UP News : वर्तमान समय में ख्यालगोई विधा हुई बीते दौर की बात | Naya Savera Network



निर्भय सक्सेना @ नया सवेरा 

बरेली। ख्यालगोई कार्यक्रम बीते दौर की बात हो चुकी है अब न तो ख्यालगो ही बचे हैं और कार्यक्रम भी अब मोबाइल युग में केवल यादगार बनकर ही रह गए। बरेली में ख्यालगो के कार्यक्रम आयोजन से लेकर तुर्रा पक्ष में अपनी आवाज बुलंद करने वाले बिहारीपुर के अनिल कपूर उर्फ मुल्लू खलीफा बताते हैं कि बरेली की  खत्री धर्मशाला, बिहारीपुर में वर्षो तक ख्यालगोई के कार्यक्रम उन्होंने आयोजित कराए। बरेली के साहूकारा, गुलाबनगर कालीबाड़ी, बिहारीपुर में काफी ख्यालगोई के आयोजन होते थे जिसमें प्रदेश भर से ख्यालगो आते थे।बिहारीपुर खत्रीयान धर्मशाला में ख्यालगोई कार्यक्रम कराने वाले अनिल कपूर उर्फ मुल्लू खलीफा ने बताया कि वह बाबूराम वर्मा के शागिर्द रहे। उन्होंने ही उन्हें खलीफा की पगड़ी पहनाई थी। वर्ष 2000 से पूर्व तक बरेली में बिहारीपुर, कालीबाड़ी, साहूकारा, गुलाबनगर आदि में ख्यालगोई के कार्यक्रम होते थे। जिसमें बरेली में बाहर से दिनेश शर्मा, दुर्गा प्रसाद, ओम प्रकाश, चुन्नू चमचम आदि भी आते थे। बरेली में बाबू राम, शिव नंदन प्रसाद, शंकर लाल कातिब, गंगा प्रसाद आदि तुर्रा पक्ष में पढ़ने जाते थे। भी में कलगी पक्ष से राम चरन लाल काफी मशहूर थे। अनिल कपूर उर्फ मुल्लू ने बताया कि उनको बाबू राम ने ही खलीफा की पगड़ी पहनाई थी। मल्लू  खलीफा ने बताया कि उनके परिवार में मदारी गेट निवासी स्वर्गीय नत्था सिंह ख्यालगोई में माहिर थे। वर्ष 1926 में उन्होंने भी ख्यालगोई के कार्यक्रम शुरू कराए थे।  उनके ही गुण से प्रभावित होकर वह ख्यालगोई में आये और प्रदेश भर में नाम कमाया। पिता रूप नारायण कपूर, माता सरला कपूर के यहां उनका जन्म  लेकिन 25 मई 1959 को हुआ। बरेली के तिलक एवं आजाद इंटर कॉलेज में उनकी पढ़ाई हुई। वह हिंदू  जागरण मंच से भी निरंतर जुड़े रहे। और कोषाध्यक्ष रहे। बीजेपी में भी महानगर अध्यक्ष अधीर सक्सेना की टीम में कार्य कर रहे है ।


 मल्लू  खलीफा के अनुसार उनके परिवार में केवल भी ख्यालगो बने उनकी बुआ राम भरोसे लाल स्कूल में संगीत में अध्यापक हैं। मल्लू खलीफा के अनुसार उनके अलावा मोहम्मद खलीफा, शंकर लाल कातिब आदि के अलावा बाहर के दिनेश शर्मा, दुर्गा प्रसाद, ओम प्रकाश, चुन्नू चमचम आदि भी ख्यालगोई के लिए आते थे। उनके अनुसार व्यापार को आए अरब के किसी शेख व्यापारी ने भारत के गांव में दो पक्षों को गायकी करते देखा। उनके गायन से प्रभावित होकर उन्होंने एक पक्ष को तुर्रा दूसरे पक्ष को अपनी कलगी देकर उस का नामकरण कराया जो ख्यालगोई कार्यक्रम में खूब चला। ख्यालगोई के कार्यक्रम वर्ष 2000 के आसपास से ही बरेली में तो होने बंद हो गए हैं । पर यह विधा अपने दौर में खूब पहली फूली। शायर एवं कई किताब लिखने वाले साहूकारा निवासी रणधीर प्रसाद गौड़ का कहना हे कि प्राचीन काल में सूफी- संतों द्वारा ख़याल गोई की विधा को प्रारंभ किया गया था जिसमें आम जनता की रूचि उत्पन्न हुई और यह विद्या बरेली में भी खूब पनपी। 


 इस ख्यालगोई विद्या में दो दल कलगी और तुर्रा होते हैं। कलगी दल वाले शक्ति के उपासद और तुर्रा दल वाले ब्रह्म के उपासक माने जाते हैं। वाद्य के रूप में चंग और चमेली का प्रयोग किया जाता है। बरेली महानगर में ख्यालगोई की यह विधा प्राचीन काल में पूरे यौवन पर थी। कलगी दल में लाला राजा राम, भज्जू बाबा मोती पुरी, पं. देवी प्रसाद गौड़ ‘मस्त’ पं. श्याम लाल शर्मा ‘श्याम’, राम चरन ख्याल गो, त्रिवेणी सहाय  ‘सेहर’ लोचन, चुन्नी लाल, ज़मीर साहब, रूप किशोर आदि थे इसी प्रकार तुर्रा दल में सर्व श्री दया नारायन टंडन, कन्हैया लाल, पन्ना लाल, राम कुमार राधेरमन, शिवनन्दन, बाबूराम, विशन सिंह छैला, हरीओम आदि थे। बरेली में ख्याल गोई के आयोजन के लिए इलायची बांटने का प्रचलन था वर्ष में एक दो आयोजन अखिल भारतीय स्तर के होते थे जो पूरी रात चलते थे। श्रोता गण पूरी रात इसका आनंद लेते थे और आयोजक कीमती तोहफों और धन देकर गायकों को कई-कई दिन सुनते थे। रणधीर प्रसाद गौड के अनुसार बरेली में भी प्राचीन काल में साधना, आराधना के साथ-साथ मनोरंजन हेतु भगवान प्रभुराम और कृष्ण की लीलाओं का आयोजन होता था जो एक-एक माह तक खेली जाती थीं। क्योंकि उस दौर में धार्मिक आयोजनों के अतिरिक्त मनोरंजन के साधन कम थे अतः अनेक प्राचीन कहानियों पर आधारित स्वाँग रचे जाते थे। दूर-दूर की स्वाँग मंडली नाटक खेलती थी। बरेली महानगर में नाटकों की भी परम्परा रही है। नाटक के क्षेत्र में सर्व श्री राधेश्याम कथावाचक, हृदय चरण जौहरी, किशन लाल साकिब, राम लक्ष्मण, जे. सी. पालीवाल, आई. सी. मधुप, डी. सी. अत्रे, राजेन्द्र मोहन शुक्ल आदि का योगदान भुलाया नहीं जा सकता। नई पीढ़ी में भी अनेक संस्थाएं नाटक के क्षेत्र में बरेली के गौरव को बनाये हुए हैं। 
महानगर में ब्रह्मपुरी की राम लीला और रानी साहिबा की राम लीला लगभग 450  वर्ष से खेली जा रही है। साहित्य के क्षेत्र में भी अनेक संस्थायें सक्रिय रही हैं। जिसमें भारती संगम, कवि गोष्ठी आयोजन समिति, राष्ट्रीय हिंदी साहित्य सम्मेलन, साहित्य सुरभि, काव्य 
गंधा आदि संस्थाओं के द्वारा निरन्तर काव्य धारा प्रवाहित की जा रही है। बरेली में अनेकानेक साहित्यकारों ने साहित्य को रच कर नाम रोशन किया है। जिसमें हिंदी में किशन सरोज, ब्रज राज पाण्डेय, रामेश्वर प्रसाद पाण्डेय, देवी प्रसाद गौड़ ‘मस्त’ डा. महाश्वेता चतुर्वेदी, डा. मृदुला शर्मा एवं उर्दू साहित्य में अनवर चुगताई, शदां अफ़णानी, हिलाल साहब, रईस बरेलवी, सरशार बरेलवी, ताहिर सईद आदि फ़नकारों ने अपनी कलम से साहित्य को नये-नये आयाम दिये। पं. देवी प्रसाद गौड़ मस्त ने नातिया शायरी में हम्द, नात, मनक़वत की चार किताबों को शाया कराकर इस्लाम को भी नये आयाम बख़्शे। वर्तमान में जनाब वसीम बरेलवी अपनी शायरी से दुनिया में बरेली का नाम रोशन कर रहे हैं।  स्मार्ट फोन आदि के बाद पुरानी विधायें लुप्त होने की कगार पर हैं।


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