Jaunpur News: कागजों में 'बौना' हुआ बचपन, पोषाहार की थैलियों में फूली व्यवस्था!
बरसठी में पोषण योजना में कागज़ी कुपोषण
लापरवाही, लीपापोती और लाजवाब जवाबदेही
चेतन सिंह @ नया सवेरा
बरसठी, जौनपुर। स्थानीय विकासखंड में हाल ही में पोषण योजना से जुड़ा जो मामला सामने आया है, वह न केवल चिंताजनक है, बल्कि यह हमारे सरकारी तंत्र की कार्यप्रणाली पर गहरे सवाल भी खड़ा करता है। खबर है कि बीते दिनों बाल विकास एवं पुष्टाहार विभाग द्वारा एक रिपोर्ट तैयार की गई, जिसमें तीन गांवों - पुरेसवा, भगेरी और गोरापट्टी के कुल 146 बच्चों को 'अति कुपोषित' दिखाया गया। यह आंकड़ा केवल अस्वाभाविक ही नहीं था, बल्कि संदिग्ध भी था, क्योंकि इन गांवों में कुल जांचे गए बच्चों का लगभग 49 प्रतिशत सीधे 'बौना' यानी गंभीर कुपोषण श्रेणी में दर्शाया गया था, जबकि पूरे प्रदेश का औसत महज 37 प्रतिशत है। खबरों के मुताबिक, इस असामान्य आंकड़े के आधार पर शासन ने तुरंत संज्ञान लिया और तीनों गांवों में अलग-अलग नोडल अधिकारियों की तैनाती कर जांच कराई गई।
जांच टीम में सीएचसी अधीक्षक डॉ. अजय सिंह, मेडिकल ऑफिसर डॉ. सर्वेश मिश्रा और हाल ही में सेवानिवृत्त हुए एडीओ पंचायत मुन्नीलाल यादव को भेजा गया। जांच में बच्चों की लंबाई व वजन की दोबारा माप कराई। परिणाम चौंकाने वाला था- सभी बच्चे सामान्य पाए गए। कोई बच्चा न अति कुपोषित था, न औसत से कम। जब खबर फैली तो विभागीय अधिकारी पूरे मामले को मशीन की गड़बड़ी बताकर पल्ला झाड़ने का प्रयास करने लगे। ऐसे में सवाल यह उठता है कि अगर गलती सचमुच तकनीकी थी, तो क्या उसे क्रॉसचेक नहीं किया गया? क्या आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों ने बच्चों की स्थिति देखे बिना केवल मशीन पर आधारित आंकड़े भर शासन को भेज दिए? और अगर आंकड़ों को जानबूझकर बढ़ाया गया, तो क्या यह एक सुनियोजित योजना का हिस्सा था, ताकि कुपोषित दिखाकर अतिरिक्त पोषाहार की आपूर्ति कराई जा सके?
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फिलहाल पूरे प्रकरण से यह स्पष्ट हो गया है कि योजनाओं के क्रियान्वयन में ईमानदारी से अधिक आंकड़ों का प्रबंधन हो रहा है। आंगनबाड़ी केंद्रों पर बच्चों के नाम पर पोषाहार तो आता है, लेकिन वह कहां जाता है, इसकी मॉनिटरिंग कितनी कमजोर है, यह इसी घटना से उजागर हो गया। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि जब तक शासन स्तर से जांच न हुई, तब तक स्थानीय स्तर पर किसी को यह गड़बड़ी नहीं दिखाई दी। इसका सीधा अर्थ है कि या तो सब कुछ जानबूझकर किया गया, या फिर निगरानी तंत्र पूरी तरह निष्क्रिय हो गया है।
बाल पोषण जैसी गंभीर योजना, जिसका सीधा संबंध बच्चों के जीवन, विकास और स्वास्थ्य से है, उसमें ऐसी लापरवाही छम्य योग्य नहीं है, बल्कि इसे सामाजिक विश्वासघात की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। जब योजना के लाभार्थी मासूम बच्चे हों, तब ऐसी रिपोर्टिंग और तथ्यों से खिलवाड़ को 'गलती' कहना स्वयं में एक मज़ाक प्रतीत होता है। यह जरूरी है कि शासन न केवल जांच रिपोर्ट के आधार पर दोषियों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई करे, बल्कि यह सुनिश्चित किया जाए कि प्रत्येक आंगनबाड़ी केंद्र की पोषण स्थिति की थर्ड पार्टी ऑडिट समय-समय पर हो। साथ ही, केवल मशीनों पर भरोसा न करते हुए मैनुअल सत्यापन प्रक्रिया को अनिवार्य किया जाए। हमारी टीम द्वारा जब इस प्रकरण को लेकर क्षेत्र के कुछ प्रबुद्धजनों से बातचीत की गई तो सभी ने एक स्वर में कहा कि योजनाएं तभी सफल होंगी जब उन्हें जिम्मेदारी व जवाबदेही के साथ लागू किया जाए।
केवल योजनाएं बनाना या बजट जारी कर देना पर्याप्त नहीं, बल्कि यह देखना ज़रूरी है कि लाभ वास्तव में ज़रूरतमंदों तक पहुंच भी रहा है या नहीं? लोगों ने साफ कहा कि पोषण योजना का उद्देश्य कुपोषण को दूर करना है, न कि कुपोषित आंकड़े गढ़कर पोषाहार को कहीं और भेजना। जब तक जवाबदेही तय नहीं होती, तब तक ये योजनाएं केवल फाइलों में सफल और ज़मीन पर विफल बनी रहेगी और बच्चों का बचपन इसी तरह आंकड़ों की मशीन में 'बौना' होता रहेगा।