गाँवों की आर्थिक तरक्की से सुनिश्चित होता है भाषा/सभ्यता का स्वर्णिम भविष्य | #NayaSaveraNetwork
मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी ने कहा है, दिवस कमजोरों का मनाया जाता है. जैसे महिला दिवस, मज़दूर दिवस, शिक्षक दिवस. कभी थानेदार और मन्त्री दिवस नहीं मनाया जाता
हिंदी (भाषा) के संदर्भ में परसाई जी सही भी हैं और ग़लत भी!
हिंदी भाषा के तो दो- दो दिवस हैं: विश्व हिंदी दिवस व राष्ट्रीय हिंदी दिवस. इस पर भी तुर्रा कि आजकल हिंदी पखवाणा मनाया जा रहा है.
कायदे से तो यह इति सिद्धम् है कि हिंदी (भाषा) भी महिला/मज़दूर/शिक्षक की तरह कमजोरों की पंक्ति में खड़ी है. किंतु, आंकड़ो पर गौर करें तो:-
भारत जैसे विशाल, बहु भाषा भाषी देश की राजभाषा है; दुनिया की तीसरी सबसे ज्यादा आबादी द्वारा प्रयोग की जाने वाली भाषा है; देश की सबसे महत्वपूर्ण संपर्क भाषा है; बहुत बड़े उपभोक्तावर्ग की मूल भाषा है;1000 सालों से ज्यादा का समृद्ध साहित्यिक इतिहास है; दुनिया की प्राचीनतम भाषा का वर्तमान प्रतिष्ठित रूप है इत्यादि.
तो फिर भैया कमजोरी कहाँ रही!
गौरतलब है कि हिंदी भाषी, मुख्यतः विशुद्ध हिंदी भाषी, सरकारी विभागों में वर्तनी सुधार का काम कर रहे हैं.
अब तो हिंदी का अच्छा अध्यापक/प्रवक्ता/प्रोफेसर भी उसे माना जाता है जो समान रूप से अंग्रेजी बोल/समझ सके.
न्यायालयों में हिंदी की उपेक्षा तारी है; तकनीकी शिक्षा में हिंदी का प्रवेश महज औपचारिकता है; नौकरशाही/संगठित क्षेत्र की नौकरी में हिंदी का महत्व केवल हिंदी दिवस को है- पखवाड़े तक भी नही है.
इतने के बाद आपकी प्रतिक्रिया होगी, कहना क्या चाहते हो?
तो मेरा मतलब है कि आज कुछ भी प्रासंगिक तभी तक है, जबतक वह बाज़ार व्यवस्था के अनुरूप है.
देश की पहचान और प्रतिष्ठा के प्रतिरूप सिनेमा व क्रिकेट न केवल हमारी वैश्विक छवि का हिस्सा हैं बल्कि हिंदी सहित हमारी क्षेत्रीय भाषाओं के झंडाबरदार भी हैं.
जब एक हिंदी भाषी क्षेत्र के युवा के पास सिनेमा का टिकट खरीदने का पैसा होगा तो सिनेमा हिंदी बोलेगा/पहनेगा/खाएगा.
इसी प्रकार जब हिंदी भाषी परिवार टीवी खरीदेगा/इंटरनेट का कनेक्शन लेगा/चैनेल का सब्स्क्रिपशन लेगा तो क्रिकेट की कॉमेंट्री भी हिंदी में होगी. जब बनारस की बेटी अमाज़ॉन शॉपिंग एप से हेड फोन खरीदेगी तो अमेरिका का अमाज़ॉन अपने कीवर्ड में हिंदी को प्राथमिकता देगा.
उपरोक्त बदलाओं को हमने अपनी आँखों के सामने देखा है. आर्थिक उदारीकरण के बाद सिनेमा सतरंगी होकर यूरोपीय सपने दिखाता- जब उदारीकरण का असर गाँवों तक पहुंचा- तो सिनेमा में बनारस, मिर्जापुर, धनबाद, मोकामा की हकीकत को भी जगह मिली. इंटरनेट की पहुँच ने क्रिकेट की भाषा ही बदलकर रख दी. आज तमाम रिटायर क्रिकेटर हिंदी कॉमेंट्री से कमाई कर रहे हैं.
यह सब सभी भाषाओं/बोलियों/संस्कृतियों पर लागू होता है. उदाहरण के लिए दक्षिण भारतीय सिनेमा/साहित्य/संस्कृति को लीजिए. देश के अन्य हिस्सों से ज्यादा और तीव्र समृद्धि ने उन्हें खटक से आगे पहुंचा दिया- राजनीतिक संरक्षण के बावजूद हिंदी सहित अन्य भाषाएँ इनसे पीछे हैं.
तो क्या हुआ कि ग्लास- सीलिंग अभी भी है; तो क्या हुआ कि भाषायी संभ्रांत वर्ग/संभ्रांतिकरण अभी भी विद्यमान है; तो क्या हुआ कि अंग्रेजों की काबिलियत/कारस्तानी का नतीजा दुनिया भुगत रही है.
भारत गाँवों में बसता है. भारत की अगणित भाषाएँ/सभ्यताएं/नीतियाँ गाँवों से सिंचित हैं. गाँव बचेगा तो यह भी बचेंगी/फलेंगी/फूलेंगी.
गाँवों में समृद्धि पहुंचे तो गाँव बचेंगे.
- Atul Jai