#Article: काम पर तनाव कर रहा काम-तमाम | #NayaSaveraNetwork
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लेखक : अतुल प्रकाश जायसवाल |
मनुष्य की सबसे बड़ी पहचान उसका काम है। आपका काम ना केवल आपका नाम बनाता है, बल्कि अपनी दैनिक जरूरतों के लिए संसाधन भी उपलब्ध कराता है
काम के बिना संसार की कल्पना नहीं की जा सकती ।
विकास के क्रम में कामों का दायरा बहुत विकसित हो गया है। बढ़ती आबादी की बढ़ती जरूरतों के मद्देनजर काम की कठिनाइयों में भी बढ़ोतरी हुई है। सभ्यता की शुरुआत में काम केवल भूख मिटाने के लिए किया जाता था। वैज्ञानिक तकनीकी विकास और उद्योगों के जन्म के साथ ही काम के प्रकार; समय और दायरे का फैलाव होने लगा। अब काम और जीवन में अंतर नहीं किया जा सकता है। हमारा पहनावा / रहन सहन / खानपान / मनोरंजन / सामाजिकता सभी कुछ हमारे काम पर निर्भर है।
अब वह काम जो आपकी दैनिक जरूरतों के लिए संसाधन उपलब्ध कराता है- आपको पसंद हो सकता है / नहीं भी हो सकता है। पहले काम की एक जगह होती थी - फिर आपका घर / परिवार / समाज / मनोरंजन के स्थान होते थे। अब के समय में काम की जगह निर्धारित भी हो सकती है - हर जगह काम की ही हो सकती है।
पहले से ही काम की बदलती प्रकृति के कारण हमारे स्वास्थ्य / पर्यावरण / सामाजिक बनावटों में सकारात्मक व नकारात्मक बदलाव हुए।
एक तरफ हमें बेहतर खान-पान / सुविधा जनक रहवास / यात्रा में सुगमता / उच्चतर चिकित्सा विज्ञान / कार्यशील आबादी / संचार की सुगमता / मनोरंजन की प्रचूरता जैसे सकारात्मक परिणाम मिले तो, दूसरी तरफ पर्यावरणीय प्रदूषण / प्राकृतिक आपदाएं / प्राणघातक बीमारियां / जनसंख्या विस्फोट / सूचनाओं की बमबारी / मनोरंजन के नाम पर उच्छृंखलता की बढ़ोतरी जैसे नकारात्मक परिणाम भी सामने आए।
हमारे कामों की बदलती प्रकृति के नकारात्मक प्रभावों में वृद्धि का असर उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से दिखने लगा। असमान आर्थिक स्थिति / रसायनों से वायु-जल का प्रदूषण / काम की प्राथमिक इकाई के रूप में मजदूरों का शोषण / कैंसर जैसी बीमारियों का प्रकोप स्पष्ट रूप में दिखने लगा।
सामाजिक / पारिवारिक बनावट में बिखराव; मानव-जाति का भारी सैन्यीकरण / जानलेवा हथियारों की भरमार ; साम्राज्यवादी बुराई इत्यादि सम्मिलित कारणों ने एक के बाद एक महामारी, आर्थिक विपत्ति, युद्धों और सामूहिक तनावों को जन्म दिया।
बीसवीं सदी के चौथे दशक के उत्तरार्ध से मानवों में सजगता आई। समावेशी व धारणीय विकास को बढ़ावा देना ; वैश्विक संगठनों का निर्माण करना ; औपनिवेशिक / साम्राज्यवादी ताकतों का खात्मा ; पर्यावरण संरक्षण हेतु प्रयासों की शुरुआत ; मानव अधिकारों - जीव अधिकारों की पैरोकारी की शुरुआत हुई।
कामों की प्रकृति में एक बार फिर बदलाव हुआ। इस बार काम के दौरान सुरक्षा; वाजिब मेहनताना; जरूरी छुट्टिया; व्यापक लोकहित को प्रोत्साहन दिया जाने लगा। किंतु शताब्दियों से खुदी खाई को पाटना लगभग असंभव है। एक तरफ विकसित देश जो अपने यहां मानव अधिकारों / पर्यावरणीय सुरक्षा कि पैरोकारी करते हैं तो दूसरी तरफ कम विकसित और विकासशील देश अपनी आबादी के लिए पर्याप्त खाना / रहवास और तकनीकी विकास हेतु संघर्षरत हैं। वैश्विक स्तर पर कुछ सामूहिक प्रयास हुए जो अपर्याप्त साबित हुए।
बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में दुनिया ने तीसरी औद्योगिक क्रांति को देखा। कंप्यूटर और इंटरनेट की दुनिया का जन्म हुआ। इस क्रांति ने एकदम से सारे किए धरे पर पानी फेर दिया। एक बार फिर नव-साम्राज्यवादी ताकतों का उदय हुआ। ताकतवर / तकनीकी संपन्न देशों ने कम विकसित देशों को अपना आर्थिक / सांस्कृतिक उपनिवेश बनाया।
कामों ने अपना रुख पुनः बदला और आर्थिक असमानता की एक नई खाई खुद गई।
बढ़ती हुई कार्यशील आबादी के लिए कामों की कमी होने लगी। तकनीकी विकास ने एक वर्ग को काम में अग्रणी बनाया तो दूसरे वर्ग को बेरोजगार।
इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में तीसरी औद्योगिक क्रांति के फलस्वरुप नई पूंजी का जन्म हुआ किंतु यह भारी विध्वंस के पहले के कुछ सुखद अनुभव मात्र थे। विकसित देशों की कारस्तानियों / नव-साम्राज्यवादी व्यवस्था ने नए प्रकार की धार्मिक कट्टरता, हिंसा में सौंदर्य-बोध, मेरिटोक्रेसी की खोखली बहस और दक्षिणपंथी उभार को जन्म दिया।
आज हम चरम पर्यावरणीय घटनाओं / आपदाओं, आतंकवाद / विस्तारवादी युद्ध, महामारियों, क्रोनी कैपिटलिज्म : असीम आर्थिक असमानता के बीच झूल रहें हैं। ठीक बात है कि, हम दुनिया को पहले से बेहतर समझते हैं; तकनीकी विकास चरम पर है; शिक्षा/सुव्यवस्था के सर्वोच्च मापदंड स्थापित हैं; हमें अपने कल्याण का मार्ग पता है। ऐसे में काम ने फिर करवट लिया है- वह हमारी दुनियावी समझ के विपरीत बढ़ रहा है; तकनीक मानवता के लिए सबसे बड़ा खतरा है; शिक्षा / सुव्यवस्था तक बड़ी आबादी की पहुंच ही नहीं है; हमें अपने कल्याण के मार्ग पर नहीं चलना है। अब जबकि काम ना होना / काम ढूंढना / मन मार के काम करना भी एक काम है।
क्या 'काम' अपने स्वरूप को बदलकर हमें बचाएगा ?
या अब खात्मा नजदीक है।
अतुल जायसवाल
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