नया सवेरा नेटवर्क
वाराणसी। काशी और तमिलनाडु शिवोपासना के सबसे बड़े केंद्र हैं। सभ्यता, संस्कृति और धार्मिक आचरण के अलग अलग तरीकों के कारण उनके अलग-अलग स्वरूप पूजित होते हैं। काशी में शिवलिंग पूजन का विशिष्ट महात्म्य है जबकि दक्षिण में उनके नटराज स्वरूप को प्रमुखता दी जाती है।
ये बातें एमजीआर मेडिकल विश्वविद्यालय, चेन्नई की कुलपति प्रो. सुधा सेशय्यन ने रविवार को कहीं। वह काशी-तमिल संगमम् के अंतर्गत विश्वनाथ धाम में ‘आध्यात्मिक विद्या विषयक संगोष्ठी में बतौर मुख्य वक्ता बोल रही थीं। श्रीकाशी विद्वत परिषद एवं विश्वनाथ मंदिर न्यास परिषद के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित संगोष्ठी में उन्होंने कहा कि भगवान शिव का अलौकिक नृत्य संसार के सृजन, संचालन, संपोषण और संहार की प्रवृत्तियों का परिचायक है।
उनकी प्रत्येक नृत्य भंगिमा का एक विशिष्ट संदेश है। उनका नटराज स्वरूप इस नृत्य का मूल है। यही कारण है कि दक्षिण भारत में शिव के नटराज स्वरूप को सर्वाधिक मान्यता है। इसका यह अभिप्राय नहीं कि दक्षिण भारत में शिवलिंगों की महत्ता कहीं से भी कम है। धाम के त्र्यंम्बक आडिटोरियम में हुई संगोष्ठी में श्रीकाशी विद्वत्परिषद् के अध्यक्ष पद्मभूषण प्रो. वशिष्ठ त्रिपाठी ने शिव की महिमा का वर्णन किया।
द्वितीय सत्र में कांची के विद्वान वनवाणी विद्यासागर ने भगवान शिव के पंच स्वरूपों की चर्चा की। काशी विद्वत्परिषद् के सदस्य प्रो. ह्रदय रंजन शर्मा ने शिव के सखा एवं भूमि के अधिपति देवता स्वरूप की चर्चा करते हुए कहा कि शिव सर्वकल्याणक देवता हैं। लोयला कॉलेज, चेन्नई में तमिल भाषा के आचार्य डॉ. अरुणाचल पालवर्यन ने महाकवि सुब्रमण्यम भारती का उद्धरण देते हुए कि काशी की चर्चा का सार तमिलनाडु तक पहुंचना चाहिए।
संगोष्ठी में वीएस. मणि, काशी विद्वत्परिषद् के अंतरराष्ट्रीय संयोजक डॉ. रमण त्रिपाठी, प्रो. रामकिशोर त्रिपाठी, पद्मश्री चम्मबूकृष्ण शास्त्री ने भी विचार व्यक्त किए। अतिथियों का स्वागत कमिश्नर कौशलराज शर्मा, विश्वनाथ मंदिर के मुख्य कार्यपालक अधिकारी डॉ. सुनील वर्मा और न्यास परिषद के सदस्य के. वेंकटरमण घनपाठी जबकि संचालन प्रो. रामनारायण द्विवेदी ने किया।
0 टिप्पणियाँ