चुनाव और आईपीएल : सबके बस की बात नहीं | #NayaSaveraNetwork

चुनाव और आईपीएल : सबके बस की बात नहीं | #NayaSaveraNetwork
चेतन सिंह @ नया सवेरा 

देश में तवील अर्से के बाद संयोग बना है कि लोकतंत्र का महापर्व कहे जाने वाले लोकसभा चुनाव तथा लोकप्रियता की बुलंदी को छूने वाले खेल क्रिकेट आईपीएल का शंखनाद एक साथ हुआ। आईपीएल का फाइनल 26 मई 2024 को सम्पन्न हो गया। 18वीं लोकसभा के लिए हो रहे सियासी संग्राम का परिणाम चार जून 2024 को ईवीएम से बाहर आएगा। क्रिकेट व सियासत का आपस में गहरा नाता तथा समानताएं रही हैं। दोनों ही खेल धनबल, कूटनीति व रणनीति से लबरेज तथा आम लोगों की पहुंच से दूर हैं। चुनाव हों या आईपीएल सरीखे टूर्नामेंट, हजारों करोड़ रुपए दांव पर लगे होते हैं। नतीजों को लेकर अटकलों का बाजार भी गर्म रहता है।

सियासी शंतरज के माहिर खिलाड़ी सियासी रहनुमां मैदान-ए-सियासत में पलटी मार कर कब किस सियासी जमात में शामिल हो जाएं, पता नहीं। वहीं आईपीएल में कौनसा खिलाड़ी भविष्य में किस टीम का हिस्सा बन जाए, यह भी तय नहीं। क्रिकेटर हों या सियासी रहनुमां, देश में दोनों का रुतबा आम लोगों से ऊपर माना जाता है। सियासत में वर्चस्व बरकरार रखने व क्रिकेट में बादशाहत कायम रखने के लिए जुबानी जंग का दौर भी जारी रहता है। दोनों ही खेलों में परिणाम के बाद पलकों से जज्बातों का सैलाब भी छलकता है। चुनावी फिजाओं का रुख भांपने में माहिर सियासी वैज्ञानिक तथा क्रिकेट के पंडित न्यूज चैनलों पर अक्सर मौजूद रहते हैं।

जिस प्रकार क्रिकेट लोकप्रियता की बुलंदी पर काबिज हो चुका है, ठीक उसी प्रकार सियासत भी राष्ट्रीय खेल का रूप ले चुकी है। कई पूर्व नौकरशाह, सिल्वर स्क्रीन के अदाकार, अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी तथा मजहब के रहनुमां देश का पसंदीदा खेल बन चुकी सियासत में किस्मत आजमा कर जम्हूरियत की पंचायतों की शोभा बढ़ा चुके हैं तथा कई पहुंचने को बेताब हैं। सैकड़ों इंकलाबी युवाओं की कुर्बानियों के बाद बर्तानियां हुकूमत का सूर्यास्त हुआ तथा देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था बहाल हुई थी, लेकिन सियासत के बढ़ते खुमार के आगे देश के लिए राष्ट्रवाद के मजमून लिखकर जम्हूरी निजाम बहाल करने में कुर्बानियां देने वाले इंकलाबी चेहरे इतिहास में गुमनाम हो गए।

 वहीं अंग्रेजों की खेल विरासत क्रिकेट की लोकप्रियता ने अन्य खेलों व खिलाडिय़ों को हाशिए पर धकेल दिया है। हमारे देश की करोड़ों आबादी बीपीएल की श्रेणी में जीवनयापन कर रही है, मगर विदेशी खिलाड़ी व कोच हर वर्ष आईपीएल में करोड़ों रुपए कमा रहे हैं। देश का लगभग प्रत्येक राज्य हजारों करोड़ रुपय का कर्ज लेकर ‘चार्वाक’ के सिद्धांत का अनुसरण पूरी शिद्दत से कर रहा है। लेकिन इक्तदार हासिल करने के लिए लोकलुभावन वादे न किए जाएं, तो सियासत की तासीर बिगड़ जाती है। जबकि सियासत का मिजाज बन चुके अधूरे सियासी वादों से परेशान होकर लोग खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। विपक्ष में बैठकर सभी सियासी रहनुमां बेरोजगारी व महंगाई पर जोरदार ताकीद पेश करते हैं। बेशक प्रजातंत्र का सरमाया देश का शिक्षित वर्ग बेरोजगारी के सैलाब में फंस चुका है। आम लोग आसमान छू रही महंगाई से जूझ रहे हैं।

लेकिन बेरोजगारी व महंगाई के बढऩे के कारणों पर कभी तफसील से मंथन नहीं होता। चुनावी प्रचार के दौरान सियासी दल युवाओं को सरकारी नौकरियों के हसीन ख्वाब दिखाते हैं, नतीजतन युवा वर्ग रोजगार के लिए सरकारों पर ज्यादा निर्भर रहते हैं। दूसरी विडंबना यह है कि भारत में ‘लार्ड मैकाले’ द्वारा ईजाद किया गया तालिमी निजाम शारीरिक परिश्रम व जमीनी स्तर की मेहनत के बजाय सरकारी नौकरी को ज्यादा तरजीह देता है। इसी कारण अंग्रेजी झाडऩे वाली अफसरशाही तथा सियासी व्यवस्था धरातल पर सोज-ए-वतन की हकीकत से मुखातिब होने में नाकाम रही है। प्रजातंत्र की बुनियाद डिग्री धारक बेरोजगार युवाओं के हिज्र का दर्द तथा करोड़ों आबादी को खाद्यान्न उपलब्ध कराने वाले अन्नदाता किसानों की संवेदनाएं समझने में मुल्क का सियासी निजाम विफल रहा है। बेरोजगारी व बढ़ती महंगाई का सबसे बड़ा कारण तेज रफ्तार से बढ़ रही जनसंख्या है। वोट बैंक की सियासत के चलते बढ़ती आबादी को नियंत्रित करने के मुद्दे पर सियासी दल गुफ्तगू करने से परहेज करते हैं। मुफ्तखोरी की भूमिका पर अंकुश लगाना मुश्किल हो चुका है। जिस तीव्रता से देश में जनसंख्या विस्फोट हो रहा है, उतने रोजगार उपलब्ध कराना किसी भी सरकार के लिए एक गंभीर चुनौती है।

देश की सियासत ज्यादातर जाति, मजहब, आरक्षण, मुफ्तखोरी की खैरात, आरोप-प्रत्यारोप, दलबदल, चुनावी मंचों से जहरीली तकरीरें व विवादित बयानबाजी की तवाफ करती है, जबकि आम लोगों की कई समस्याएं चुनावी शोरगुल में दब कर रह जाती हैं। सरकारी शिक्षा व्यवस्था बदहाली के दौर से गुजर रही है। सरकारी अस्पताल विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी से जूझ रहे हैं। भ्रष्टाचार सिस्टम में पैर पसार चुका है। रोजगार की तलाश में प्रतिभाएं देश से पलायन कर रही हैं। नशे के सरगना युवा पीढ़ी का मुस्तकबिल बर्बाद कर रहे हैं। लाखों गोवंश सडक़ों पर अपना भाग्य कोस रहा है। अत: प्रजातंत्र के इन मुद्दों पर भी सियासी नजर-ए-करम की जरूरत है। सियासत में जोर आजमाईश का मकसद केवल सत्ता की दहलीज पर पहुंचने के लिए नहीं होना चाहिए। चुनाव अंतिम चरण में है, मगर इस बार चुनावी शोरगुल के दौरान मतदाताओं में खामोशी की रजामंदी का आलम रहा है।

लोगों को मतदान के लिए जागरूक करना पड़ा। निर्वाचन आयोग को भी मतदान के लिए लोगों से अपील करनी पड़ी। लोकतांत्रिक व्यवस्था में वोट की ताकत से ही देश की दिशा तय होती है। अलबत्ता जब पड़ोस में चीन व पाकिस्तान जैसे नामुराद मुल्क मौजूद हों, तो देश के सियासी नेतृत्व का चुनाव सशक्त व दमदार प्रत्याशी के तौर पर होना चाहिए। बहरहाल चुनावी दौर में मतदाताओं की खामोशी तथा प्रजातंत्र की ताकत युवा वेग के चेहरे पर उदासीनता की झलक जम्हूरियत की तबीयत को नासाज कर देगी। बढ़ती जनसंख्या तथा बेरोजगारी देश में सामाजिक अस्थिरता का तनाजुर पैदा कर सकती है। लिहाजा मुफ्तखोरी की योजनाओं के बजाय युवाओं को सशक्त बनाने की दिशा में काम होना चाहिए।

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