Poetry: परदेसी पुरुष
नया सवेरा नेटवर्क
परदेसी पुरुष
पुरुष
ख़ुशी से नहीं समेटता सामान
परदेस जाने को
वह चुपचाप
ज़िम्मेदारियों को समेटकर
चल देता है परदेश
सख़्त दिखने वाले
अकड़कर चलने वाले मर्द
परदेश में रह कर
सब रौब मिटा देते हैं
ज़िम्मेदारियों में जकड़ा मर्द
शेर से दहाड़ने वाले मर्द
परिंदे से सहम जाते हैं
कौन जानता है
उनके अंदर उठ रहे शोर को
घर वालों की एक झलक को
बार-बार फोन उठाते हैं
आने की तारीख़ें नहीं बताते
बस इंतज़ार करते हैं
घर लौटने का
जो उनके जाने के बाद
बस इंतज़ार में खड़ा है
साहिबा “कृष्णा”
(1)
मैं और मेरी बातें…
कभी अनकही, कभी आधी-अधूरी,
तो कभी इतनी भरी हुई कि
साँसों तक में भार सा उतर आए
मेरी बातें…
जो किसी को सुनाई नहीं देतीं,
पर मेरे भीतर हर रोज़
हलचल बनकर तैरती रहती हैं
कभी मैं खुद से ही पूछ लेती हूँ
कि इन बातों को आखिर सुनता कौन है?
और जवाब मिलता है…
मेरा अपना दिल
वही दिल जो मेरे टूटने पर भी
चुपचाप जोड़ता रहता है,
मेरे बिखरने पर भी
मुझे संभाल लेता है,
और मेरी हर बात को
बिना किसी शिकायत के सुनता है
मैं और मेरी बातें…
दो साथी, दो हमसफ़र
कभी दर्द बाँटते हैं,
कभी सपने सजाते हैं,
और कभी बस…
एक-दूसरे की ख़ामोशी में
सुकून ढूँढ लेते हैं
शायद यही रिश्ता है मेरा खुद से
थोड़ा नाज़ुक,
थोड़ा गहरा,
पर बेहद सच्चा
साहिबा “कृष्णा”
(2)
भटकी नहीं हूँ मैं
भटकी नहीं हूँ मैं,
बस रास्तों को अपने तरीके से चुना है,
लोगों ने तन्हाई कहा,
मैंने उसे हौसलों का जुनून कहा है।
अकेली हूँ, मगर कमज़ोर नहीं,
हर दर्द को ताक़त बना लिया है,
जो सपने देखे जो अधुरे हैं
उन्हें अपनी जिद में पिरो लिया है।
जहाँ समाज ने दीवारें खड़ी कीं,
मैंने वहीं खिड़कियाँ खोलीं,
और सीखा—
अकेली औरत गिरती नहीं,
वो अपनी दुनिया खुद से गढ़ लेती है।
मेरे कदम अब सवाल नहीं,
मुक़ाम लिखते हैं,
क्योंकि मैंने समझ लिया है—
अकेली औरत भटकती नहीं,
वो चमत्कार कर जाती है।
साहिबा “कृष्णा”


