Poetry: तख़त..!
नया सवेरा नेटवर्क
तख़त.....!
सुन रे भईया....!
हम तोहसे एक बात कहत...
लकडी के पल्लन में,
पावा चार लगाई के...
गाँव-देश में बनत है तखत....
सबके दुआरे कै भईया...
शान होत है....ई तखत....
बुढवन कै तो.....!
जान-परान....होत है ई तख़त...
लरिकन-बच्चन के सब हँसी-ठिठौली
इही तख़त के...अगले-बगले ही रहत
पास-पड़ोस कै चिंता-फिकिर होय...
या फिर...गाँव-देश के चुनावी चर्चा..
ई तख़त....सब कै हरदम साक्षी रहत
इही तख़त पर ही भैया...हर दिन...
बुढ़वन कै हुक्का...जात है कसत...
जाड़े कै दिन कौड़ा-आगी से....
गरमी कै दुपहरिया दहला-पकड़ से..
इही तख़त पर से ही कटत...
सच माना...गाँव-देश में तख़त...
बिजी रहत है सुबह-शाम हर बखत..
गाँव-देश के रामलीला-नौटंकी...
औ...हर एक कार-परोजन में..
चारिउ ओर मिलत ह भईया...
चारपाई के संग में...ई तख़त...
सबकै बैठउकी एक तरफ....
जो कबहुँ ई तख़त पर....!
"काकी" जात बईठ....
कर्कश भाषा से अपनी,
सगरी गाँव कै...कान देत अइन्ठ
भले सुनि-सुनि वाकै भाषा...!
लरिका-जवान सब हँसत मिलि बईठ
लहगर बुढ़वा जब कबहूँ....!
अइन्ठ के मूँछ...बईठ तख़त पै जाय
जानि ल भईया...बिन बात के बतंगड़
अउर आसानी से...उहाँ बनत बाय...
एहि खातिर...वाकै जुबान...
कबहुँ नाय फँसत है भाय....
साँच कहूँ रे मोरे भईया....!
तख़त के बहुतइ बड़ा इतिहास बा...
कुलि कहि डारा भले तू सभे....!
पर...एक पक्की सी बात बा...
बिन जेकरे....तख़त के वर्णन...
एकदम खाली देखात बा...
अमीर-गरीब होंय या ऊँच-नीच...
घुरहू होंय या मँगरू-कतवारू...!
गाँव-देश....अउर समाज के....
सबही लोगन कै भईया....!
लकड़ी के इही तखत पर,
शरीर के अंतिम वास बा....
लकड़ी के इही तखत पर भैया
शरीर के अंतिम वास बा....
रचनाकार.....
जितेन्द्र कुमार दुबे
अपर पुलिस उपायुक्त, लखनऊ