हाईकोर्ट जजमेंट में पुत्र को कड़ी फटकार -मैं गहरी शर्मिंदगी महसूस कर रहा हूं कि 100 वर्षीय मां सिर्फ 2000 रूपए मासिक पेंशन पानें अपनें बेटे से लड़ रही है

100 वर्षीय मां के अधिकार पर केरल हाईकोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय- वृद्धावस्था में माता-पिता से  सहानुभूति से पेश आने की सख्त ज़रूरत 

भारत में माता-पिता बड़े बुजुर्गों का अपमान तेजी से बढ़ा -अब माता-पिता व वरिष्ठ  नागरिक (अत्याचार अपमान दुर्व्यवहार निवारण) विधेयक 2025 मानसून सत्र में ही लाने की तात्कालिक ज़रूरत-एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र 

नया सवेरा नेटवर्क

गोंदिया - भारत में हम आदि अनादि काल से सुनते आ रहे हैं कि यहां माता-पिता बड़े बुजुर्गों का मान सम्मान बहुत अधिक है। उन्हें ईश्वर अल्लाह की तरह देखा जाता है व माता-पिता दिवस, मातृ दिवस, पितृ दिवस,बड़े बुजुर्गों का दिवस इत्यादि मनाए जाते हैं,जो बहुत अच्छी बात है परंतु मैं एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र यह मानता हूं कि अब यह शब्द,गाथाएं पौराणिक कथाएं इस आधुनिक युग में केवल किताबी या शाब्दिक जुमले यांने इस धरा पर ठीक इसके विपरीत के सटीक उदाहरण तेजी से बढ़ते जा रहे हैं। अभी सप्ताह भर पहले ही हमने सीसीटीवी पर अयोध्या कांड देखें जहां संभवतः परिवार वाले उस 80 वर्षीय बुजुर्ग महिला सदस्य को यूं ही रोड पर फेंक कर चले गए थे, जो आरोपी अभी तक पकड़ से बाहर हैं, फिर अभी चार दिन पहले केरल हाई कोर्ट में एक मामले आरपीएफसी नंबर 253/2025 अन्ना कृष्णन मलई 57 वर्ष बनाम जानकी अम्मा 100 वर्ष व अन्य जिसमें 2022 में फैमिली कोर्ट ने मां को 2000 रूपए प्रति माह का भत्ता देने का आदेश दिया था, जिसे पुत्र ने हाईकोर्ट में चुनौती दी थी, जिसमें माननीय हाई कोर्ट ने अत्यंत तीखी टिप्पणियों के साथ अपील को खारिज कर दिया। अब सवाल उठता है कि एक 100 वर्ष की महिला सिर्फ 2000 रूपए मासिक के लिए अपने पुत्र के खिलाफ कोर्ट में गई,वहां जीती तो पुत्र ने हाईकोर्ट में अपील की व पुत्र हार गया, अब शायद सुप्रीम कोर्ट का द्वार खटखटाना की संभावना है,यह है एक मां का सम्मान? आज मैं यह मुद्दा इसीलिए उठा रहा हूं कि संसद का मानसून सत्र चल रहा है व आज 5 या 6 अगस्त 2025 को भी सभी सांसद मिलकर अयोध्या व केरल मां केस का संज्ञान लेकर लोकसभा यानी निचले सदन के सभी 543 सदस्य व राज्यसभा याने उच्च सदन के सभी 245 सदस्य कुल मिलाकर 788 सदस्य मिल जाए तो माता-पिता,बुजुर्गों के कल्याण के लिए एक बेहतरीन सख्त मेरा ड्रीम संभावित बिल माता-पिता वरिष्ठ नागरिक (अत्याचार अपमान दुर्व्यवहार निवारण) विधेयक 2025 संसद के दोनों सदनों में 788/0 मतों से पास कर विश्व में एक उदाहरण प्रस्तुत करें, तो सारी जनता सभी सांसदों की कृतज्ञता हो जाएगी। यह बात में क्लियर कर दूं कि सभी बच्चे अपने माता-पिता का अपमान नहीं करते जबकि बहुत बच्चे ऐसे हैं जो अपने माता-पिता व बड़े बुजुर्गों पर अपनी जान निश्वर करते हैं,परंतु कहावत है कि एक मछली पूरे तालाब को गंदा करती है, एक आम पूरे घड़े के सभी आमों को खराब कर देता है, इसीलिए समाज की उन गन्दी मछलियों व आमों को कड़ी सजा देने का वक्त आ गया है ताकि, ऐसा कार्य करने वालों को सख़्त संदेश जाए,और आगे इस तरह की घटनाएं न हो इसको साकार करने के लिए उपरोक्त विधेयक 2025 पास करना जरूरी है, तथा उसमें हत्या रेप देशद्रोह जैसी सख्त तुल्य उम्र कैद फांसी जैसी शख्स सजा का प्रावधान हो, यदि वह सरकारी कर्मचारी है तो उसे नौकरी से डिसमिस करने सहित अनेक कड़क का प्रावधान करना जरूरी है। इसलिए आज हम मीडिया में उपलब्ध जानकारी के सहयोग से इस आर्टिकल के माध्यम से चर्चा करेंगे हाईकोर्ट जजमेंट में पुत्र को कड़ी फटकार,मैं गहरी शर्मिंदगी महसूस कर रहा हूं कि 100 वर्षीय मां सिर्फ 2000 रूपए मासिक पेंशन पाने के लिए बेटे से लड़ रही है। 

साथियों बात अगर हम 1 अगस्त 2025 को केरल हाई कोर्ट द्वारा रिट पिटीशन क्रमांक आरपीएस सी नंबर 253/ 2025 में दिए जजमेंट की करें तो, यह एक रिवीजन पिटिशन (आरपीएफसी नों. 253 ऑफ़  2025) थी जिसे 57 वर्ष के उन्नीकृष्णा पिल्लाई ने दायर किया, जो अपनी 100 वर्षीय मां जानकी अम्मा की तरफ से फॅमिली कोर्ट के आदेश को चुनौती दे रहा था, जिसमें मासिक ₹2,000 की रख-रखाव राशि देने का निर्देश दिया गया था।फॅमिली कोर्ट ने वर्ष अप्रैल 2022 में यह आदेश जारी किया था, लेकिन बेटे ने भुगतान नहीं किया, जिसके चलते रेवेनयू रिकवरी प्रोसीडिंग्स शुरू हो गए।पुत्र ने दावा किया कि उसकी मां उसके बड़े भाई के साथ रहती है, और उसकी अन्य संतानें उस पर निर्भर हैं, इसलिए केवल वही क्यों जिम्मेदार ठहराया जाए।उसने तर्क दिया कि वह मां की देखभाल करने को तैयार है यदि वह उसके साथ रहना स्वीकार करें। साथ ही,उसने 1,149 दिनों की देरी से फॅमिली कोर्ट केनिर्णय को चुनौती दी,जिसे वह न्यायिक त्रुटि बताता है।हाईकोर्ट का निर्णायक विश्लेषण(1) प्रत्येक पुत्र की व्यक्तिगत दायित्वता-- न्यायाधीश ने स्पष्ट किया कि सेक्शन 125 सी आर.पी.सी. के अंतर्गत प्रत्येक पुत्र का व्यक्तिगत दायित्व होता है जो सक्षम हो, चाहे माँ अन्य बच्चों के साथ रहती हो या न करती हो।यह बहाना कि मां के पास अन्य संतानें हैं जो उसकी देखभाल कर सकती हैं वे रक्षा प्रद नहीं है  वै वह इसका उत्तरदायित्व उठाने में विफल रहता है-तब वह मानव नहीं कहा जा सकता। (2) अदालत ने बेटे की आलोचना करते हुए कहा कि,[एक 100‑ साल की मां को कोर्ट में जाकर ₹2,000 मासिक मांगने के लिए मजबूर करना] शर्म की बात है।“मैं गहरी शर्मिंदगी महसूस करता हूँ कि 100‑ वर्षीय मां, सिर्फ 2,000रूपए मासिक पेंशन पाने के लिए अपने बेटे से लड़ रही ह (3) देरी पर विचार, लेकिन खर्च माफ़--देरी का मुद्दा -बेटे द्वारा 1,000 से अधिक दिनों के बाद पुनरीक्षण याचिका दाखिल करना-खैर अदालत ने खर्च (कस्टस) लगाए जाने पर विचार किया,लेकिननोटिस न जारी होने के कारण उसे माफ़ कर दिया। (4) व्यक्तिगत और सामाजिक संदेश--बेंच ने कहा कि बच्चों को उन्हीं मूल्यों को अपनाना चाहिए जो माँ ने अपनाया था-धैर्य, समझदारी, स्नेह-और वृद्धावस्था में माता‑ पिता को बच्चनुमा व्यवहार करने पर भी सहानुभूति से पेश आना चाहिए।हाईकोर्ट ने मानवता, नैतिकता और क़ानून की त्रिवेणी में यह आदेश जारी कर समाज को स्पष्ट संदेश दिया है:पुत्र द्वारा मां की देखभाल करना दान नहीं, वह कर्तव्य है। यह निर्णय विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि यह डिले,बेटा‑भाई‑बहन की मौजूदगी , एवं विवरणों में उलझे बिना-माँ को न्याय संपूर्णतया दिलाने पर केंद्रित है।उन्होंने पुत्र को याद दिलाया कि मां ही संसार की स्कूल है और पुत्र काआचरण वही मूल्यों पर आधारित होना चाहिए जिससे वह पला है-धैर्य, प्रेम, और मानवता।केरल उच्च न्यायालय का यह निर्णय कानून और संवेग के संगम का प्रबल उदाहरण है, जिसने यह साफ कर दिया कि वृद्ध माता‑पिता के प्रति रख‑रखाव सिर्फ कानूनी आवश्यकता नहीं बल्कि मानवीय, नैतिक और सामाजिक कर्तव्य भी है। इस फैसले से यह स्पष्ट हुआ कि किसी बेटे द्वारा अपनी मां की देख‑रेख में कमी करना-नॉट ओनली लीगली रॉंग बट मोरली रिप्रेहेंसिबल- एकबिल्कुल “शेमफुल”स्थिति मानी जाएगी।

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साथियों बात अगर हम केरल हाईकोर्ट के जजमेंट को ऐतिहासिक मानने  की करें तो,भारत के न्यायिक इतिहास में 1 अगस्त 2025 का दिन एक ऐसा संवेदनशील अध्याय लेकर आया, जिसने कानून, नैतिकता और सामाजिक जिम्मेदारी के रिश्ते को गहराई से परखा। केरल उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय जिसमें एक बेटे को उसकी 100 वर्षीय मां को 2000 रूपए प्रतिमाह भरण-पोषण देने का आदेश बरकरार रखा गया, न सिर्फ न्यायिक दृष्टि से बल्कि मानवीय मूल्य की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस निर्णय ने उस अनदेखे, मगर सतत् ज्वलंत प्रश्न को उजागर किया:क्यावृद्धावस्था में माता-पिता को न्यायालय के दरवाज़े खटखटाने चाहिए? क्या पुत्र होने का दायित्व केवल जन्मदाता का ऋण चुका देना है, या यह कर्तव्य जीवनपर्यंत है? यह निर्णय उन सामाजिक धाराओं को भी चुनौती देता है जो यह मानती हैं कि वृद्धजन अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में स्वयं को ‘परित्यक्त’ मान लें। कोर्ट ने साफ कहा कि माता-पिता को अपने बेटों से यह अपेक्षा रखना पूरी तरह जायज़ है कि वे उनका भरण-पोषण करें, और यह अधिकार कानून के साथ-साथ संस्कारों में भी निहित है। कोर्ट का यह कथन- "यह कर्तव्य है, दया नहीं"- इस पूरे विवाद की आत्मा है। यह समाज को उसकी अंतरात्मा की ओर लौटने का इशारा करता है, जहाँ बेटा केवल पुत्र होने से नहीं, बल्कि पुत्रधर्म निभाने से समाज के मूल्यबोध में स्थान पाता है।एक औरमहत्वपूर्ण बात यह रही कि कोर्ट ने याचिकाकर्ता की उस दलील को भी खारिज किया जिसमें उसने कहा कि उसकी मां अन्य बेटों के साथ रहती है, और वह अकेले क्यों भुगतान करे। न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि बच्चों के बीच बंटवारे की बहस याचिकाकर्ता बाद में सिविल कोर्ट में कर सकता है, परन्तु फिलहाल उसके दायित्व को टाला नहीं जा सकता। यह रुख इसलिए भी सराहनीय है क्योंकि यह न्याय को केवल तकनीकी व्याख्या में सीमित न रखकर मानवीय संदर्भ में प्रस्तुत करता है।यह मामला भारतीय न्यायशास्त्र में 'कर्तव्यपरक  न्याय' का जीवंत उदाहरण बनकर सामने आया है। सुप्रीम कोर्ट की विभिन्न मिसालें जैसे कि कीर्तिकांत द. वड़ोदरिए बनाम स्टेट ऑफ़ गुजरात या विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा पहले ही स्पष्ट कर चुकी हैं कि माता-पिता की देखभाल केवल सामाजिक या पारिवारिक जिम्मेदारी नहीं, बल्कि यह एक संवैधानिक उत्तरदायित्व भी है। इस निर्णय ने इन विचारों को और अधिक स्पष्टता और दृढ़ता प्रदान की है।एक ओर यह निर्णय वृद्धजनों के पक्ष में नीतिगत निर्णयों को बल देता है, वहीं दूसरी ओर यह समाज के लिए चेतावनी भी है। आज की पीढ़ी को यह समझना होगा कि माता-पिता की सेवा केवल धार्मिक अनुष्ठानों या वार्षिक पितृपक्ष में 'श्राद्ध' करने तक सीमित नहीं है। वास्तविक श्रद्धा और सेवा तो तब होती है जब माता-पिता जीवित हों और उन्हें अपने बच्चों की सहायता की जरूरत हो। किसी मां को ₹2000 के लिए अदालत में जाना पड़े,यह स्थिति खुद समाज की विफलता है।

साथियों बात अगर हम एक एक सदस्यीय बेंच की तारीफ एक काबिल जजमेंट की करें तो, न्यायमूर्ति  की कलम ने जिस प्रकार भावनात्मक गहराई और कानूनी अनुशासन के संतुलन को साधा है, वह इस निर्णय को सामान्य अदालती फैसले से ऊपर उठाकर आंदोलनात्मक दृष्टांत में परिवर्तित करता है। यह निर्णय हर कानून के विद्यार्थी, हर सामाजिक कार्यकर्ता, हर नीति निर्धारक और हर संतान के लिए एक नैतिक पाठ है।इस निर्णय को भारत के विद्यालयों, विधि विश्वविद्यालयों और प्रशासनिक संस्थानों में केस स्टडी के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए, ताकि भावी पीढ़ियाँ समझ सकें कि समाज की नींव केवल कानून से नहीं, बल्कि दायित्वबोध और करुणा से टिकती है।आर्थिक संदर्भ में 2000रूपए कोई बड़ी राशि नहीं मानी जाती, परंतु इस निर्णय ने स्पष्ट किया कि यह मामला धन की नहीं, मन की है। यह निर्णय दरअसल उस असंवेदनशील मानसिकता के विरुद्ध आवाज है, जो वृद्धजनों को परिवार का बोझ मानने लगी है। जिस मां ने जन्म दिया, परवरिश की, शिक्षा दी, वही जब उम्र के अंतिम मोड़ पर अपने बेटे से सम्मान और सुरक्षा की उम्मीद करती है, तो वह किसी कृपा की याचना नहीं कर रही- वह अपने अधिकार की बात कर रही है। भारत सरकार को चाहिए कि वह इस ऐतिहासिक निर्णय को आधार बनाकर' मेंटेनेंस  एक्ट को और अधिक सख्त बनाए। आज भी लाखों माता-पिता देश के गांवों और शहरों में अकेले जीवन व्यतीत कर रहे हैं, जिन्हें उनके बच्चों ने त्याग दिया है। ऐसे में यदि न्यायालय इस प्रकार के निर्णय दे रहा है, तो यह न केवल न्याय की स्थापना है, बल्कि सामाजिक पुनर्जागरण की दस्तक भी है। इस निर्णय का संदेश हर उस बेटे तक पहुँचना चाहिए, जो अपने मां-बाप को कमाईका बोझ समझताहै।किसी समाज की सभ्यता का सबसे बड़ा संकेतक यह होता है कि वह अपने वृद्धजनों के साथ कैसा व्यवहार करता है। अगर उस समाज में वृद्ध माताएं अदालतों के दरवाज़े खटखटाने को विवश हैं, तो उस समाज को पुनः आत्मावलोकन की आवश्यकता है। यह निर्णय वास्तव में भारत की न्यायिक परंपरा के लिए गौरव का विषय है, जहाँ संवेदनशीलता और कर्तव्य भावना को प्राथमिकता दी गई।आज जब हम तकनीकी विकास, आर्थिक प्रगति और वैश्विक प्रतिस्पर्धा की बातें करते हैं, तो हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि समाज की आत्मा उसकी 'संवेदना' में होती है। यदि एक मां की भूख, बीमारी, अकेलापन और बेबसी को उसकी संतानें नज़रअंदाज़ कर दें, तो फिर तकनीकी प्रगति का क्या मूल्य?यह निर्णय उस समाज को आईना दिखाता है, जिसने भौतिकता की दौड़ में भावनाओं को पीछे छोड़ दिया है। केरल हाई कोर्ट ने यह बता दिया कि न्याय केवल शोषित की रक्षा नहीं करता, वह समाज को दिशा भी देता है। यह निर्णय केवल एक मां की जीत नहीं है, यह हर उस मां की जीत है जो अपने बच्चों से सिर्फ सम्मान और सहारा चाहती है।

अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि हाईकोर्ट जजमेंट में पुत्र को कड़ी फटकार- मैं गहरी शर्मिंदगी महसूस कर रहा हूं कि 100 वर्षीय मां सिर्फ 2000 रूपए मासिक पेंशन पानें अपनें बेटे से लड़ रही है।100 वर्षीय मां के अधिकार पर केरल हाईकोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय- वृद्धावस्था में माता-पिता से  सहानुभूति से पेश आने की सख्त ज़रूरत,भारत में माता-पिता बड़े बुजुर्गों का अपमान तेजी से बढ़ा -अब माता-पिता व वरिष्ठ  नागरिक (अत्याचार अपमान दुर्व्यवहार निवारण) विधेयक 2025 मानसून सत्र में ही लाने की तात्कालिक ज़रूरत।


-संकलनकर्ता लेखक - क़र विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यम सीए (एटीसी) एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र 9226229318

Gahna Kothi Bhagelu Ram Ramji Seth | Kotwali Chauraha Jaunpur | 9984991000, 9792991000, 9984361313 | Olandganj Jaunpur | 9838545608, 7355037762, 8317077790 And RAJDARBAR A FAMILY RESTAURANT in RajMahal Jaunpur
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