#Article: साहित्यिक सफर साहित्यकार साहित्यिक चमचई राजनीति साहित्यिक अकाडमी व गुटबंदी | #NayaSaveraNetwork

नया सवेरा नेटवर्क

साहित्यिक सफर वेद की ऋचाओं से शुरू हुआ|सनातन के अनुसार वेद परमब्रह्म परमेश्वर की वाणी है|जिसको आधार बनाकर हमारे मनीषियों और ऋषियों ने अनेको ग्रंथ लिखे|मानव कल्याण के लिए|जिसमें महर्षि व्यास जी का बड़ा योगदान है|जिन्होंने 18 पुराण,भागवत गीता 6 शास्त्र 13 मुख्य उपनिषद आदि इस चराचर जगत को दिया|उनके ही जैसे अनेक ऋषियों ने मानव हित के लिए वेदों से ही छान छानकर कई मानव हितकारी जलचर नभचर थलचर आदि के कल्याण के लिए अनेक सूत्र अपने अपने साहित्य में लिखकर दिए|हमारे साहित्य का सफर बहुत ही गूढ़ सरल सहज और पुरातन है|इस साहित्यिक सफर में साहित्य व साहित्यकार को  बहुत कुछ झेलना पड़ा है|जब भी कोई साहित्यिकार कुछ नया करने की कोशिस की तो,उसके समर्थक कम विरोधी अधिक रहे|जिसमें सबसे अधिक विरोध तुलसी कृत श्रीरामचरित मानस व गोस्वामी तुलसीदास जी का ही इतिहास में प्रमुख रूप से सुनने में आता है|दूसरे कवि पं.सूर्यकांत निराला जी रहे,जिनका तत्कालीन  साहित्यकारों ने पुरजोर विरोध किया था|और आज भी कुछ तुच्छ साहित्कार हैं जो नवांकुर और नई विधा को अस्वीकार कर आगे बढ़ने में अड़ंगा बने हुए हैं|कुछ ऐसे दरबारी कवि लोग हैं,जो चमचई कर रहे हैं|और मुखर रूप से राजनीति भी|

       लोग प्रथम कवि के रूप में महर्षि वाल्मीक को मानते हैं|जबकी ऐसा नहीं है|उनके पहले वेद की ऋचायें या यूँ कहें कि श्लोक थे|जिनसे ज्ञान अर्जित कर महर्षि वाल्मीक जी ने रामायण जैसा काव्य इस संसार को दिया|इसलिए यह कहना की प्रथम कवि महर्षि वाल्मीक जी हैं,तो सही नहीं होगा,मेरे हिसाब से|खैर साहित्य अपनी गति से हर काल में अपनी अलग छाप छोड़ते आगे बढ़ा|उसी के साथ साथ उसमें चमचई राजनीति और गुटबंदी भी चलती रही|चमचई से आगे बढ़ने वाले साहित्यकार वो रहे,जिसे पूर्व में दरबारी कवि कहा जाता था|वही लोग साहित्य से तब भी नाम दाम कमाए और आज भी कमा रहे हैं|
      साहित्य को बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकार से लेकर केन्द्र सरकार और निजी संस्थायें देश में गठित की गई|सबसे पहले कोई साहित्यिक संस्था का किसी ने यदि गठन किया तो वह कवि भारतेन्दु बाबू हरिष्चंद्र जी ने भारतेन्दु मंडल नाम से शुरू की|इसके बाद अनेकों निजी संस्थायें आज गतिमान हैं साहित्य और भाषा के लिए काम कर रही हैं|लेकिन सबकी सब राजनीति के मकड़जाल में उलझी हुई हैं|साहित्य सेवा कम वर्चस्व की राजनीति अधिक चल रही है|उसमें गुट बंदी तो चरम पर है|जिससे न साहित्य का भला हो रहा है न साहित्यकार का|सब अपनी पीठ थपथपाने में मशगूल हैं|तइं बड़ी की मइं वाली गाड़ी गतिमान है|
    साहित्य व भाषा संवर्धन के लिए जो सरकारी समितियाँ बनी हैं वह चमचई भाई भतीजावाद व राजनीतिक रोग से ग्रसित हैं|वहाँ साहित्य भ्रष्टाचार की बलि बढ़ रहा है|उसके चलते समितियों का मूल उद्देश्य बेपटरी है|ऐसे ऐसे साहित्य पर सम्मान लुटाये जा रहे हैं जिसे देख सुन पढ़कर ही भ्रष्टाचार चमचई राजनीति और गुटबंदी की बू आज की यमुना की जैसी आ रही है|जो गुट जितना अधिक चमचई और राजनीति कर ले रहा है,वही अकाडमिक सम्मान पा रहा है|बाकी दरकिनार कर दिए जा रहे हैं|जिनको मिलना चाहिए वह एक कोने में रद्दी किताब की तरह पड़ा सड़ रहा है|हाल ही में एक कवयित्री को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकाडमी ने सम्मानित किया था|उसकी पुस्तक का पहला ही काव्य बेपटरी था|इसी से यह साबित हो गया कि साहित्यिक अकाडमियाँ चमचई राजनीति और गुट बंदी का शिकार हैं|यह साहित्य की खूबसूरती में बदनुमा दाग है|सम्मान उसे ही दिया जाय जो लायक है|जिससे साहित्य की खूबसूरती और खूबसूरत लगे|और साहित्य की मर्यादा भी रहे|
    आज महानगरों में साहित्यिक संस्थायें हर दिन बन रही हैं और विगड़ रही हैं|क्योंकि जो बन रही हैं कहीं न कहीं ईर्ष्या बस या राजनीति बस या गुटबंदी के चलते|ऐसी संस्थायें खुल तो बड़े जोर शोर से रही हैं|मगर चार कदम भी नहीं चल पा रहीं|और गुमनाम हो जा रही हैं|क्योंकि खुलते समय उनके उद्देश्य शायद भ्रमित थे|गुट में शामिल होने वाले दृढ़ नहीं थे|
         संस्थायें खुलना अच्छी बात है|और उससे भी अच्छी बात ए है कि किसी के अवरोध में न खुले|बल्कि जोड़के खुले|खुले तो खुले मन से निर्लेप भाव से खुले|जिसमें किसी के प्रति द्वेश न हो|किसी को दबाने की नहीं सबके साथ मिलके खुद को बढा़ने की मंशा हो|उद्देश्य निर्मल हो,तभी संस्थायें मील का पत्थर बन पायेगी|लेकिन जो खुल रही हैं,बस चार दिन की चाँदनी ही साबित हो रही हैं|क्योंकि जलन बस प्रतिस्पर्धा में खुलीं|दो चार आयोजन किए|जोश उतरा तो होश आया|और होश आया तो बेहोश हो गये|क्योंकि उद्देश्य सेवा का नहीं था|सेवा का होता तो जोश में नहीं होश में करते|योजनाबद्ध करते|तो रेस का घोड़ा साबित होते|मगर जोश में आये खोल लिए|जोश उतरा ठंढे पड़ गये|गुट बना और बिखर गया|संस्था लुप्त हो गई और खुद भी गुप्त हो गये|इसलिए गिरधर जी ने कहा था|
बिना बिचारे जो करे,सो पाछे पछताय|
काम बिगारो आपना,जग में होत हंसाय||
आज वही हो रहा है|बरसाती मेढक की तरह बहुत से लोग साहित्य के सेवक बनकर आये|उछले कूदे और मौसम बदलते ही बिलुप्त हो गये|ए सभी चमचई लालच जलन राजनीति गुटबाजी के चलते न साहित्य की सेवा ही कर पाये और न ही कायदे से साहित्यकार ही|इनको यह भी नहीं पता कि साहित्यकार ऋषि होता है|उसकी रचना से समाज सीखता है|इसलिए उसे संत की तरह होना चाहिए|नेता की तरह नहीं|साहित्कार को चमचा नेता या गुटबाज नहीं होना चाहिए|उसे अपनी मर्यादा में रहना चाहिए तभी वह साहित्य की सेवा निर्लेप भाव से कर पायेगा|अन्यथा चौकड़ी ही भरता रहेगा|और सरकार को भी चाहिए कि उत्तम साहित्य और साहित्यकारों का चयन करे|लेकिन सरकार भी वही दरबारी साहित्यकार चाहती है|निजी संस्थायें भी वही चाहती हैं|जिसके चलते अधिकतर दम तोड़ चुकी हैं|और कई आखिरी साँसे गिन रही हैं|
पं.जमदग्निपुरी

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