जौनपुर: माँ दुर्गा की आराधना से होती है सर्वमनोकामना की सिद्धि:ज्ञान प्रकाश सिंह | #NayaSaveraNetwork

जौनपुर: माँ दुर्गा की आराधना से होती है सर्वमनोकामना की सिद्धि:ज्ञान प्रकाश | #NayaSaveraNetwork

नया सवेरा नेटवर्क

अग्निपुराण में देवी के अनेक रूपों का हुआ है विस्तृत वर्णन

कुरु क्षेत्र के युद्ध में जीतने के बाद भगवान कृष्ण ने अर्जुन को दुर्गा देवी की शरण में जाकर आराधना करने की दी थी सलाह 

जौनपुर। भारतीय संस्कृति एकेश्वरवादी संस्कृति न होकर अपनी मूल-प्रवृत्ति में विकासोन्मुखी एवं लोकोन्मुखी संस्कृति होते हुए अनेक आस्थाओं एवं वि·ाासों का समुच्चय है । इस संस्कृति-गंगा की हज़ारों साल पुरानी-धारा में कई संस्कृति-नदियों की उपधाराएं समाहित हो गई है और इस तरह इस संस्कृति में अनेक पंथों, मान्यताओं, विचारों, दशर््ानों एवं पद्धतियों का सामंजस्य हो गया है। भारतीय पौराणिक शास्त्रों के इतिहास का अध्ययन करे तो हम पाते हैं कि इसी धरती पर वैष्णव भी हुए हैं, शैव भी हुए हैं, शाक्त भी हुए हैं, बौद्ध भी हुए हैं, जैन भी हुए हैं और न जाने कितनी ऐसी अलग-अलग सी लगकर भी मूल में एक ही रहने वाली मान्यताएं एवं पूजन-पद्धतियाँ इस भारतभूमि पर हुई हैं। कारणवश, जब आप ध्यान से देखेंगे तो पाएँगे कि एक ही हिंदू-पर्व को अनेक नामों से जाना जाता है। कहीं एक महापर्व को नवरात्रि के रूप में मनाया जाता है, कहीं इसे विजयादशमी के नाम से अभिहित किया जाता है। गोस्वामी तुलसीदास ने विभिन्न भारतीय दशर््ान के ऐक्य को दर्शाकर हिंदू धर्म की खूबसूरती एवं व्यापकता से भारतीय चेतना का परिचय करवाया था। तुलसी के राम कहते हैं  शव द्रोही मम दास कहावा सो नर मोहि सपनेहुं नहीं पावा ।। अर्थात : ''जो भगवान शिव के द्रोही हैं वो मुझे सपने में भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं।"" आज इक्कीसवीं शताब्दी में हिंदू धर्म के हर एक पंथ एवं सम्प्रदायों के बीच एकता बढ़ी ही नहीं है, सारी दूरियाँ और भेद समाप्त हो गए हैं । भी चैत्र-नवरात्रि चल रहा है। नव-रात्रि यानी नौ रात्रि। माँ दुर्गा की आराधना चूँकि शाक्त-मतों में अधिक व्यापक रूप में किया जाता है, और शाक्त-मतों में पूजा में रात्रि का विशेष महत्त्व होता है, कारणवश इसे नवरात्रि कहा गया है। इस नवरात्रि में माँ दुर्गा के नवों रूपों जी अराधना की जाती है। बहुसंख्यक आराधक व्रत भी रखते हैं। माँ दुर्गा की आराधना से सर्वमनोकामनासिद्धि होती है। स्वयं माँ ने श्रीदुर्गासप्तशती में इस प्रकार के आशीर्वाद प्रदान किये हैं। सर्वबाधा प्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिले·ारि। एवं मेव त्वया कार्यम अस्मद् वैरि विनाशनम।। नवरात्रि का इतिहास एवं महत्त्व लगे हाथों मातृ शक्ति के विविध रंगी स्वरूप पर दृष्टिपात करना समीचीन होगा। स्वरूप के साथ-साथ देवी माँ के विविध नामों की चर्चा करना भी जरूरी है। इस विषय में सर्वप्रथम हमारा ध्यान जाता है वेदों पर वेदों में शक्ति के नामों और स्वरूप का विशद चित्रण हुआ है। 'ऋग्वेद' के एक मंत्र में शक्ति की प्रतीक देवी को वि·ा दुर्गा, सिंधु दुर्गा, अग्नि दुर्गा आदि नामों से पुकारा गया है। इसी प्रकार अन्य ग्रंथों में भी देवी के अनेकों नामों का उल्लेख है। महाभारत में दुर्गा के इक्कीस नामों का वर्णन है। कुरु क्षेत्र के युद्ध में जीतने के बाद भगवान कृष्ण ने अर्जुन को दुर्गा देवी की शरण में जाकर आराधना करने की सलाह दी थी। उधर, 'वराह पुराण' में देवी के नौ नामों का उल्लेख हुआ है। 'दुर्गा सप्तशती' में वैसे तो देवी के एक सौ आठ नामों की चर्चा है, मगर उनकी मूर्तियों के स्वरूप नौ ही बताए गए हैं। 'देवी भागवत' में भी 'नव दुर्गा' कहकर शक्ति के नौ नामों की चर्चा है। बौद्ध धर्म में अन्य देवियों के अलावा 'अभयादेवी' की भी चर्चा है। इसी देवी की पूजा-अर्चना बुद्ध ने कपिलवस्तु में आने पर की थी। रही बात देवी माँ के स्वरूप की इस विषय में कई मान्यताएँ प्रचलित हैं। मत्स्यपुराण' में दस भुजा वाली देवी दुर्गा का उल्लेख है। 'अग्निपुराण' में देवी के अनेक रूपों का वर्णन हुआ है। इन रूपों में देवी की दस, सोलह, अठारह और बीस तक भुजाएँ हैं। इन में देवी के उग्र और शांत दोनों ही रूप देखने को मिलते हैं। उग्ररूप में महाकाली, महादुर्गा, चंडिका, महिषासुर मर्दिनी आदि देवियों हैं तो शांत रूप में उषा, उमा, गौरी, अंबिका आदि देवियों का वर्णन है। शक्ति-स्वरूपा देवी का वाहन प्राय: सिंह ही माना गया है, क्योंकि सिंह शक्ति का प्रतीक है। उग्र स्वरूपा देवी के हाथों में धनुष, ढाल, पाश, मुगदर, शूल, वज्र, चक्र, मुंड आदि दिखाई देते हैं तो शांतिस्वरूपा देवी की मूर्तियों के दो या चार हाथों में कमल का फूल या कोई साधारण हथियार होता है तथा एक हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठा दिखाई देता है। सच्चाई तो यह लगती है कि देवी माँ के भक्तों ने अपने संरक्षण हेतु जब जितनी शक्ति की आवश्यकता अनुभूत हुई, तब उसी मात्रा में देवी के हाथ और उन हाथों में विभिन्न हथियारों की कल्पना कर ली। जहाँ तक देवी की पूजा-पद्धति का प्रश्न है, सबसे पहले ग्यारहवीं सदी में पूजा का स्पष्ट वर्णन मिलता है। यह उस समय की बात है, जब बंग-नरेश हरिवर्मा के प्रधानमंत्री भवदेव भट्ट ने दुर्गा की पूजा की थी। यहाँ पर यह भी ध्यान रखने की बात है कि भट्ट ने भी अपने किसी पूर्ववर्ती जीवन बालक और श्रीकर नामक दो व्यक्तियों का उल्लेख किया है, जिनकी पुस्तकों से उसने यह पूजा-पद्धति सीखी। सिका सीधा सा अर्थ यही हुआ कि दुर्गा माँ की पूजा पद्धति तो ग्यारहवीं - सदी से पहले ही लिखी जा चुकी थी, लेकिन आज वह कहीं भी उपलब्ध नहीं है। तदुपरांत चौदहवीं सदी में वाचस्पति मिश्र ने शक्तिस्वरूपा दुर्गा की पूजा का विस्तृत वर्णन किया है। आगे चलकर सोलहवीं सदी में राजा कंसनारायण ने अपने पुरोहित रमेश शास्त्री की सलाह से बहुत बड़े स्तर पर दुर्गा पूजा करवाई। समझा जाता है कि इसी पूजा के उपरांत बंगाल में दुर्गा पूजा को विशेष लोकप्रियता हासिल हुई। यदि सामान्य जीवन को देखा जाए तो शक्ति की उपासना किसी-न-किसी रूप में नित्य का कार्य है, लेकिन 'वासंतिक नवरात्र और आ·िान मास में आने वालो 'दुर्गा नवरात्र' का विशेष महत्त्व है। विद्वानों ने नवरात्रि के दो अर्थ किए हैं-नव का अर्थ है नया और 'र' का अर्थ है-रवि या प्रकाश 'अ' का अर्थ 'अंधकार' बताया गया है तो 'त्र' का अर्थ है-'प्राण' कुल मिलाकर इसका अर्थ हुआ अंधकार से मुक्ति दिलाने वाला प्रकाश।'और, जो भी हो, शक्तिस्वरूपा देवी माँ की पूजा-अर्चना करने के पीछे यही भाव है कि अज्ञान रूपी अंधकार समाप्त होकर ज्ञान रूपी प्रकाश फैल जाए तथा साथ ही, हमें सम्पन्नता एवं वैभव की प्राप्ति भी हो जाए।ाहरहाल, मातृ-पूजन के  कई आंचलिक स्वरूप भी हैं। वैसे तो शक्तिरूपा देवी माँ के पूजन के पीछे मूल भावना सर्वत्र एक ही है, लेकिन, आंचलिक प्रभावों के कारण विभिन्न लोक-संस्कृतियों में पूजा के तरीकों, मान्यताओं, परंपराओं एवं तिथियों में अंतर अवश्य दिखाई देता है। इस चैत्र-नवरात्रि पर माँ से प्रार्थना है कि वे हम सब आराधकों पर अपनी कृपा बनाए रखें एवं इस मृत्यु-लोक की बाधाओं से मुक्त रहने की हम सबको आशीष प्रदान करें।

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