नया सवेरा नेटवर्क
सूचनाएं देने में व्यस्त रहते हैं अध्यापक, विद्यालय करता है सफर
हालात यही रहे तो कैसे हासिल होगा निपुण लक्ष्य
जौनपुर। सरकार परिषदीय विद्यालयों की शिक्षण व्यवस्था को सुधारने के लिए पानी की तरह न सिर्फ पैसा बहा रही है बल्कि नित नए प्रयोग भी कर रही है लेकिन प्राथमिक शिक्षण व्यवस्था में आशा के अनुरूप सुधार नहीं दिखाई पड़ रहा है। इसकी वजह भी साफ है जब अध्यापक क्लर्की करेगा तौ कैसे सुधरेगी परिषदीय विद्यालयों की शिक्षण व्यवस्था। एक तरफ जहां कांवेंट स्कूलों में विधिवत कक्षाएं संचालित हो रही हैं और नामांकन के लिए लोग कतारबद्ध खड़े हैं वहीं प्राथमिक एवं जूनियर स्कूलोें में बच्चों का टोटा साफ दिखाई पड़ रहा है। इतना ही नहीं अध्यापको को अपना सम्मान बचाने के लिए गली कूचों में भ्रमण कर किसी तरह एक एक बच्चे जुटाने की कोशिश की जा रही है। बावजूद इसके बच्चों का टोटा पड़ा है। ऐसा लगता है जैसे लोगों का रूझान परिषदीय विद्यालयों की ओर से निरंतर हट रहा है। अभिभावक भी सीधे कांवेंट स्कूलों का रूख करते नजर आ रहे हैं। हो भी क्यों न सरकार के चाहते हुए भी शिक्षण व्यवस्था में वो सुधार नहीं हो पा रहा है जिसकी सरकार को अपेक्षा है। इसक वजह भी साफ है अध्यापको को विभाग से इतना कार्य दे दिया जाता है कि वोह विद्यालय के समय में वही कार्य लेकर आपाधापी करते रहते हैं और कक्षा में बैठे बच्चे सफर करते रहते हैं। आईये एक नजर डालते हैं अध्यापकों के कार्यों पर जो प्रत्येक दिन अध्यापक को व्यस्त किये हुए है। जिसे अध्यापक को न चाहते हुए भी करना पड़ता है क्योंकि अधिकारियों द्वारा हर कार्य के साथ एक स्पष्ट निर्देश भेज दिया जाता है कि ऐसा न करने पर वेतन अवरूद्ध कर दिया जायेगा अथवा दंडात्मक कार्रवाई की जायेगी। जिसमें छात्र छात्राओं को प्रेरणा पोर्टल पर वेरीफाई करना, विद्यार्थियों का डीबीटी करना, परिवार सर्वेक्षण करना, बाल गणना करना, आउट ऑफ स्कूल बच्चों का चिन्हांकन करना एवं उनका पंजीकरण ऐप पर करना, यू डायस पर डाटा फीड करना, डीबीटी ऐप पर बच्चों का फोटो अपलोड करना। इन सबके दरमयान इस समय जो सबसे जरूरी कार्य है वह है निपुण लक्ष्य हासिल करना। सवाल यह उठता है कि आखिर निपुण लक्ष्य हासिल किया जाये भी तो कैसे जब प्रत्येक दिन अध्यापक दूसरे कार्यों में लगा है और कक्षाएं सफर कर रही हैं। इन सबके दरमयान अध्यापक को प्रत्येक दिन नामांकन के लिए भी निकलना पड़ता है क्योंकि इस समय स्कूल चलो अभियान चल रहा है और कड़ाई से शासन का निर्देश है कि कोई भी बच्चा छूटने न पाये यहां तो छूटना दूर की बात अध्यापकों को बस्तियों बस्तियों जाकर ढूंढता पड़ता है क्योंकि कांवेंट स्कूल के लोग मार्च महीने से ही अभिभावकों को रिझाने और बच्चों को अपने विद्यालय में ले जाने के साथ सरकारी स्कूलों की बुरार्इंया करने में लग जाते हैं। हलांकि प्रदेश शासन ने पिछले कई वर्षों से परिषदीय विद्यालयों का नया सत्र भी एक अप्रैल से कर दिया है लेकिन इसी अप्रैल महीने में इतने अतिरिक्त कार्य थोप दिये जाते हैं कि अध्यापक उसी में परेशान नजर आता है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि अध्यापक जब इन्हीं कार्यों में लगा रहा जायेगा तो निपुण लक्ष्य हासिल कैसे होगा। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इन परिस्थतियों में जब शिक्षण कार्य कमजोर हो जाता है तो आने वाले बच्चों के जरिए एक ही बात बाहर निकलती है कि पढ़ाई कम हो रही है। जिससे रहा सहा अभिभावकों का रूझान और कम होता दिखाई पड़ रहा है क्योंकि यही अध्यापक जब फील्ड में निकलते हैं तो कई अभिभावक यह कहते हुए भी सुने जाते हैं कि सरकारी विद्यालयों में तो सिर्फ कागजों पर पढ़ाई होती है।
0 टिप्पणियाँ