जौनपुर: छप्पर बनाने और उठाने की परम्परा हो रही खत्म | #NayaSaveraNetwork
नया सवेरा नेटवर्क
- प्रेम और भाईचारे की मिठास भी होती जा रही कम
सुरेश कुमार
खेतासराय, जौनपुर। आवश्यकताएं ही अविष्कार की जननी होती है। कुछ दशक पूर्व संसाधनों और आय के स्त्रोत कम थे तो ग्रामीण इलाकों में मनुष्यो और जानवरों के रहने के लिए मड़ई, मडहा आदि की व्यवस्था की जाती थी। गांव में कच्चे मकान होते थे। मनुष्य द्वारा बैठने के लिए मड़ई, मड़हा या छप्पर का उपयोग किया जाता था। जिसमें गांव की राजनीति के अलावा अन्य मुद्दों और चर्चा होती थी।
उस समय कुछ लोग देश की वर्तमान स्थिति पर भी टिप्पणी करते थे। समय बदला तो गाँवों में घर बन गए और मनुष्यों के अलावा जानवरों के लिए पक्की गौशाला बन गए। छप्पर बनाने की परम्परा अब गायब होती जा रही है। छप्पर अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग प्रकार से बनाया जाता है।
क्षेत्र में आमतौर पर एक पलिया, दो पलिया छप्पर बनाया जाता था। छप्पर बनाने वाले कारीगर गाँव में आसानी से मिल जाते थे।जिनका दिहाड़ी आम मजदूरों से अधिक होता था। छप्पर बनाने और रखने का काम गर्मियों में किया जाता है। खुली और बड़े जगहों में दो पलिया छप्पर लगाना आसान होता था। जो दोनों ओर से खुला रहता था। बीस से पच्चीस फुट लम्बी और बारह से पन्द्रह फुट चौड़ी छप्पर आसानी से रख दी जाती थी। छप्पर बनाने के लिए बाँस, अरहर की सिरसौटा, गन्ने की पत्ती आदि की आवश्यकता होती थी।
छप्पर तैयार करने के लिए सबसे पहले बांस की लंबाई नापकर काटी जाती थी। गन्ने के पत्ते पर पानी छिड़का जाता था और सिरसौटे को पास की पोखरी या अन्य जगह पानी में दस से बारह घण्टा भिगोया जाता था। सभी सामग्री को मिलाकर बांस को लंबाई और चौड़ाई के हिसाब से काटा जाता था और बांस को जमीन में गाड़ दिया था।
मिट्टी या ईंट की दीवार, और छप्पर के बांस को दीवार पर लगाया जाता था। जिसे रस्सी से कसकर बांधा जाता था और बांस या लकड़ी के खंभे के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। छप्पर तैयार होने के बाद छप्पर रखना महत्वपूर्ण था। खेती-किसानी से खलिहर लोग आसानी से अपने घरों में मिल जाते थे। छप्पर तैयार होने के बाद गांव के आस-पास के लोग भी इकट्ठे हो जाते थे। दर्जनों लोग छप्पर को मिलकर उठाते थे तो इसी बीच कुछ शरारती लोग छप्पर को पकड़ को लटक जाते थे।
जिससे छप्पर वजन होने से एक साथ जोर लगाने के लिए आवाज के माध्यम से जोश भरते थे और इस तरह लोग हँसी-हँसी के बीच आसानी से उठाकर छप्पर को रख देते थे। छप्पर उठाने वाले लोगों को गुड़ या भेली व मिठाई खिलाएं बिना वापिस नहीं जाने दिया जाता था और लोग खाकर खुश हो जाते थे। मड़हा, मड़ई व छप्पर बनाने वाले दिन हर्ष का माहौल नज़र आता था। भीषण गर्मी में छप्पर में आग लग जाने की ज्यादातर घटनाएं होती रहती थीं।
खासकर मिट्टी के घरों में आग लग जाती थी। आम बात यह है कि गांव के लोग हैंडपंप, पानी और अन्य साधनों से आग बुझाते थे। गर्मी के मौसम में कभी-कभी हवा के झोंकों से छप्पर उड़ जाते थे। कुछ लोग जरूरतमंद लोगों को बांस, अरहर के डंठल, गन्ने के पत्ते आदि देकर उनकी मदद करते थे। छप्पर बनाने से लेकर रखने तक राजनीतिक व अन्य सार्वजनिक मुद्दों और दुखों के बारे में चर्चा और बहस करते थे। कुछ दशक पहले तक लोग खेती-किसानी पर निर्भर थे। खेती को जानवरों से बचाने के लिए खेतों में मचान भी बनाते थे।
लेकिन वर्तमान समय में स्थानीय क्षेत्र में छप्पर और मचान बनाने की प्रथा समाप्त होती जा रही है। छप्पर की जगह सीमेंट की करकट व टीनशेड ने ले ली है, छप्पर बनाने के कारीगर भी मिलना अब मुश्किल हो गया है। गांव का माहौल शहरीकरण होता जा रहा है। आधुनिकता के इस चकाचौध में शहरों में व्यवसाय के रूप भले ही मड़ई, मड़हा व छप्पर बनाएं जा रहे हो लेकिन गाँव में मड़हा, मड़ई व छप्पर बनाने और उठाने की परम्परा समाप्त होती जा रही है। जिससे आपसी प्रेम और भाईचारे की मिठास भी कम होने लगी है।
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