपनी बात रखते प्रागैतिहासिक काल से लेकर
तक की लोककला को सचित्र बताया। मौर्यकाल में दीदारगंज यक्षी की मूर्ति जो 1917 ई. में बनी थी। यह चुनार बलुआ पत्थर का बना है। इन्हें गांव के लोग देवी के रुप में मानते थे। अजंता की गुफा में स्थापित लोककला को बताते हैं। राजस्थानी चित्रशैली बनीठनी भारतीय मोनालिसा हैं। पहाड़ी चित्रशैली में चम्बा की रुमाल चित्रों के पश्चात् कपड़ों में इसकी कढ़ाई होने लगी। यामिनी रॉय द्वारा बनाया गया चित्र मां और बच्चे के चित्र में कैसे आधुनिकता का प्रवेश हुआ है बताया। के एस कुलकर्णी बुलक्स नाम से जिसमें आधुनिक ढंग से बैल का ढांचा तैयार किया गया है। एस एच रज़ा का बिंदु शीर्षक चित्र को प्रस्तुत किया। एक्रेलिक व कैनवास माध्यम में यह चित्र है। माधवी पारेख ने प्राचीनकालीन की देवी के चित्र से प्रभावित हो आशीर्षक नाम से एक चित्र जिसे दर्शक अपने भाव के अनुसार नाम दे सकते हैं।
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स्वतंत्र कलाकार श्री बलदाऊ वर्मा ने अपने वक्तव्य में बताया कि लोकगीत वैयक्तिक नहीं अपितु सामूहिक सृजन का गान है। लोक गीतों में व्यक्त संवेदना विविधवर्णी होती हैं। कुमार गंधर्व ने कहा था राग बनाए नहीं जाते बन जाते हैं। लोक से शास्त्र बनता है शास्त्र से लोक नहीं। पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर ने शास्त्रीय रागों की उत्पत्ति लोक से माना है। समकालीन परिवेश में हमारे लोक वाद्ययंत्र ढोल, मंजीरा इत्यादि दूर होते जाते हैं। लोककला का और लोककलाकार की कोई अकादमिक शिक्षा नहीं होती है। लोककला को महिलाओं द्वारा बनाया जाता है। इसमें प्रकृति, पेड़, पौधे, चिड़ियां, चुनमुन बनाए जाते हैं। लोककला में प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है। पेड़ों के रंग, पत्तों, फूल के रंग, चावल का घोल, आटा इत्यादि का प्रयोग होता है। ऋतुगीत के बारे में भी उन्होंने बताया। चैत्र में चैता गाया जाता है, आषाढ़ के महीने में आल्हा, फागुन में फाग गाया जाता है। चैती उत्तरप्रदेश का पारम्परिक लोकगीत है। मिर्जापुर की कजरी की उत्पत्ति वहां की प्रसिद्ध तवायफ चांदबीबी ने किया था अपने प्रेमी नाहर की याद में उन्होंने हजार की संख्या में कजरी लिखा था।
‘अरे राम मोर मचाए शोर, सवनवा आईल ऐ हरि
अरे राम चंदवा गगनवा हेराईल, सवनवा आईल ऐ हरि।’
भोजपुरी श्रमगीत गायन की प्रस्तुति, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, मनोविज्ञान के डॉ. दुर्गेश उपाध्याय जी ने की। तबले पर श्री हिमांशु सिंह थे। दुर्गेश जी बताते हैं कि लोक की व्याप्ति बहुत विस्तृत है। भोजपुरी अध्ययन केन्द्र एक ऐसा केन्द्र बन चुका है जहां हर कलाकार पहुंचना चाहता होगा। प्रकाश उदय ने बताया था कि श्रम गीतों में केवल श्रम नहीं होता बल्कि उसमें ठिठोली है, प्रेम है, दुःख सुख है लेकिन रिश्तों की मर्यादा का ध्यान रखा जाता है। यंत्रशाला से जतसार बना है। पावस गीत, ऋतुगीत और जतसार का आपसी सम्बन्ध भी है। रोपनी को संस्कार के अंतर्गत भी मानते हैं। खेत में किस तरह प्रवेश करना है, हवा किधर से चल रही है उस हिसाब से रोपनी करनी है। रोपनी में भृंगु गीत है। एक कीड़ा जब ध्वनि करते हुए रेंगता है उसे भी संगीत माना गया उसका नाम भृंगु गीत रखा गया।
रुनझुन खोला ना केवड़िया, रुनझुन खोला ना हो केवड़िया,
हम विदेसवा जइबो ना,
जो मोर पिया तूहु जईबा विदेसवा, हमरे बाबा के बुलाई द, हम नईहरवा जाईब ना।
जतसार…जउना बनो सिकियों न उपजे हो,..बाबा कउना बने हमके बियहुले, सुधियों न लेहलन हो राम।
हठवा क हउहैं हमार बाबा, बज्र क माई हइन हो राम।
एक बने गइली, दूसरे बने अउरे तीसर बने राम
रामा बारहों बरस बीत गइलें त सुधियों ना लेहलन हो राम।
रनिया छूटल मयरिया के गोद, सपन भइले भईया भौजी हो राम।
कार्यशाला का संचालन और समारंभ डॉ. अविनाश कुमार सिंह ने किया। औपचारिक धन्यवाद ज्ञापन डॉ. कुमार अम्बरीष चंचल जी ने किया।
डॉ. जेपी सिंह, डॉ. अम्बरीष कुमार चंचल, डॉ. उदय प्रताप पाल, श्री कृष्ण कुमार तिवारी सहित विद्यार्थियों और शोधार्थियों की उपस्थिति रही।
प्रतिवेदन : कु. रोशनी धीरा, शोध छात्रा, हिन्दी विभाग, बीएचयू
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