शैक्षणिक परिसर में वोक-जिहादी मानसिकता की घुसपैठ खतरनाक | Naya Sabera Network
प्रोफेसर शांतिश्री धुलिपुड़ी पंडित, कुलपति, जेएनयू
नया सवेरा नेटवर्क
हाल ही में अमेरिका के ट्रंप 2.0 के प्रशासन ने शिक्षा मंत्रालय द्वारा दिए जा रहे प्रमुख उच्च
शिक्षा संस्थानों के फंड को कम करने का निर्णय लेकर शैक्षणिक परिसर में गहरी जड़ें जमाए वॉक - जेहादी मानसिकता पर आक्रामक और निर्णायक प्रहार किया है। ये वैचारिक नेटवर्क पश्चिम में शोध संस्थानों और अग्रणी विश्वविद्यालयों और वैज्ञानिक एवं इंजीनियरिंग क्षेत्र में भी लंबे समय से हावी हैं। इनका मुख्य उद्देश्य विभाजनकारी विचारों को फैलाना है। यही समस्या अब भारतीय शिक्षा संस्थानों के परिसर जैसे IIT, IISER, NIT और कई निजी विश्वविद्यालयों में पनप चुकी है।
यह वैचारिक षडयंत्र विकसित भारत 2047 के सपनों और अमृत काल की वास्तविकता के लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकता है। भारत की सभ्यता के प्रति शत्रु केवल इतिहास को फिर से लिखने और हिंदुओं के खिलाफ किए गए लूट, बलात्कारी धर्मांतरण और सांस्कृतिक चिन्हों को छिपाने का ही नहीं, बल्कि वे अब युवा शोधकर्ताओं को ऐसे शैक्षणिक प्रकल्पों और शोध विषयों की ओर मोड़ रहे हैं जो स्पष्ट या अप्रत्यक्ष रूप से उनके भारत विरोधी एजेंडे को शसक्त करते हैं। यदि भारत सरकार और शिक्षा मंत्रालय इसपर तेजी से कार्रवाई नहीं करते हैं तो हम ऐसी पीढ़ी को बढ़ावा देने का जोखिम उठा रहे हैं जो वैचारिक रूप से राष्ट्रीय और सांस्कृतिक मूल्यों समझौता कर चुकी है और भारत के धार्मिक सभ्यता के मूल्यों से कट चुकी है। भारत के प्रमुख उच्च शिक्षा संस्थान युवाओं को विविधता, लोकतंत्र, भिन्नता, बहस और असहमति के मूल्यों से दूर करने के लिए प्रशिक्षित कर रहे हैं। विडंबना यह है कि ये वही मूल्य हैं जिनकी ये संस्थान वकालत करते हैं। हमारे पाठ्यक्रमों में वेदों, उपनिषदों और भारतीयता पर पाठ नहीं होंगे तो, ये हमारी बेहतरीन प्रतिभाओं को भारत विरोधी विचारधारा आत्मसात करने के लिए षडयंत्र करते रहेंगे। इससे हमारी भी विफलता उजागर होती है। क्योंकि एक दशक तक सत्ता में रहने के बावजूद, राजनीतिक व्यवस्था ने अभी तक इस जहरीले नेटवर्क की प्रभावी पहचान और समाप्ति नहीं की है। निसंदेह वोक जेहादी नेटवर्क के लोग बहुत चालक हैं। उनके रणनीतिक दोगलेपन और संस्थाओं पर युवाओं को दिग्भ्रमित करके कब्जा करने का इरादा उन्हें वर्तमान व्यस्था में प्रवेश के रास्ते खोल देता है।
यही स्थिति उस समय और भी स्पष्ट होती है जब ये ढोंगी जेहादी, सरकार की IITs, IISERs और NITs में बढ़ते हुए निवेश का फायदा पूरा उठाते हैं। इन संस्थानों के मानविकी और सामाजिक विज्ञान विभाग अब उन लोगों से भर गए हैं जो भारत को भीतर से कमजोर करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। हम इस बौद्धिक उपनिवेश को फंड करने के लिए विवश क्यों हैं? क्या हमने वास्तव में समस्या की गहराई को स्वीकार किया है? यह अत्यंत आवश्यक है कि हम इस समस्या को पहचानें, इसकी वैधता को चुनौती दें और भारत के सभ्यतागत मूल्यों पर आधारित वैकल्पिक कथानक विकसित करें। आखिरकार, कथानक केवल कहानियाँ नहीं होती—वे राजनीतिक शक्ति के उपकरण होते हैं।
आज, ये समूह AI और तकनीकी विकास जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में शोध पर प्रभाव डाल रहे हैं। भले ही उपकरण स्वयं तटस्थ रहे, उनके पीछे के मस्तिष्क उन विचारधाराओं से निर्मित हो रहे हैं जो भारतीय विचारो के खिलाफ हैं। खतरा केवल उनके विश्वास में नहीं है बल्कि वे कैसे संगठित होते हैं—अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय गिरोहों के साथ गहराई से जुड़कर उनके प्रयासों का समर्थन और सहयोग करते हैं। चिंता की बात यह है कि विपक्ष एकजुट और दृढ़ है, जबकि वैकल्पिक आवाजें विभाजित और कभी-कभी प्रतिक्रियाशील रहती हैं।
इस वैचारिक अधिग्रहण के प्रमाण पहले से ही कई IITs के मानविकी विभागों में स्पष्ट हैं। ये विभाग मूल रूप से इंजीनियरों को एक मानवतावादी और सामाजिक दृष्टिकोण विकसित करने में सहायता करने के लिए बनाए गए थे। मैक्स प्लांक संस्थान और फ्रैंकफर्ट स्कूल जैसे प्रारंभिक पश्चिमी मॉडलों से प्रेरित होकर, IIT खरगपुर और IIT बॉम्बे जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में इन विभागों ने दर्शन, साहित्य, अर्थशास्त्र और सामाजिक विचार को तकनीकी पाठ्यक्रम में एकीकृत करने का प्रयास किया। हालाँकि, 2000 के दशक के अंत से, ये विभाग उन पुराने मार्क्सवादी सिद्धांतों के वैचारिक अधिपत्य केंद्रों में विकसित हो गए हैं।
2008/10 के बाद, इस पतन की गति तेज हो गई, विशेष रूप से नई IITs—गांधीनगर, हैदराबाद, इंदौर, रोपर और जोधपुर—में इस वोक - जेहादी नेटवर्क ने अपने आपको शैक्षणिक रूप से स्थापित करने की कोशिश तेज की। आरंभ में, युवा मानविकी विद्वानों का समावेश बौद्धिक विविधता और अंतर्विभागीय शोध की दिशा में एक कदम माना गया। 2011 से 2018 के कालखंड में इन संस्थाओं में ऐसे शिक्षकों को भर्ती किया गया है जो IIT संस्थानों में जैसे गांधीनगर में 2014 में समाज और संस्कृति जैसे कोर्स लाने लगे। इसका अनुकरण करते हुए IIT मद्रास में भी अंग्रेजी, अर्थशास्त्र, और विकास अध्ययन केंद्रित एमए डिग्रियाँ प्रस्तावित किया, यह कार्यक्रम अंतर्विभागीयता के छद्म नाम के तहत एक व्यापक, स्पष्ट मार्क्सवादी ढाँचा प्रस्तुत करता था।
इन कार्यक्रमों के पीछे का छिपा हुआ उद्देश्य न तो शैक्षणिक उन्नति है और न ही वैचारिक पुनरुत्थान। इस पाठ्यक्रम की सामग्री में निहित भारत विरोधी मानसिकता और कथानकों को बढ़ावा देकर युवाओं में धीरे-धीरे राष्ट्रीय गर्व को कमजोर और भारतीय परंपराओं को क्षीण कर रही है। शोधकर्ता और बीटेक छात्र समान रूप से एक नेटवर्क में खींचे जा रहे हैं जो वैश्विक और वामपंथी कथानकों को राष्ट्रीय हित के ऊपर प्राथमिकता देता है। इन संस्थानों में शैक्षणिक राजनीति अब इस बिंदु तक पहुँच गई है, जहाँ योग्यता और विद्या की ईमानदारी को एक अपारदर्शी पक्षपात, वैचारिक समर्पण और व्यक्तिगत हेरफेर की संस्कृति द्वारा नकारा जा रहा है।
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व्यक्तिगत संबंधों का करियर उन्नति के लिए उपयोग, भर्ती में पक्षपात, और यहाँ तक कि फैकल्टी और छात्रों के बीच बलात्कारी और हनी-ट्रैपिंग के कथित मामले जैसी अनैतिक प्रथाओं के सामान्यीकरण की खबरें चिंताजनक हैं। ऐसे उदाहरण एक बड़े पैटर्न को स्पष्ट करते हैं जहाँ व्यक्तिगत नेटवर्क संस्थागत नैतिकता और शैक्षणिक योग्यता से ऊपर उठ जाते हैं। व्यक्तिगत राजनीति का और उनके दोगले मापदंड में एआई का अर्थ कृत्रिम बुद्धिमत्ता नहीं है बल्कि आयतुल्लाह की बुद्धिमत्ता और "डीपफेक" को "डीपफेथ" के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
सामाजिक और भाषाई पहचान समूहों का अनौपचारिक लेकिन बढ़ता हुआ प्रभुत्व एक और चिंताजनक विषय है। यह विभिन्न रूपों में आता है जैसे कि भाषाई (बंगाली, तमिल, मलयालम) या धार्मिक (ईसाई और इस्लामी नेटवर्क), जो रणनीतिक रूप से संस्थागत पदानुक्रम में खुद को स्थापित करते हैं। उनका उद्देश्य शैक्षणिक उत्कृष्टता न होकर कैंपस में जेहादी उपनिवेश और वैचारिक नियंत्रण स्थापित करना है। इनमें से कई मौजूदा शोध विषयों को कमजोर करने, कार्यबल में वैचारिक रूप से जुड़े व्यक्तियों को प्रतिस्थापित करने, और उच्च शिक्षा संस्थानों को उनके राजनीतिक सक्रियता के लिए एक मंच के रूप में बदलने की कोशिश कर रहे हैं।
क्या यह स्वायत्तता का दुरुपयोग का मामला नहीं है? ऐसा लगता है। छात्रों के साथ बातचीत से असहज करने वाली बातें प्रकट होती हैं। जैसे फैकल्टी अक्सर सहयोगियों से शादी करके अव्यावसायिक सामाजिक समूहों का निर्माण करते हैं जो अंततः निगरानी का विरोध करते हैं और विकृत गिरोह को बढ़ावा देते हैं। "पृथकीकरण" की यही स्थिति अब इंजीनियरिंग विभागों में भी घुसपैठ कर रही है, जो धीरे-धीरे इन्हें भी उसी वैचारिक निर्दयता से संक्रमित कर रही है।
एक समय में शैक्षणिक उपनिवेश के रूप में शुरू हुआ था, वह अब एक अधिक खतरनाक मोड़ ले चुका है। हमारे प्रमुख संस्थान धीरे-धीरे शहरी नक्सल समर्थकों और कट्टरपंथी सक्रियकर्ताओं के सुरक्षित स्थानों में बदलते जा रहे हैं, जो अकादमिक मंचों का उपयोग करके अपने विचारों को फैलाते हैं और वैकल्पिक आवाजों को चुप कर देते हैं। इन संस्थानों में डिजिटल मीडिया, भारतीय संस्कृति, वैज्ञानिक-धार्मिक संवाद, और वैश्विक ज्ञान अर्थव्यवस्था में सकारात्मक योगदान करने की क्षमता थी। लेकिन इसके बजाय, वे ऐसे शोध का उत्पादन कर रहे हैं जो वैश्विकवादी कथानकों को दोहराता है और भारतीय योगदानों को कम करता है। बड़े झूठ, दोमुंहे बोल, तथ्यों को चुनने, असहमत लोगों की ब्रांडिंग करने और झूठ को बार-बार दोहराने के माध्यम से, वोक-जेहादी शैक्षणिक साम्राज्य युवा भारतीयों के मन को कैद करने की कोशिश कर रहा है। अंतरराष्ट्रीय नेटवर्कों द्वारा समर्थित और संस्थागत पारदर्शिता द्वारा संरक्षित, वे अपने मिशन में आत्मविश्वास और आक्रामक हो गए हैं। आगे बढ़ने का मार्ग हमारे संस्थानों को नष्ट करने का नहीं बल्कि उन्हें पुनः प्राप्त करने का है, वैकल्पिक बौद्धिक पारिस्थितिकी तंत्र बनाने, भर्ती और पदोन्नति की प्रक्रियाओं में सुधार करने, और यह सुनिश्चित करने का कि भारतीय सभ्यतागत मूल्य शैक्षणिक जांच से बाहर न हों। यह लड़ाई केवल प्रशासनिक या शैक्षणिक नहीं है, बल्कि यह सभ्यतागत भी है। भीतर के दुश्मन बाहर के दुश्मनों से अधिक खतरनाक हैं क्योंकि वे बौद्धिक सम्मान की पोशाक पहनते हैं जबकि राष्ट्र की आत्मा को कमजोर करते हैं। आइए हम इस चुनौती के पैमाने को पहचानें, और हम भारतीय संविधान में अंकित विविधता और समावेशिता के तत्वों को बनाए रखते हुए उत्कृष्टता लाने के लिए तेजी, एकता और स्पष्टता के साथ प्रतिक्रिया करें।
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