Poetry: कभी अपकर्ष होता है कभी उत्कर्ष, जारी है | Naya Sabera Network
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कभी अपकर्ष होता है कभी उत्कर्ष, जारी है
कभी अपकर्ष होता है कभी उत्कर्ष, जारी है।।
सफर लम्बा है मंजिल के लिए संघर्ष, जारी है।।
कहाँ जायें किधर जायें स्वयं में डूब जाता हूँ-
सतत् चिन्तन मनन"स्व"से विमर्श जारी है।।
उमंगें हैं तरंगें हैं दिलों में हर्ष जारी है।।
दृगों से अनवरत रसपान और स्पर्श जारी है।।
सनातन धर्म और संस्कृति मिटाई जा नहीं सकती-
ऋषि मुनियों की धरती राम का आदर्श जारी है।।
कर दे तनमन को जो सुरभित गंध होना चाहिये।।
शाख से फूलों का ज्यों अनुबंध होना चाहिये।।
आंकना मुश्किल बहुत है मूल्य रिस्ते नातों का-
स्वार्थ के विपरीत मृदु सम्बन्ध होना चाहिये।।
मटका अगर है खाली संभव नहीं है छलके।।
मन को मसोस करके, बैठे हैं हाथ मलके।।
ग़म के हैं या खुशी के दुनियाँ ये जान लेगी-
निकले हैं किसके आंसू चेहरे बदल बदलके।।
गिरीश जौनपुर
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