काली दिवाली
नया सवेरा नेटवर्क
'काली दिवाली'
कवि डॉ. अखिलेश मिश्र 'मानसकिंकर'
जिसकी झोली हो खाली वो कैसे मनाये दिवाली
पिछले बरस लेकर उधार, जितने थे दिये बनाये
बाजारी इस चकाचौंध में सारे बिक न पाये
पूरे बरस बुढ़िया ने सुनी है साहूकार की गाली
वो कैसे मनाये दिवाली ?
फिर इस बार उसी नुक्कड़, बूढ़े बरगद के नीचे
दिये सजा जा बैठी है बूढ़ी आँखों को मींचें
कभी खड़ी हो, कभी हो बैठी, कभी बजाए ताली
वो कैसे मनाये दिवाली ?
हर आने-जाने वाले को बारम्बार पुकारे
दिये दिखाये, दाम बताये कातर नयन निहारे
चीन से रोज़ लड़ाई लड़ती, बुढ़िया भोली-भाली
वो कैसे मनाये दिवाली ?
जब बाज़ार को जाना हो, इतना तो करना यारो
दिये खरीद लें बुढ़िया के थोड़ा तो बोझ उतारो
एक दिया उनका भी जलाओ, जिनकी दिवाली काली
वो कैसे मनाये दिवाली ?
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poetry


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