UP News: बरेली के अतीत और वर्तमान पर महत्त्वपूर्ण पत्रिका कलम बरेली की-5
रणजीत पांचाले @ नया सवेरा
बरेली। वर्ष 2021 में शुरू हुई ‘कलम बरेली की’ पत्रिका का हाल ही में पांचवा वार्षिक अंक प्रकाशित हुआ । जनपद के इतिहास सहित इसके विभिन्न पक्षों को समेटे हुई पत्रिका का यह अंक भी संग्रहणीय बन गया है। संपादक निर्भय सक्सेना अपने सीमित साधनों से ही जनपद के भूत और वर्तमान को पत्रिका के पन्नों पर अंकित करने के ‘मिशन’ पर मिशनरी भावना के साथ निरंतर प्रयासरत हैं। बरेली नगर के ऐतिहासिक महत्त्व के मंदिर, इमारतें, स्थल, यहां के इतिहास- निर्माता, साहित्यकार व अन्य क्षेत्रों की विभूतियों के अलावा संस्थाओं की ऐतिहासिकता और शहर की विकासात्मक गतिविधियों पर प्रकाशित लेख इस पत्रिका को पठनीय बनाते हैं।
बरेली के इतिहास संबंधी गणेश पथिक के एक लेख में रूहेला सरदार नज्जू खां और बुलंद खां द्वारा बरेली के कस्बे फतेहगंज पश्चिमी में 1794 में अंग्रेज़ी फौज के साथ बहुत बहादुरी के साथ लड़ी गई जंग पर संक्षेप में प्रकाश डाला गया है। इस जंग में अंग्रेज़ों की हार हुई थी। लेकिन बाद में अंग्रेज़ी फौज द्वारा पुनः किए गए हमले में रूहेलों की हार हुई थी और दोनों रूहेला सरदारों को गिरफ्तार करके तोप से बांधने के बाद गोले दाग कर शहीद कर दिया गया था।
नगर में स्थित ऐतिहासिक महत्त्व प्राप्त कर चुकीं संस्थाओं में एशिया के सबसे बड़े पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान ‘इंडियन वेटरीनरी रिसर्च इंस्टीट्यूट’ (आईवीआरआई) पर अपने लेख में निर्भय सक्सेना ने इस संस्था के इतिहास, कार्यों और उपलब्धियों पर प्रकाश डाला है। श्री सक्सेना ने शहर में स्थित 46 वर्ष पुराने केंद्रीय पक्षी अनुसंधान संस्थान के कार्यों से भी अपने एक अन्य लेख में परिचित कराया है। डॉ. ए.सी. त्रिपाठी का नगर के 187 वर्ष पुराने बरेली कॉलेज पर लेख इसके इतिहास पर संक्षिप्त, लेकिन एक बढ़िया लेख है। वर्ष 1837 में स्थापित इस कॉलेज के बारे में उन्होंने लिखा है : यहां यह भी बताना आवश्यक है कि उत्तर भारत में बरेली कॉलेज के पूर्व अंग्रेज़ों ने केवल दो ही कॉलेज स्थापित किए थे और वो थे 1823 का आगरा कॉलेज और 1828 का दिल्ली कॉलेज। कलकत्ता प्रेसीडेंसी से यह बात कही जाती रही थी कि पछांह में केवल दो ही कॉलेज हैं-आगरा कॉलेज और बरेली कॉलेज। अंग्रेज़ी सीखनी है तो बरेली कॉलेज के प्रो. कैरी के पास जाओ।’
धार्मिक गतिविधियों पर प्रकाशित एक लेख जिसका शीर्षक है ‘515 वर्ष से कंस वध के बाद से बरेली नगर में निकलती है परंपरागत राजगद्दी’ में निर्भय सक्सेना ने लिखा है कि ‘श्री कृष्ण लीला कमेटी के तद्भावधान में 2024 में प्रेमनगर के कृष्ण लीला स्थल पर हुए कंस के पुतले के वध के बाद बरेली नगर में 515 वर्ष पुरानी परंपरागत राजगद्दी निकाली गई।’ उन्हें कमेटी के पदाधिकारी ने बताया है कि कमेटी के तत्वावधान में 515 वर्षों से कृष्ण लीला होती आ रही है। मेरे लिए यह समझ पाना कठिन है कि जब अभी भी बरेली नगर की आयु मात्र 488 वर्ष ही है (क्योंकि अधिकांश इतिहासकार इस बात पर एकमत हैं कि बरेली नगर की स्थापना 1537 में हुई थी), तो फिर 515 वर्षों से नगर में कृष्ण लीला कैसे होती आ रही है ? और कैसे 515 वर्षों से यहां राजगद्दी निकल रही है ? जबकि आज से 515 वर्ष पूर्व तो बरेली नगर का ही अस्तित्व नहीं था। ऐसा प्रतीत होता है कि 515 वर्षों की संख्या बताने/लिखने में कहीं चूक हुई है।
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इस नगर की विभूतियों शिक्षाविद् प्रो. राजेन्द्र भारती पर निर्भय सक्सेना, साहित्यकार श्याम लाल राही पर उपमेन्द्र सक्सेना, हरिशंकर शर्मा पर निर्भय सक्सेना, मेयर डॉ. उमेश गौतम एवं उनके परिजनों पर डॉ. राजेश शर्मा, प्रगतिशील किसान अनिल साहनी तथा संस्कृतिकर्मी जगदीश चंद्र पालीवाल पर निर्भय सक्सेना के लेख पठनीय हैं।
उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा ‘साहित्य भूषण सम्मान’ से सम्मानित सुरेश बाबू मिश्रा ने अपने लेख ‘बरेली के कालजयी साहित्य पुरोधा’ में राम कथा को हिंदी में जन-जन तक अपनी ‘राधेश्याम रामायण’ के माध्यम से पहुंचाने वाले पंडित राधेश्याम कथावाचक की रामायण के महत्त्व पर प्रकाश डाला है। एक नाटककार के रूप में तथा ‘भ्रमर’ पत्रिका के संपादक के रूप में भी बरेली के गौरव पंडित जी के अवदान का संक्षेप में ज़िक्र किया गया है। बाल साहित्यकार के रूप में देश में सुविख्यात निरंकार देव सेवक के व्यक्तित्व के बारे में मिश्रा जी ने लिखा है: ‘छरहरी काया और पके बालों वाले निरंकार देव सेवक अपने में सहृदयता, उदारता और मानवता की तस्वीर थे। मोटे चश्मे के पीछे से झांकने वाली उनकी कोमल आंखें और नम्र तथा मृदुल स्वर उनके व्यक्तित्व के अभिन्न अंग थे।’ गीतकार किशन सरोज के बारे में उन्होंने लिखा है: ‘उनके गीतों में सारस्वत प्रेम की अविरल धारा प्रवाहित होती है। उन्होंने अपने गीतों के माध्यम से पूरे देश में बरेली का मान बढ़ाया। उनके गीत संग्रह हिंदी साहित्य की अनमोल धरोहर हैं।’ भाषाविद् पंडित भोलानाथ शर्मा के बारे में सुरेश बाबू मिश्रा ने लिखा है: ‘पंडित भोलानाथ जी चाहते थे कि हिंदी समृद्ध हो, इसलिए उन्होंने 1930 से 1950 के बीच कई यूरोपीय भाषाओं और भारतीय भाषाओं को सीख लिया। ग्रीक, फ्रेंच, इटैलियन, रूसी, हिब्रू, अंग्रेज़ी, लैटिन, जर्मन, बांग्ला, संस्कृत, हिंदी, उर्दू, मराठी और गुजराती भाषाओं पर उनका अच्छा अधिकार था।’ उन्होंने ग्रीक और जर्मन भाषाओं से सीधे हिंदी में कई ग्रंथों का अनुवाद किया था। सुकुमार सेन की बांग्ला कृति ‘साहित्येर यात्रा’ का भी हिंदी में अनुवाद किया था।
उपमेन्द्र सक्सेना ने बरेली के वर्तमान साहित्यकारों रणधीर प्रसाद गौड़, हरिशंकर सक्सेना, डॉ. महेश मधुकर, रमेश गौतम, आचार्य देवेन्द्र देव, हिमांशु श्रोत्रिय, डॉ. प्रणव गौतम, डॉ. दिनेश गोस्वामी, बृजेन्द्र तिवारी, श्रीमती शिवरक्षा पांडेय, पवन कुमार अंचल, शिव शंकर यजुर्वेदी और पी.के. दीवाना के काव्य की विशेषताओं पर सारगर्भित लेख लिखा है।
इंद्रदेव त्रिवेदी ने अपने लेख ‘अब किसे फुर्सत है’ में अनेक ऐसी बातों को उठाया है जो बरेली में होनी चाहिए थीं, लेकिन नहीं हुई हैं। उदाहरणार्थ, बरेली कमिश्नरी के जिस पेड़ पर अनेक स्वतंत्रता प्रेमियों को फांसी पर लटका कर भारत माता के चरणों में समर्पित कर दिया गया था, वहां शहीदों की स्मृति में मेले क्यों नहीं लगते ? प्रशासन और बरेली की जनता उन शहीदों को कायदे से क्यों याद नहीं करते ? अपने शहर से आत्मिक जुड़ाव रखने वाले एक संवेदनशील साहित्यकार का ऐसी अनेक उपेक्षाओं पर खिन्न होना बहुत स्वाभाविक है।
नगर में स्थित 127 वर्ष पुराने ‘बरेली क्लब’ पर निर्भय सक्सेना ने अपने लेख में कई अच्छी जानकारियां देते हुए लिखा है: ‘मुख्य भवन में आगंतुक कक्ष के पास ही एंटीक पियानो भी यहां की शोभा बढ़ाता है। इसके डांस हॉल का फर्श आकवुड नामक लकड़ी से बना हुआ है जिसमें नीचे लगे बड़े-बड़े स्प्रिंग इसको और लचीला बना देते हैं। इस तरह का आकवुड फर्श देश में अब बरेली में ही बचा होना बताया गया है।’ बरेली नगर में 1872 में शुरू हुई एशिया की पहली मेथोडिस्ट सेमिनरी तथा इसे स्थापित करने वाले अमेरिकन मिशनरी डॉ. विलियम बटलर के बारे में रणजीत पांचाले ने अपने लेख में विस्तार से जानकारी दी है। इन्हीं डॉ. बटलर की प्रेरणा से बरेली के पहले मेथोडिस्ट चर्च की नींव 1870 में रखी गई थी। यह चर्च बटलर प्लाजा के सामने स्थित है। भारत में मेथाडिस्ट चर्च की शुरुआत यहीं से हुई थी। बरेली के अतीत और वर्तमान से संबंधित लेखों के कारण ‘कलम बरेली की’ पत्रिका का महत्त्व निरंतर बढ़ रहा है। इसके लिए पत्रिका के संपादक, जनपद के वरिष्ठ पत्रकार निर्भय सक्सेना साधुवाद के पात्र हैं।
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