बच्चों की परवरिश : एक मनोवैज्ञानिक समस्या | #NayaSaveraNetwork
Dr.Mamata Singh
Asist.Prof. Department of Psychology
Mohd.Hasan P.G. College, Jaunpur
तीव्र गति से बदलते हुए सामाजिक परिवर्तन के साथ वर्तमान समय में एक माता-पिता को अपने बच्चों के पालन-पोषण में जिस प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, यह एक विश्वव्यापी चिंता का विषय बन गया है। यह कहना स्वाभाविक है कि इस बदलते हुए परिवेश में बच्चे और उनसे जुड़ा उनका मनोविज्ञान, उनका स्वभाव, उनका व्यवहार प्रभावित होगा । आज बच्चों में व्यावहारिक एवं मनोवैज्ञानिक बदलाव बहुत ही गंभीर रूप से खतरनाक एवं सकारात्मक दिशा की ओर अग्रसर है । यही कारण है कि अधिकतर पेरेंट्स इस बात को लेकर परेशान रहते हैं कि हम अपने बच्चों की परवरिश किस प्रकार से करें ।आज मैं नगरों महानगरों में बच्चों में बालसुलभ घटनाएं दिखती ही नहीं है। मानो उनका व्यवहार उनके साथ कई गुना अधिक परिपक्व हो गया है। आने वाले समय में यह स्पष्ट संकेत मिल रहा है कि विकास की बाल्यकालीन अवस्था पूर्णत: लोप हो जाएगा। बच्चों के बदलते व्यवहार और मनोविज्ञान पर शोध कर रही संस्था "बालदीप "ने अपने सर्वेक्षण और अध्ययन के बाद तैयार की गई रिपोर्ट में इस संबंध में कई कारण और परिणाम सामने रखे हैं। बदलते परिवेश के कारण आज न सिर्फ बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से अव्यवस्थित हो रहे हैं बल्कि आश्चर्यजनक रूप से जिद्दी ,हिंसक और कुंठित भी हो रहे हैं । पिछले एक दशक में ही ऐसे अपराध जिनमें बच्चों की भागीदारी थी उनमें लगभग 37% की बढ़ोतरी थी। इनमें यह प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा नगरीय क्षेत्रों में अधिक रहा है। बच्चे ना सिर्फ आपसी झगड़े, घरों में पैसे चुराने जैसे छोटे -मोटे अपराधों में लिप्त हो रहे हैं बल्कि चिंताजनक रूप से नशे ,जुए, गलत यौन आचरण, फैशन की दिखावटी जिंदगी आदि जैसी आदतों में भी पड़ते जा रहे हैं। आज की जीवन शैली स्वाभाविक से कृतिम होती जा रही है। परिणाम स्वरुप बच्चों का व्यवहार नेचर के विपरीत प्रदर्शित हो रहा है। जिसके कारण उनकी मनोवैज्ञानिक समवस्थान (Homiostatis) की अवस्था धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है । इसी संबंध में शोधकर्ती द्वारा जौनपुर जनपद के 300 ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में रहने वाले माता-पिता से संपर्क स्थापित कर उनके बच्चों के विषय में व्यावहारिक एवं मनोवैज्ञानिक जानकारी ली गई । प्राप्त जानकारी के आधार पर नगरीय पेरेंट्स (160); ग्रामीण पेरेंट्स (140 )की तुलना में अपने बच्चों के व्यावहारिक बदलाव को लेकर ज्यादा चिंतित एवं परेशान दिखाई दिए । ऐसे पेरेंट्स जो संयुक्त परिवार में अपने बच्चों की परिवरिश कर रहे हैं अथवा जिन बच्चों के माता- पिता में से केवल पिता जॉब कर रहे हो ऐसे बच्चों में व्यावहारिक एवं मनोवैज्ञानिक बदलाव बहुत ही निम्न स्तर का पाया गया। "बालदीप "संस्था के अनुसार, इस बदलाव का कोई एक कारण नहीं है परंतु शोधकर्ती ने बच्चों के व्यावहारिक एवं मनोवैज्ञानिक बदलाव के कुछ कारणों एवं उनसे उत्पन्न समस्याओं के मुख्य बिंदुओं पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है।
1. पैकेज और प्रोसेस्ड फूड - इनमें पहला कारण बच्चों के खान-पान में बदलाव ।आज समाज जिस तेजी से फास्ट फूड या पैकेज्ड और प्रोसेस्ड़ फूड जैसे पैक्ड चिप्स ,पैक्ड नमकीन चिप्स, खाने की अन्य चीजें, बर्गर, पिज्जा, मैगी कप नूडल्स इत्यादि जिनमें मोनोसोडियम ग्लूटामेट ( MSG) पाया जाता है। MSG का इस्तेमाल खाने के स्वाद को बढ़ाने के लिए किया जाता है लेकिन इससे मूड और व्यवहार भी बदलता है। इसके कारण बच्चों के सिर में दर्द और अतिसक्रियता, मोटापा, रक्तचाप, आंखों की कमजोरी और उदर से संबंधित कई समस्याओं से ग्रसित होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
2. अधिक चीनी युक्त खाना -खानपान में शुगर का अधिक उपयोग बच्चों के ग्रेड्स ही नहीं बल्कि व्यवहार और मूड को भी प्रभावित करता है। इसके कारण बच्चों के व्यवहार में संवेगात्मक अतिसक्रियता के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। "बालदीप " संस्था के अनुसार, एक अध्ययन में देखा कि शुगर का अधिक उपयोग बच्चे के दिमाग पर प्रभाव डालता है । खाने की कुछ चीजों में ग्लूकोज और फ्रेक्टोज अधिक मात्रा में होती है ,जिसकी वजह से इंसुलिन का स्राव होता है। यह बच्चों के दिमाग और मनोदशा को नकारात्मक तरीके से प्रभावित करता है।
3. गैस से भरा ड्रिंक/ सोडा/ कोल्ड ड्रिंक/ कैफीन युक्त ड्रिंक/चाय/काफी-कैफीन प्राकृतिक रूप से चाकलेट,काफी,आइज्ड टी , में पाया जाता है। इसके अलावा कई कंपनी इसे सोडा, जुकाम की दवाओं में भी डालती है । 'टोरंटो पब्लिक हेल्थ आर्गेनाइजेशन' के लेख "न्यूट्रीशन मैटर" के अनुसार, कोका के एक केन में 36 से 46 मिलीग्राम तक कैफीन होता है। बच्चों का शरीर कैफीन के असर के लिए अतिसंवेदनशील है।परिणामस्वरुप बच्चों में तनाव, घबराहट, नींद ना आना ,सिर दर्द पेट में दर्द , इत्यादि की समस्या उत्पन् होने लगती है।
4. खेल कूद और मनोरंजन - आज वैज्ञानिक युग है इसके कारण बच्चों के मनोरंजन के साधनों और तरीकों में भी बदलाव आया है। स्वाभाविक खेल से बच्चों में चार संक्रियाओं (अनुकरण, अन्वेषण ,परीक्षण और निर्माण) का विकास होता है, जिनके माध्यम से बच्चे विश्व के बारे में ज्ञान प्राप्त करते हैं । हरलॉक (1978, 1984) की अनुसार, खेलों का महत्व संप्रेषण, प्रोत्साहन, सृजनशीलता ,सूझ, सामाजिक संबंधों का विकास, वांछित व्यक्तित्व विकास इत्यादि के लिए अति आवश्यक है । आज के बच्चों के खेल-कूद के मायने सिर्फ टेलीविजन, वीडियो गेम्स , कंप्यूटर गेम्स आदि तक सिमट कर रहे गए हैं । परिणामस्वरुप बच्चों में मनोवैज्ञानिक प्रतिबल, एकाकीपन, असुरक्षा एवं अमानवीय गुण का संचार हो रहा है ।
5. पारिवारिक संरचना - भारतीय बच्चों में जो भी नैतिकता, व्यवहार कुशलता स्वाभाविक रूप से आती थी। उसके लिए उसकी पारिवारिक संरचना बहुत हद तक जिम्मेदार होती थी। पहले जब सम्मिलित परिवार होते थे तो बच्चों में बड़ों के प्रति सम्मान, छोटे के प्रति स्नेह, सुख-दुख की नैसर्गिक समझ ,पारिवारिक लगाव एवं उत्तरदायित्व स्वत: ही विकसित हो जाया करते थे । आज नगरों में परिवारों के छोटे (एकाकी परिवार) होने के कारण बच्चों का दायरा सिमट कर रह गया है। वहीं महानगरों में मां-बाप दोनों के कामकाजी होने के कारण बच्चों का पालन -पोषण गवर्नस (आया) के हाथों में हो रहा है । परिणामस्वरुप उनके परिवार व समाज के प्रति नकारात्मक भावना का विकास हो रहा है । ये नकारात्मक भावना ही उसके बाल अपराध का कारण बनती है।
6. परिवरिश का तरीका- माता-पिता द्वारा अपनाई गई पैरेंटिंग का तरीका भी काफी हद तक बच्चे के आज और आने वाले कल को प्रभावित करता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, भारतीय समाज में अशिक्षा व सामाजिक अपेक्षा के कारण एक अच्छी व प्रभावी पेरेंटिंग स्टाइल स्वाभाविक रूप से लागू नहीं हो पाती है। सामान्यत: पेरेंटिंग स्टाइल दो प्रकार की होती है-
A-अथॉरिटेरियन पेरेंटिंग स्टाइल- इसे स्ट्रिक्ट पेरेंटिंग स्टाइल भी कहा जाता है । इस प्रकार की पेरेंटिंग में बच्चों को बिना शर्त उनका कहना मानना चाहिए । ऐसे माता-पिता बच्चों को 'प्रॉब्लम सॉल्विंग चैलेंज ' इसमें शामिल होने की अनुमति नहीं देते हैं, इसके बजाय वे नियम बनाते हैं और बच्चों को उसी के अनुसार काम करने के लिए प्रेरित करते हैं। साथ ही इसमें बच्चों की राय या सुझाव का उतना महत्व नहीं दिया जाता । अथॉरिटेरियन पेरेंटिंग में अनुशासन के बजाय दंड का उपयोग करते हैं ,इसलिए वे बच्चों को गलती से सीखने की बजाय गलती की सजा या सबक पर ज्यादा जोर देते हैं। इसमें माता- पिता और बच्चों के बीच खुली बातचीत नहीं होती है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार , इस प्रकार की पेरेंटिंग स्टाइल में बच्चों में 'लो सेल्फ कॉन्फिडेंस' होने की संभावना रहती है । साथ ही साथ ऐसे बच्चे शर्मीले होने के साथ-साथ खुद को असुरक्षित ,भयभीत भी महसूस करते हैं । इस कारण कई बार यह पढ़ाई-लिखाई या अन्य क्षेत्रों में पीछे रह जाते हैं।
B- परमीशिव पेरेंटिग स्टाइल- इस प्रकार की पेरेंटिंग में माता- पिता अपने बच्चों के लिए बहुत कम नियम और सीमाएं निर्धारित करते हैं । ऐसे माता-पिता दयालु किस्म के होते हैं जो अपने बच्चों को ना करना पसंद नहीं करते । कभी -कभी वह अपने बच्चों के गलत विकल्पों या खराब व्यवहार को रोकने में ज्यादा प्रयास नहीं करते । इस कारण बच्चों में अनुशासन और नियंत्रण की कमी देखने को मिलती है। परिणामस्वरूप ऐसे बच्चों में अहंकारी प्रवृत्तियाँ देखने को मिलती है।
उपरोक्त कारणों के अतिरिक्त बच्चों में अनावश्यक रुप से बढ़ता हुआ पढ़ाई का बोझ, माता- पिता की जरूरत से ज्यादा अपेक्षा रखना तथा समाज द्वारा पाश्चात्य सभ्यता को प्राथमिकता देना इत्यादि भी बच्चों में व्यावहारिक एवं मनोवैज्ञानिक बदलाव का कारण साबित हो रहा है। यदि समय रहते इसे समझा और बदलाव नहीं गया तो इसके परिणाम निस्संदेह ही समाज के लिए आत्मघाती साबित होगें।
उपरोक्त कारणों पर विचार करते हुए शोधकत्री द्वारा उनसे उत्पन्न समस्याओं के उपचार हेतु निम्न सुझाव दिए गए हैं------
1) पेरेंटिंग स्टाइल में परिवर्तन- मनोवैज्ञानिकों के अनुसार माता -पिता का बच्चों के साथ फ्रेंडली होना जरूरी है। लेकिन उनके लिए यह महत्वपूर्ण है कि वे अपने बच्चों के लिए कुछ सीमाएं और नियम निर्धारित करें ,ताकि बच्चे अपने उत्तरदायित्व को समझ सके। सामान्य बच्चों के लिए अथॉरिटेटिव पेरेंटिंग को सबसे अधिक प्रभावी और लाभकारी पेरेटिंग शैली माना जाता है । इस शैली में पेरेंट्स स्पष्ट नियम बनाते हैं ,लेकिन वे अपने नियमों में कुछ छूट की भी अनुमति देते हैं । ऐसे माता-पिता बच्चों की गलत व्यवहार को रोकने और अच्छे व्यवहार को सुदृढ़ करने के लिए सकारात्मक अनुशासन का उपयोग करते हैं । इसलिए वे अपने बच्चों को गलत व्यवहार पर उन्हें डाटते तो हैं, साथ ही साथ अच्छे व्यवहार की प्रशंसा भी करते हैं। ऐसे पेरेंट्स अपने बच्चों को बिना फटकार लगाए उनके फैसले सुनते हैं और उनके बोलने की क्षमता को बढ़ावा देते हैं जिससे बच्चों की समझ बढ़ती है। इस प्रकार की पेरेटिंग एक बढ़ते बच्चे के लिए स्वस्थ्य वातावरण बनाती है ,और माता-पिता तथा बच्चे के बीच एक सकारात्मक सोच को बढ़ावा देने में सहायक होती है।
2) बच्चों के लिए समय निकालें- परिवर्तन के इस दौर में ,आज माता -पिता के पास अपने बच्चों के लिए पर्याप्त समय का अभाव है। विशेषकर कार्यरत माता -पिता के साथ यह समस्या होती है कि उनके पास में बच्चों के लिए समय नहीं मिल पाता । ऐसे माता-पिता अपनी छुट्टियों को अपने बच्चों के लिए रखें और सामान्य दिनों में भी उनके क्रिया -कलापों पर ध्यान दें कि वे क्या करते हैं ...? उनके मित्र कौन है...? इत्यादि ।
3) अपनी अपेक्षाएं न थोपें- कुछ महत्वाकांक्षी पेरेंट्स होते हैं जो अपनी अपेक्षाओं को अपने बच्चों पर थोपने लगते हैं । इससे बच्चे तनावग्रस्त हो जाते हैं , और उनका स्वाभाविक विकास भी नहीं हो पाता है । माता -पिता को ऐसा नहीं करना चाहिए क्योंकि हर बच्चे में किसी ने किसी प्रकार की विशिष्ट प्रतिभा होती है उसे स्वाभाविक रूप से विकसित करने का अवसर देना चाहिए।
4) बच्चों को अनुशासन में रहना सिखाए- माता-पिता को अपने बच्चों में अनुशासन शुरू से ही सिखाना चाहिए। बच्चों को समय का महत्व बताएं साथ ही अपने व्यवहार से बच्चों के जीवन में अनुशासन लाएं ।इस प्रकार बच्चों के जिद्दी एवं विद्रोही स्वभाव पर नियंत्रण पा सकेंगे ।
5) बच्चों के सामने अभद्र भाषा का प्रयोग न करें- माता- पिता की जहाँ अपने बच्चों से उम्मीदें होती हैं, वहीं बच्चों के व्यक्तित्व और उनकी उम्मीदों के मुताबिक माता-पिता को भी स्वयं को उनके अनुसार व्यवहार करने की जरूरत होती है। सबसे पहले खुद अपनी भाषा पर नियंत्रण रखें ,सोच-समझकर शब्दों का चयन करें ,क्योकि माता -पिता के व्यवहार का बच्चे शीघ्र अनुसरण करते हैं।
6) मनोवैज्ञानिक सलाह -माता -पिता के जीवन शैली का बच्चों पर नकारात्मक प्रभाव दिखाई पड़ता है। बच्चों का पढ़ाई को लेकर दबाव , स्कूल जाने आने में पूरा समय निकल जाना ,होमवर्क बोझ, ट्यूशन और स्कूल के प्रोजेक्ट इत्यादि लगातार बढ़ते दबाव के कारण बच्चे तनावग्रस्त होने लगते हैं । परिणामस्वरुप उनमें विशिष्ट लक्षण प्रदर्शित होने लगते हैं ,जैसे -
1-बच्चा अगर बातों को अनसुना करने लगे।
2-बच्चे का विकास धीमी गति से हो रहा हो।
3- खेलने के अलावा बच्चा ज्यादा शैतानी करें ।
4-बच्चे का व्यवहार दूसरों के प्रति सकारात्मक ना हो।
5-जब बच्चा पढ़ाई में पिछड़ रहा हो।
6-अगर बच्चा खुद को जल्दी-जल्दी बीमार बताएं।
7-माता -पिता का कहना ना माने और गुस्सा दिखाएं ।
उपरोक्त किन्ही पाँच लक्षणों की उपस्थिति में माता-पिता को मनोवैज्ञानिक से सलाह लेनी चाहिए।
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