आस्था के नाम पर खून: कौन देगा जवाब? | #NayaSaveraNetwork



आनन्ददेव यादव

27 अगस्त, चरखी दादरी, हरियाणा। एक बेबस इंसान, साबिर खान, एक कबाड़ कारोबारी को पीट-पीटकर मार दिया गया। आरोप था कि उसने गोमांस खाया था। यह सिर्फ आरोप था, बिना किसी सबूत के और साबिर की जान ले ली गई। पुलिस ने मौका-ए-वारदात से जो मांस बरामद किया, उसकी लैब जांच में पता चला कि वह मांस भैंस का था। साबिर के परिवार के लिए यह एक निर्मम न्याय है जो साबित करता है कि समाज में नफरत और असहिष्णुता का घड़ा किस हद तक भर चुका है।
आज भारत में ‘मॉब लिंचिंग’ का जिक्र सुनाई देता है। यह शब्द अचानक नहीं उभरा; यह उन घटनाओं का परिणाम है जिनमें पहलू खान, नासिर, जुनैद और जाने कितने मासूम लोग शामिल हैं जो भीड़ के हाथों मारे गए। पिछले कुछ सालों से इस क्रूरता ने एक स्याह छवि छोड़ दी है जिसमें धार्मिक आस्था का सहारा लेकर एक विशेष समुदाय को निशाना बनाया गया। चरखी दादरी की घटना भी इसी अंधविश्वास का हिस्सा थी जो साबित करती है कि समाज में नफरत का जो जहर घुलाया गया है, वह कितने लोगों की जान ले चुका है।
इस पूरे मामले पर एक नज़र डालें तो हमें मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी का बयान याद आता है: "गाय के प्रति लोगों की आस्था है और जब किसी की आस्था आहत होती है तो उसे कौन रोक सकता है।" यह बयान इस तथ्य की और भी गहराई में जाता है कि हमारी राजनीति और हमारे नेता संवैधानिक जिम्मेदारियों को किस तरह नजरअंदाज कर रहे हैं। मुख्यमंत्री का यह बयान स्पष्ट रूप से संविधान के उस मूल को ठुकराता है जिसके तहत उन्होंने शपथ ली थी।
हमारे संविधान में कहीं भी यह नहीं लिखा गया है कि आस्था के नाम पर हत्या की छूट मिल सकती है। संविधान कहता है कि सभी नागरिकों को समानता और न्याय का अधिकार है लेकिन जब किसी की जान बिना किसी ठोस सबूत के ले ली जाती है, तब क्या आस्था और न्याय के बीच की सीमा धुंधली हो जाती है? क्या इस तरह के बयानों से भीड़ को नफरत में झोंक दिया जाता है और समाज को हिंसा के प्रति अधिक उकसाया जाता है?
इस घटना में पुलिस ने 10 लोगों को गिरफ्तार किया है जिन्हें अब हत्या के जुर्म में जेल भेज दिया गया है लेकिन सवाल उठता है कि आस्था के नाम पर जान लेने वाले ये लोग क्या खुद कभी यह सोचते हैं कि वे हत्या करने जा रहे हैं? क्या कभी यह समाज सोचता है कि हर आरोपी दोषी नहीं होता और सत्य की परख का अधिकार केवल अदालत को है?
मीडिया की भूमिका इस घटना में भी सवालों के घेरे में है। जब कोई निर्दोष मारा जाता है तो मीडिया इस पर चुप क्यों हो जाती है? क्यों ऐसे मामले में सच्चाई सामने आने पर मीडिया की आवाज दब जाती है? क्या उनकी जिम्मेदारी सिर्फ एक वर्ग को उकसाने और उसे दोषी साबित करने तक सीमित है या फिर उन्हें संविधान की मूल भावना का समर्थन करना चाहिए?
इस लेख के माध्यम से हम समाज और नागरिकों से अपील करते हैं कि इस तरह की अफवाहों में विश्वास न करें। सत्य की परख कानून से होनी चाहिए, न कि किसी हिंसक भीड़ से। संविधान हमें एक समान और न्यायपूर्ण समाज का सपना दिखाता है। हमें चाहिए कि इस सपने को जिंदा रखें, नफरत और असहिष्णुता से दूर रहे।


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