Poetry: परिवर्तन......! | Naya Savera Network
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परिवर्तन......!
जिद करते थे हम बचपन में,
लाल-हरे,नीले-पीले गुब्बारों की...
जो मिलते थे फुटकर में ,
शहर-गली और...चौराहे-चव्वारों में..
परिवर्तन का दौर तो देखो....!
हर अवसर पर ये चिपके दिखते हैं...
अब घर-घर की दीवारों में....
जिन हाथों में होते गुल्ली-डंडा,
आज उन्हीं में मोबाइल है....
सच मानो मित्रों....!
कपड़े और रबर वाली...
तब की गेंदों की,
अब तो "वेरी लो" प्रोफाइल है.....
बिन जूते-चप्पल के भी,
तब होते थे हम राजा....
नंगे पाँव से भी हम सब,
कंकड़ को कहते....चल दूर चला जा
भले चोट पर चोट ही खाए जाता था
हम सबका...अपना ही प्यारा पंजा...
इससे अच्छे और खिलौने,
बिकते हैं....आगे के बाजारों में....
ऐसी ही बातों से.....
खुश हो जाते थे हम सब,
लगभग हर मेला- त्योहारों में...
पर तब एक अनोखा व्यवहार रहा,
सबके खिलौनों पर...!
सबका ही अधिकार रहा....
तब तो गाँव-देश के आँगन में ही
सब बनते चोर-सिपाही-राजा
और ठोक-ठोक कर ताली,
खूब बजाते रहते बाज़ा....
मित्रों परिवर्तन का अब दौर तो देखो
पास-पड़ोस के परिवारों में ,
नहीं किसी का अच्छा रिश्ता-नाता है
अब एक दूजे को एक दूजे के प्रति,
अपना समाज ही भरमाता है....
मानो या ना मानो मित्रों....
इन कटु सम्बन्धों का....!
बुरा प्रभाव बाल मन पर जाता है....
ऐसे परिवर्तन के कारण ही...!
बचपन भी अब....खुलकर....
सामने आने से कतराता है...और...
सबका ही प्यारा बचपन....!
बहुत दूर हुआ सा जाता है.....
बहुत दूर हुआ सा जाता है.....
रचनाकार....
जितेन्द्र कुमार दुबे
अपर पुलिस उपायुक्त, लखनऊ