UP News: लोकार्पण सह परिचर्चा का आयोजन

मदनमोहन मालवीय की प्रतिमा पर दीप प्रज्ज्वलन कर हुआ शुभारंभ 

नया सवेरा नेटवर्क

हिन्दी के प्रतिष्ठित साहित्यकार कवि एवं आलोचक प्रो. प्रकाश शुक्ल द्वारा प्रणीत ‘भक्ति का लोकवृत्त और रविदास की कविताई’ पुस्तक पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल सभागार, बीएचयू के तत्वावधान और हिन्दी विभाग के सहायक आचार्य डॉ. महेन्द्र प्रसाद कुशवाहा के संयोजकत्व में हिन्दी विभाग द्वारा लोकार्पण सह परिचर्चा का आयोजन दिनांक 04/08/2025 को किया गया। यह आयोजन प्रो.  प्रकाश शुक्ल के सान्निध्य में सकुशल सम्पन्न हुआ। लोकार्पण का शुभारंभ भारतरत्न पण्डित महामना मदनमोहन मालवीय की प्रतिमा पर दीप प्रज्ज्वलन और माल्यार्पण के साथ हुआ। विश्वविद्यालयीय परम्परा का पालन करते हुए पूर्व कुलपति प्रो. शान्तिस्वरूप भटनागर द्वारा रचित कुलगीत ‘मधुर मनोहर अतीव सुन्दर, यह सर्वविद्या की राजधानी’ का गायन दिव्या शुक्ला, स्मिता पाण्डेय, आदित्य और आकांक्षा मिश्रा ने किया। तत्पश्चात् अतिथियों को अंगवस्त्रम् और गुलाब का फूल देकर उनका सत्कार किया गया। डॉ. महेन्द्र प्रसाद कुशवाहा ने बताया कि जब से मैं विभाग में आया हूँ मैंने देखा है कवि श्री प्रकाश शुक्ल एक समन्वित लय में साहित्य की दुनिया में उत्तरोत्तर प्रगति उन्मुख हैं।

परिचर्चा की अध्यक्षता करते हुए हिन्दी विभागाध्यक्ष, हिंदी के प्रसिद्ध ग़ज़लकार प्रो. वशिष्ठ अनूप द्विवेदी ने कहा कि प्रो. प्रकाश शुक्ल जी जो न केवल कविता में बल्कि गद्य में भी लगातार लिख रहे हैं उसके लिए और इस पुस्तक के लिए मैं बधाई देता हूँ। गद्य लिखना एक साहस का काम है, एक भूमिका लिखने में कई दिन सोचना पड़ता है, मैं गद्य लिखने वालों को बड़ा मानता हूँ। इस तरह प्रकाश शुक्ल जी गद्य और पद्य दोनों ही दुनिया में समान रूप से लिख रहे हैं यह बड़ी बात है। उनका आभामंडल हमें प्रभावित करता है, रैदास का मंदिर है और जब भी हम उधर से गुजरते है सजदे में सिर अपने आप झुक जाता है। रविदास हिन्दी की दुनिया में एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने भूख को सबसे पहले अनुभूत किया था। ‘ऐसा चाहो राज्य मैं, जहाँ मिले सबन को अन्न’! सृजन का सबसे बड़ा साधन हल और फावड़ा है। धन्ना, पीपा, कबीर, दादू, नानक सभी को लेते हुए इन्होंने एक बड़ा लोकवृत्त तैयार किया है। एक महत्त्वपूर्ण स्थापना है इनकी जाति पीड़ा और जगत की पीड़ा दोनों रविदास की कविता के केन्द्र में था। वे स्वभाव से साधु और संस्कार से स्वाभिमानी कवि थे। रैदास की बड़ी विशिष्टता है कि जिन लोगों की ज़बान नहीं थी उनकी ज़बान थे रैदास। शुकदेव बाहमारे का एक साक्षात्कार भी यह इस पुस्तक में। स्वर्ण और वर्ण दोनों का विरोध करते हैं। सोना तक को छुआ नहीं, उसके मन्दिर को स्वर्ण से सज्जित करने का क्या मामला है। जिस समाज के लोग चिंतित है स्वर्णकलश होना चाहिए। समाज की आर्थिक ग़रीबी, सांस्कृतिक ग़रीबी को नजरअंदाज करके, जब इस तरह का प्रश्न किया इन्होंने, शुकदेव जी के बड़ा गोलमाल सा उत्तर दिया है। रैदास ने नाम पर , कबीर के नाम पर जितने चमत्कार गढ़े गए हैं, उनसे बचने की जरूरत है। कबीर मठ गोरखपुर में एक मुकद्दमा चल रहा है।


स्वागत वक्तव्य हिन्दी विभाग बीएचयू के आचार्य डॉ. रवि शंकर सोनकर जी ने दिया। उन्होंने बताया कि गुरुवर श्री प्रकाश शुक्ल की इस पुस्तक का पूर्व रंग ‘रैदास की कविताई’ में देख चुके थे और आज इसका पूर्ण रंग इस पुस्तक में देखेंगे। रैदास का लोकवृत्त निर्वात में जन्म नहीं लेता बल्कि भारतीय सामाजिक वातावरण के सापेक्ष्य में निर्मित होता है। जिस तरह से भारतीय समाज तरह तरह की विसंगतियों से भरा हुआ था, इन विसंगतियों को वे कर्म की भक्ति के माध्यम से तोड़ने की कोशिश करते हैं। वे निष्कलुष‌ मन का एक वितान रचते हैं ताकि भारतीय समाज में व्याप्त असमानता और विसंगतियों से निजाद पा सकें। 

शोधार्थी पूजा सिंह ने पुस्तक का परिचय देते हुए बताया 16 अध्याय और 3 परिशिष्ट है। रविदास की रचनात्मकता और सामाजिकता विषय पर ये अपनी बात रखती हैं। रविदास सांस्कृतिक रूपांतरण की बात कर रहे थे। रविदास आज धार्मिक और सामाजिक समानता के सन्दर्भ में एक प्रतीक बन चुके है। रैदास को आग नहीं बल्कि आँच के कवि के रूप में दिखा गया है। रविदास समाज को ललकारते नहीं बल्कि दुलारते हैं। एक आधुनिक सामाजिक मन धीमें धीमें आँच पर सीझ रहा था। दूसरा विषय ‘बेगमपुरा’ पर बोलते हुए कहती हैं यह एक वास्तविक दुनिया नहीं बल्कि एक यूटोपिया है। इसके माध्यम से आंतरिक उपनिवेशवाद से छुटकारा की बात की गई है। बाहरी उपनिवेशवाद के विरोध के लिए अम्बेडर और फुले तक इसका प्रयोग करते हैं। इस पुस्तक में रविदास को स्वभाव से संत और संस्कार से कवि के रूप में याद किया गया है।


शोधार्थी पंकज यादव ने बताया कि यह पुस्तक डॉ. विंध्याचल यादव को समर्पित किया गया है। रविदास के कविताई पर आलोचना में रिक्तता की एक पूर्ति है। इस पुस्तक में पहले रविदास को एक कवि के रूप में देखा उसके बाद भक्त और संत के रूप में।रविदास मध्यकाल के सांस्कृतिक सूर्य हैं। रवि की एक मुख्य विशेषता है कि रविदास के यहाँ सत्संग मुक्ति का एक माध्यम है। वे मानस संस्कृति के कवि हैं। रविदास सगुण से निर्गुण की यात्रा तय करते हैं। निर्गुण के यहाँ श्रेणीबद्धता नहीं श्रमबद्धता है, क्रमबद्धता है। रविदास श्रमबद्धता के कवि हैं न कि श्रेणीबद्धता के कवि।


मुख्य वक्ता हिन्दी विभाग बीएचयू के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. बलिराज पाण्डेय बताते हैं कि कमलेश जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि यह सभा बहुत पवित्र सभा है क्योंकि मंच पर ब्राह्मण अधिक संख्या में मंच पर बैठा है। (दरअसल बलिराज जी इसे समझ नहीं पाए, कमलेश जी ने व्यंग्य नहीं किया था जबकि उन्होंने यह कहा था कि एक समय में इन्हीं काशी के पंडितों ने उनको उपेक्षित किया था और आज मंच पर उसी ब्राह्मण जाति से ताल्लुकात रखने वाले विद्वान जन इतने समृद्ध ढंग से बात रख रहे हैं, दरअसल जाति व्यवस्था पर व्यंग्य कमलेश जी ने नहीं बल्कि बलिराज जी इस बात से ग्रसित हैं कि ब्राह्मणों के बारे में कहा जाएगा तो कुछ नकारात्मक ही कहा जाएगा।)

उन्होंने बताया कि कँवल भारती ने मंच से कहा था कि तुलसीदास मनुष्यता के विरोधी कवि थे मैंने विनम्रता से कहा यदि वे कवि हैं तो वे मनुष्यता के विरोधी नहीं हो सकते। रैदास सच्चाई और स्नेह के मार्ग पर चलने वाले कवि हैं। श्री प्रकाश जी के अध्ययन क्षेत्र की व्यापकता का पता इस किताब में नज़र आती है। जहाँ लोकवृत्त की बात होगी वहाँ पुरुषोत्तम अग्रवाल के साथ साथ श्री प्रकाश शुक्ल का नाम भी स्मरण किया जाएगा। हैबर मास से लेकर, लॉरेंजन तक का ज़िक्र है। परशुराम चतुर्वेदी ने उत्तरी भारत की संत परम्परा पर रविदास पर बहुत अच्छा लिखा है। इस पुस्तक के कारण चतुर्वेदी जी एक अमर लेखक के रूप में जाने जाते हैं। रैदास को धन्ना और मीराबाई ने बहुत आदर के साथ याद किया है। मेवाड़ की झाली रानी ने इनसे प्रभावित होकर उनकी शिष्यता ग्रहण की थी। श्री प्रकाश जी पुराने मिर्जापुरी हैं, सोनभद्र तो अब न बना है। शुक्ल जी ने लिखा है कि रैदास का प्रचार प्रसार पछाह में ज्यादा था और उनका साधु संप्रदाय की एक शाखा का प्रभाव मिर्जापुर में ज़्यादा दिखाई देता है। रैदास ने नाम पर , कबीर के नाम पर जितने चमत्कार गढ़े गए हैं, उनसे बचने की जरूरत है। कबीर मठ गोरखपुर में एक मुकद्दमा चल रहा है।रविदास कहे जाके हृदय रहे राम दिन राम…रैदास कहते हैं, और तुलसी ऊंचे कुल किस काम के भजे न जो राम को…अपने कुछ पदों के माध्यम से तुलसी रैदास से जुड़ते हैं। श्री प्रकाश शुक्ल कहते हैं सगुण का ईश्वर शासन का प्रतीक है और निर्गुण का ईश्वर समानता का प्रतीक है। समानता सहिष्णुजीवी होती है और शासन शक्तिजीवी होती है। बलिराज जी कहते हैं क्या तुलसी के राम और कृष्ण के राम शासन के प्रतीक हैं। रविदास गेट का उद्घाटन करने के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति के. आर. नारायण आए हुए थे। 1967 से मैं देख रहा था उस गेट पर तीन मोची को बैठकर सिलाई करते हुए 2015 तक देखा लेकिन 2015 के बाद वहां एक मंदिर है उसका विस्तार इस तरह से कर लिया गया है कि उनका धंधा गायब है। 2015 के बाद उन तीनों का अता पता नहीं है और वहां लोहे का बैरिकेट है वहां अब आदमी भी नहीं बैठ सकता है। हमें केवल संगोष्ठियों में नहीं बल्कि कर्म के क्षेत्र में हस्तक्षेप का साहस दिखाना पड़ेगा तभी रैदास पर बात करने का असली हकदार होंगे।


अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से आए भक्तिकाल के लोकप्रिय पाठ आलोचक, जिन्होंने रस्किन बॉन्ड की कहानियों का मैथिली में अनुवाद किया है, प्रो. कमलानंद झा ने बताया कि रैदास की आस्था किसी पदानुक्रम में नहीं थी। समताबोध और लोकतांत्रिकता रैदास का बेगमपुरा है। यह किताब किसी भाववेश और जुनून में लिखी हुई किताब नहीं है। शुक्ल जी लगातार रविदास के साथ इंगेज है, संवाद कर रहे हैं, बुन रहें हैं, गुन रहे हैं। यह किताब हिंदी भक्ति आलोचना ही नहीं बल्कि हिन्दी आलोचना को अपमानित होने से बचाता है। कबीर पर तो खूब बात की गई लेकिन हिंदी आलोचना में रैदास पर बात नहीं हुई कारण निम्नजाति थी। मुनि अगस्त का एक रूपक याद आता है सनातन ब्राह्मणवाद की परम्परा है, मुनि अगस्त ने समुद्र सोख लिया था वैसे ही रैदास जैसे कवियों को सोख लिया, बुद्ध तक को भगा दिया लेकिन झक्क मारकर रैदास को खदेड़ नहीं पाए, क्या कारण था कि बुद्ध को खदेड़ दिया, महावीर को खदेड़ दिया लेकिन रैदास को नहीं खदेड़ पाए, क्यों नहीं ऐसा कर पाए इसी की शिनाख्त यह पुस्तक। कारण था लोकभाषा की शक्ति। बुद्ध की भाषा जटिलता की भाषा थी, अकादमिक की भाषा थी, ज्ञान की भाषा थी जबकि रैदास की भाषा प्रेम की भाषा थी, भक्ति की भाषा थी। शुक्ल जी कहते हैं रैदास प्रेम के कवि हैं। तुलसी भी हैं लेकिन उनके यहाँ एक निश्चित दूरी है। केवट संकुचा रहा है, तुलसी राम का महात्म्य प्रकट कर रहे हैं। प्रेम पंथ की पालकी जब रैदास कहते हैं शुक्ल जी कैसे व्याख्यायित करते हैं यह शोषण की नहीं, सेवा की पालकी है। रैदास के प्रेम में तारों का प्रकाश है। दिल को बना हरम नसी…आज प्रेम को बाज़ार में नपनी लेकर नापा जा रहा है। जब दिल ही मन्दिर हो गया तब प्रदक्षिणा की क्या जरूरत है।

सुहागिन ही जानती हैं प्रेम क्या होता है, ऐसा रैदास कहते हैं, सुहाग की आनंद और मिलन का आनंद वही जानती हैं। इसके लिए अभिमान को तजना होगा। प्रेम में अभिमान की जगह नहीं होती है। शुक्ल जी रैदास की यात्रा को अभिजात्य से मुक्ति की यात्रा के रूप में देखते हैं। यह सगुण से निर्गुण की यात्रा अंधकार से प्रकाश की यात्रा है। ये पण्डित जिसने कभी ईश्वर को देखा नहीं उसका क्या वर्णन करते हैं। जिसके हृदय का पोर पोर प्रदक्षिणा करती है उसे ईश्वर मिलते हैं। किंवदंतियों पर इन्होंने बहुत अच्छे से बात करते हैं। यह वर्ण आश्रम व्यवस्था कहानी गढ़ने में बहुत तेज़ है। अनन्तदास ने कहानी गढ़ी कि पिछले जनम में ब्राह्मण थे मांस खाने से शूद्र हुए इस जनम में। यानी डीएनए ब्राह्मण का है यह सिद्ध करना है, नहीं तो इतना प्रतिभावान व्यक्ति चमार कैसे हो सकता है। अब कबीरदास ब्राह्मणी विधवा के गर्भ से पैदा हुई ऐसी कहानी गढ़ दी गई। बेगमपुरा का यूटोपिया रामराज्य के यूटोपिया से, पंढरपुर की यूटोपिया से, कल्याणपूरा की यूटोपिया से अलग है, इस यूटोपिया में आधुनिक लोकतंत्र की बुनावट है। पहला अध्याय जो लोकवृत्त जैसे महत्वपूर्ण विषय पर केन्द्रित है लेकिन उतना ही कमजोर है क्योंकि उसमें लोकवृत्त का पाश्चात्य चिन्तन है, न कि भारतीय और उसमें रैदास की कविता को फिट नहीं बैठाते हैं। किसी मध्यकालीन कवि को जबरदस्ती आधुनिक क्यों सिद्ध करना है, पर्यावरणीय चेतना को भी कनविंस नहीं करा पाए हैं। भाव और वाक्य की , विचार की कई आवृत्तियां हुई हैं।पुरुषोत्तम जी के किताब पर नामवर जी ने एक वाक्य कहा था यह अंग्रेज़ी की किताब को हिंदी में लिख दी गई है।


कवि और आलोचक प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल अपनी पुस्तक पर बात रखते हुए कहते हैं हर सवाल का जवाब इस किताब की पूरी प्रक्रिया में है। हम लोग तीन दिन बाढ़ की ऊंचाई पर चर्चा कर रहे थे, अभी बाढ़ का पानी उच्चतम बिंदु पर नहीं पहुंचा है वैसे ही आज की परिचर्चा में  ज्ञान का पानी उच्चतम बिंदु पर नहीं पहुंचा है।यह लोकोवृत्त पब्लिक स्फेयर है, इसको न पुरुषोत्तम अग्रवाल ने सृजित किया है और न ही श्रीप्रकाश शुक्ल ने किया है। मैं जब लिख रहा था तब मेरे दिमाग़ में था कि कभी सगुण भक्ति का लोकवृत्त बना क्या, मध्यवर्ग का कोई लोकवृत्त बना क्या। हमें ध्यान रखना चाहिए, हाशिया ही लोकवृत्त बन सकता है, शक्तिकेंद्र का , मुख्यधारा का लोकवृत्त नहीं बन सकता। केन्द्र के बरक्स संत कवियों का ही लोकवृत्त बना, हिन्दी के रामानंद थे वे जो उदार थे, वे संस्कृत के रामानंद नहीं थे। जाति को लेकर कोई कुंठा नहीं थी उनमें। पितांबर दत्त बड़थ्वाल ने हिंदी के रामानंद पर सविस्तार लिखा है। बाकी जो पुस्तकें लिखी गई हैं रविदास पर किसी एक पक्ष को आधार बनाकर सौ दो सौ पेज की पुस्तकें लिख डाली। क्या पदों के संचय भर से ही कोई कवि लोक में, समाज में समादृत हो सकता है यह प्रश्न था मेरे सामने। मैंने रविदास के काव्य तत्व पर फोकस किया। परम्परा में किसी को कवि माना जाना एक बहुत बड़ी बात है। कवि केवल वही वर्णित नहीं करता जो दिखता है, उसमें संवादधर्मी चेतना नहीं है तो वे कवि नहीं है। रैदास में वर्णनात्मक संवाद, और संवाद के वर्णन के कवि के रूप में देखा है मैंने रविदास को। कैलवर्ट से लेकर शुकदेव जी तक ने कवि के उन पदों को रखा है जिसमें हाशिए की बातें है जबकि मैंने उनके काव्यात्मक, कवित्वपूर्ण पदों को मैंने लक्षित किया, जिसकी उपेक्षा की गई। उन्होंने ईश्वर को कवि के रूप में नहीं बल्कि अपने कवि को ईश्वर के समकक्ष रखा। कवि को ईश्वरीय महिमा से विभूषित किया है। शब्द के प्रकाश स्वरूप की गरिमा रैदास ने पहचान। प्रगतिशील कवि आज भी वही पढ़े जाते हैं जिनमें एक बौद्धिक अनुशासन था। बहुत सारे भक्त कवियों में स्त्री तत्व की बात होती है। स्त्री को लेकर किसी प्रकार की दुर्भावना रैदास के यहाँ नहीं मिलता। भक्ति यानि अभिव्यक्ति का आशय। ऋषि वाणी जब शब्दबद्ध होगी तो छंदमयी ही होगी। उनके यहां हाशिए के दंश को समझने की जो बौद्धिक गरिमा थी कि वे स्त्री को लेकर के उनके यहाँ महिमा मंडन नहीं है तो विद्वेष भी नहीं है। रैदास ने नेतृत्व की आकांक्षा कम निर्माण की आकांक्षा अधिक थी। रविदास आत्म को संबोधित करते हुए समाज को संबोधित करते हैं जबकि अक्सर कवि पहले समाज को संबोधित करते थे।

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छायावादी साहित्य के प्रसिद्ध कोशकार प्रो. कमलेश वर्मा जिन्होंने श्री प्रकाश शुक्ल को असहमतियों के वैभग का कवि कहा है, उन्होंने श्री प्रकाश जी पर एक संचायिता भी प्रकाशित की है। कमलेश जी कहते हैं इस पुस्तक के पहले उन्होंने जो कुछ लिखा था, नामवर की धरती, महामारी और कविता उसमें कुछ कुछ आलोचना की छींटें अवश्य थी लेकिन एक आलोचना की मुक्कमल कितना उनकी भक्ति का लोकवृत्त और रैदास की कविताई ही है। इस किताब को आलोचना की व्यवस्थित किताब कह सकते हैं। इस किताब में भक्ति के लोकवृत्त पर पूरी परम्परा का अध्ययन करते हुए उसका हवाला दिया है। आलोचना का काम होता है कि अपनी परम्परा की जड़ को पकड़े रहे। शिवसिंह सरोज के यहाँ, रामचन्द्र शुक्ल के यहाँ, मिश्रबंधु से लेकर निराला तक रविदास को याद किया है, लेकिन इस रूप में कि वे दलित समाज के शुभचिंतक थे। रैदास की कविता पर गहराई से विचार इसके पूर्व आपको नहीं मिलेगा। रैदास पर उनकी कविता की पुस्तक तो आई हैं शुकदेव सिंह ने सान्निध्य में। ‘मेरे राम का रंग मजीठ है’ नाम से कवि प्रो. सदानंद शाही ने अपने ढंग से उनकी कविताओं को हिन्दी भाषा में उद्धृत किया है। दुःख अनदोह’ शब्द आता है रैदास की कविता बेगमपुरा में। रैदास उर्दू के कवियों के लिखने से पहले फ़ारसी के कवियों के उन शब्दों को लिया था, उन्होंने एक शब्द संपदा दी थी, शब्द का सुमिरन करता है एक कवि। कवि को समझना है तो उसकी भाषा को समझे बगैर नहीं समझ सकते, केवल उसके सामाजिक पक्ष को समझते रहे तो यह अधूरी होगी।रावत साहब की एक किताब है, आर एस रावत जिसका अनुवाद कंवल भारती जी ने किया था, जिसका ज़िक्र श्री प्रकाश जी ने किया है, कोई नई से नई किताब छूटने न पाए एक आलोचक की जिम्मेदारी होती है। एक आलोचक को बहुत चौकन्ना होकर काम करना पड़ता है। भक्ति के लोकवृत्त पर बात करते हुए, हिन्दी में सबसे ज्यादा चर्चित हुए पुरुषोत्तम अग्रवाल है, उसी समय से हिन्दी आलोचना में यह शब्द स्थापित हुआ। श्री प्रकाश जी पर पुरुषोत्तम अग्रवाल का बहुत प्रभाव है। अग्रवाल जी की किताब बौद्धिक रूप से, वैचारिक रूप से समृद्ध किताब है। कमलानंद जी की पुस्तक का भी जिक्र किया है मेरा भी किया है लेकिन काटा बहुत प्यार से है, कोई लेखक याद किया जाता है, चलो जैसे भी सही गाली देकर ही सही। लोकवृत्त का मतलब वह शिक्षित जनता नहीं है जो शुक्ल जी ने पहले ‘शिक्षित जनता’ शब्द का प्रयोग करते हैं उसे अगले संस्करण में हटाते हैं। कबीर पर जाति की अवधारणा को आधार पर मैंने किताब लिखी थी, इसके पहले जाति के प्रश्न टर्म का प्रयोग इस तरह से नहीं हुआ था, उसको संज्ञान में नहीं लिया गया। संपादक, प्रकाशक दलित विमर्श, वर्ण व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था पर तो बात करना चाहते थे लेकिन जाति व्यवस्था पर सीधे सीधे बात करने के हिमायती थे। इस किताब में सबका ज़िक्र है, लेकिन धर्मवीर की एक किताब महाजीवक मक्खलि गोसाल, रविदास और कबीर पर है न तो पुरुषोत्तम अग्रवाल ने उनका ज़िक्र किया है और न ही श्री प्रकाश शुक्ल ने उनका ज़िक्र किया है। जैसे कबीर तुलसी पर हावी थे लेकिन तुलसी उनका नाम नहीं ले रहे थे लेकिन उनका खंडन कर रहे थे वैसे ही पुरुषोत्तम अग्रवाल ने भी बिना धर्मवीर का नाम लिए पूरी तरह उनका खंडन करते हैं। उनकी असहमतियां हो सकती हैं लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि धर्मवीर ने आलोचना के वृत्त को एक विशेष सन्दर्भ में रोक दिया था। यह हमारा बदला हुआ लोकवृत्त ही है कि रैदास पर बात करने के लिए, सत्य के साथ बात करने के लिए चार ब्राह्मण प्रोफ़ेसर मंच पर उपस्थित है।वृहत्तर समाज में अपनी नागरिक भूमिका को तय करना। पंजाब वालों ने इसकी रक्षा की। रविदास में एक आशाभरी दुनिया की तलाश करते हैं। कबीर के बरक्स रैदास के बेगमपुरा में व्यावहारिक शर्त है।

युवा आलोचक और प्रखर वक्ता डॉ. विंध्याचल यादव ने कहा कि प्रखरता ज्यादा ज्ञानी आदमी नहीं हो पाता है, प्रखरता कभी कभी अज्ञानता से उपजती है। रैदास यदि श्री प्रकाश जी के लोकवृत्त में नहीं आते तब उन पर यह किताब आ नहीं पाती। इस शीर्षक से किताब आना रैदास पर एक अलहदा काम है। रैदास पर आलोचना को हिन्दी की दुनिया में उस तरह से एड्रेस नहीं किया गया था, इसलिए महत्वपूर्ण है कि श्रीप्रकाश जी इसको एड्रेस कर रहे हैं। पंजाब की जनता जुड़ती है, काशीराम जैसे बहुजन चिंतक रैदास के लोकवृत्त में आते हैं तो श्रीप्रकाश शुक्ल भी उसी लोकवृत्त में आते हैं। यह शीर्षक रैदास को देखने के लिए एक गवाक्ष है। कबीर के पास एक छूट थी, हिन्दू धर्म के कवि उस तरह से नहीं आते हैं जबकि रैदास हिन्दू वर्ण व्यवस्था में जिस निचले पायदान पर थे, उसके भुक्तभोगी थे वैसे कबीर भुक्तभोगी नहीं थे। इस किताब में कबीर के साथ तुलना करते हुए रैदास जिस विडंबनापूर्ण सामाजिक स्थिति में थे उसी से मानवता अनुस्यूत स्वर प्रस्फुटित होता है। सगुण से निर्गुण की ओर जब रैदास गमन करते हैं, तब महामारी और कविता वाली किताब में बताते हैं, महामारी के कारण रविदास का सगुण ईश्वर से विश्वास उठ चुका था अतः वे निर्गुण की ओर अग्रसर हुए।इस पुस्तक में रैदास और कवि से संवाद का सन्दर्भ लिया है और इस संवाद से रविदास निर्गुण की तरफ़ उन्मुख होते हैं। रविदास नानक से भी संवाद करते हैं। सिर गेट पर उनका मंदिर 1965 में बना इसके पहले बनारस में इस ढंग से रैदास को नहीं जाना जाता था क्योंकि काशी विप्र संस्कृति का गढ़ था। चंद्रिका प्रसाद और कंवल भारती ने रविदास को दलित आलोचना की दृष्टि से देखा है, श्रीप्रकाश शुक्ल ने रविदास को विप्र संस्कृति, ब्राह्मणवाद और पुरोहितवाद के खिलाफ़ होते हुए भी वैष्णव परम्परा से उनकी उद्भावनाओं को जोड़ते हैं। श्रीप्रकाश शुक्ल रैदास को वैष्णवभक्ति परम्परा में रखा है जबकि दलित आलोचकों ने नाथों की, सिद्धों की परम्परा में रखते हैं। वैष्णव परम्परा में रखते हुए भी रविदास को क्रांतिकारी कवि सिद्ध किया। श्री प्रकाश शुक्ल के भी सघन तम की आग रैदास हैं। नवजागरण के अग्रदूतों अंबेडकर, पेरियार, फुले तक की सघन तम की आग रैदास हैं। नए शोधार्थी के लिए यह एक दस्तावेज है। लेकिन एक बात कहना चाहता हूँ कि उनके आलोचक पर कवि हावी है, श्री प्रकाश शुक्ल आलोचक बाद में कवि पहले हैं। कभी कभी समझने में दिक्कत हो जाएगी, भाषा के सन्दर्भ में। इसमें कमियां भी हैं लेकिन वे कंकड़ की तरह हैं जो इसकी खूबियों में चुभता है तो है लेकिन अदृश्य तौर पर। 

संचालन डॉ. महेन्द्र प्रसाद कुशवाहा कर रहे थे। सीबू सोरेन का निधन हो गया, जो आदिवासी थे और उनका भारतीय राजनीति में महती योगदान था हम इस मंच से उनको श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

कार्यक्रम में कवि शिवकुमार पराग जी, प्रो. प्रभाकर सिंह, प्रो. रामअवध, डॉ. रवि शंकर सोनकर, डॉ. प्रभात कुमार मिश्र, डॉ. किंगसन पटेल, डॉ. उदय प्रताप पाल, डॉ. आर्यपुत्र दीपक, सहर समता के संपादक शैलेंद्र सिंह, डॉ. महामना शुक्ल पथिक सहित विद्यार्थियों और शोधार्थियों की उपस्थिति रही।

प्रतिवेदन : कु. रोशनी, शोध छात्रा, हिन्दी विभाग, बीएचयू

9thAnniversary: अपना दल (एस) व्यापार मण्डल अध्यक्ष अनुज विक्रम सिंह की तरफ से नया सबेरा परिवार को 9वीं वर्षगांठ की बहुत-बहुत शुभकामनाएं



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