Article: मजबूर बाप

नया सवेरा नेटवर्क

एक छोटे से गांव सहिजदपुर में बड़े खानदान में चिन्मय का जन्म हुआ।बचपन से ही चिन्मय पढ़ने में खेल कूद व साहित्यिक व सांस्कृतिक आयोजनों में बढ़ चढ़ कर शामिल होना चाहता था।मगर घर वाले हर जगह पर उसके लिए बेंड़ा यानी रुकावट बने रहते थे। आर्थिक स्थिति ढंग से पढ़ने नहीं दी।किसी तरह गिरते पड़ते संकटों से जूझते चिन्मय १२वीं पास कर घर की स्थिति सुधारने के लिए सुन्दर महल बनाने का सपना लिए मुम्बई आ गया। मुम्बई आकर अपने पिता के बताए हुए रास्ते पर चलता रहा।आटो रिक्शा का का बैज बनवाया उसके पिता जी ने। पिताजी भी उसके वाहन चालक थे सो उन्होंने अपनी स्थिति के अनुसार चिन्मय को भी वाहन चालक की शिक्षा दिलवाई।बाद में बेल्डिंग करने का डिप्लोमा भी करवाया।मगर चिन्मय वाहन चालक बनकर ही घर की स्थिति को सुदृढ़ करने में लग गया।और अपनी मेहनत से किया भी।अपने माता पिता के सम्मान को भी सम्मानजनक स्थिति में पहुॅंचाया।और खुद को भी एक आदर्श पुत्र आदर्श पति आदर्श भाई और कुछ हद तक पिता बनकर स्थापित किया।सभी परिवारीजन को कोई कष्ट न हो इसलिए अपने भूखा रह लिया।अपने सारे अरमानों को कुचल दिया।

और अपने परिवार के लिए खपता रहा।मेहनत करता रहा।एक दिन ऐसा आया कि पहले उसके भाइयों ने उसके कार्यों को अनदेखा कर अपनी दुनियां अलग बनाई।उसे यह कहकर छोड़ दिया कि आपने किया ही क्या है।इसके बाद उसके पुत्रों ने धकियाना शुरू किया।उसकी मेहनत पर सबने पानी फेरा। फिर भी वह टूटा नहीं।जो पहले दौड़ रहा था आज घिसड़ रहा है।फिर भी चल रहा है। पुत्रों ने तो उसे एकदम से ही दरकिनार कर दिया है।साथ में तो रहता है।मगर रिस्तेदार के जैसा।किसी भी कार्य के लिए बच्चे उससे कोई विचार विमर्श नहीं करते।बस फरमान जारी करते हैं।

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आज तक उसे यह भी नहीं पता कि उसके बच्चे करते क्या हैं।वह मजबूर लाचार बस देखता जा रहा है।और सोचता जा रहा है कि क्या अच्छी शिक्षा का मतलब यह है कि माॅं बाप घर में नौकर बन कर रहें।क्या अच्छी शिक्षा का यह मतलब है कि बच्चे संस्कारहीन हो जायें।इसी उधेड़बुन में वह जिये जा रहा है।उसका जीवन यदि देखा जाय तो बचपन से लेकर अबतक छप्पन की उम्र तक जलालत और संघर्ष पूर्ण है।बचपन में अपने चाचा ताऊ पिता की डांट फटकार और पिटाई से त्रस्त अपनी सारी तमन्नाओं को उसे तिलांजलि देनी पड़ी।जवानी में घर की जिम्मेदारियों के चलते अपने सभी अरमानों का गला घोंटता रहा।अब पुत्रों के आगे अपने मान सम्मान की बलि चढ़ते वह मजबूर बाप बना देख रहा है।और मन मसोस कर जी रहा है।वह अपना दुखड़ा कहे तो किससे कहे।कोई उसकी मजबूरी को समझने के लिए तैयार नहीं।वह अपनी ही  बनाई हुई सपनों के महल में घुट घुट कर जीने को लाचार हैं।

 क्योंकि शूगर बीपी से ग्रसित उसका हाॅंथ पाॅंव भी दुख रहा है। लेकिन बच्चे यह भी नहीं सोचते कि बाप मेरा किस हालत में जी रहा है।बच्चे अपने में मस्त हैं। चिन्मय के जान पहचान में यदि कोई आयोजन आयोजित होता है तो,वह कोई न कोई बहाना करके नहीं जाता है।जायें भी कैसे,जेब जो खाली है। लेकिन बच्चे एकबार भी नहीं पूॅंछते कि आप बेरोजगार हैं।आप बाहर निकलते हैं।तो ईस्ट मित्रों के मिलने पर क्या करते हैं।चाय पिलाने का पैसा जेब में रहता है कि नहीं।हम तो कार से घूमते हैं।आप कहीं जाते हो तो कैसे जाते हो। कहीं आप अपमानित तो नहीं होते।इन सब की परवाह बच्चे बिल्कुल नहीं करते।अब तो आलम यह है कि चिन्मय सोचता है कि इस जलालत भरी जिंदगी से तो बेहतर है मौत आ जाती और इस जलालत भरी मजबूर ज़िन्दगी से निजात मिल जाती।

पं.जमदग्निपुरी


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