Poetry: युगपद

नया सवेरा नेटवर्क

युगपद

 यही कल्पना अन्तर में थी

युगपत ही रह जाउंगा 

सभी दृष्टिपथ सदा रहेंगे 

गीत प्रेम के गाऊंगा ।

बिखर नहीं पायेगा जनपद 

सतत सुगंध समीर बहेगा

नव नव गीत रचेंगे मिलकर 

कभी नहीं इतिहास बनेगा।

 लेकिन पंक्षी  विकल व्यथित है 

 शून्य भस्म लख  अपनी सारी

 बची नहीं है शाख एक भी

उजड़ चुकी है बारी बारी।

गोत गोतिया गमन कर चुके 

जित देखा उत ही अंधियारी

टूट टूट खण्डित बिखरी है 

आसपास की सभी घड़ारी।

 एकहि ठूंठ  खड़ा निर्जन में 

 पंछी  बैठा  जाय मुड़ारी

 स्रवत नयनजल नयन उघारी 

व्यथित हुआ है , मन है भारी।

        

रचनाकार..

मुरलीधर मिश्र , देवरिया

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