Poetry: जाने क्यों.......? | Naya Sabera Network
नया सवेरा नेटवर्क
जाने क्यों.......?
बाकी है मेरे अन्दर का जो बचपना,
संग उसके अनायास ही...
हँस लेने का हौसला....
जाने क्यों....चाहते हैं लोग....!
कि मैं अपना यह बचपना छोड़ दूँ....
नित-नए घरौंदे बनाने की...और...
रंग औ रंगोली से उसको सजाने की..
रही हमेशा जो परिकल्पना मेरी,
जाने क्यों...चाहते हैं लोग....!
कि मैं यह सिलसिला छोड़ दूँ...
ना किसी से कोई शिकवा,
ना किसी से कोई गिला....
निश्छल-निडर रहकर,
निरपेक्ष होकर बोलने का हुनर...
जो ढाता रहा पाखंडियों पर कहर...
जाने क्यों...चाहते हैं लोग. ..!
कि मैं बोलना यह ज़हर छोड़ दूँ...
महफिल में मगन होकर,
महफिल की करते हुए कदर....
महफिल लूट लेने का हुनर....
सीखा था जिसे मैंने....!
लाखों-करोड़ों जतन कर....
जाने क्यों....चाहते हैं लोग....!
कि मैं अपना यह हुनर छोड़ दूँ.....
परख कर हर किसी को,
हँसाने-रुलाने का हुनर...जो...
सहज गतिमान है आज भी मुझमें..
जाने क्यों...चाहते हैं लोग...!
कि परखने का यह शगल छोड़ दूँ....
बीता पूरा जीवन जिन पगडंडियों पर
दोष मढ़ते हुए....प्यारे उन्ही का....
जाने क्यों....चाहते हैं लोग ...!
कि अब मैं ये डगर छोड़ दूँ....
दुनिया...मतलबी है या चालाक...
मालूम अब तक चला ही नहीं मुझको
ज़िरह भी इस पर कम ही किया..पर.
जाने क्यों....चाहते हैं लोग....!
कि इस पर करना मैं ज़िरह छोड़ दूँ...
पहुँचने के क़ाबिल हूँ जहाँ तलक मैं,
जानता भी नहीँ यहाँ हर कोई....
जाने क्यों.... चाहते है लोग....!
बीच ही में अपना सफ़र छोड़ दूँ....
दर्द आज तक....मैंने.....
किसी को दिया ही नहीं....
जाने क्यों....चाहते है लोग.....!
की मैं उनका शहर छोड दूँ...
रचनाकार...
जितेन्द्र कुमार दुबे
अपर पुलिस उपायुक्त, लखनऊ
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