Poetry : अनसुनी की पीर अपनी | Naya Savera Network



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अनसुनी की पीर अपनी(गीत)


अनसुनी की पीर अपनी और तुमको दी बधाई
कौन जाने कौन सी बेला में होती हो विदाई

हम प्रतीक्षारत रहे थे पर समय चलता रहा था
और इस गति में मुझे फिर याद भी तुम आज आई

अनसुनी की पीर अपनी और तुमको दी बधाई
कौन जाने कौन सी बेला में होती हो विदाई

आज जो इकदम अपरिचित, कल वही पहचानती थी
अपना कह पाती नहीं पर अपना ही वह मानती थी
मोह से अपने विवश हो मन से मेरे खेलती थी
खेल की कीमत अकेले इस तरह हमने चुकाई

अनसुनी की पीर अपनी और तुमको दी बधाई
कौन जाने कौन सी बेला में होती हो विदाई

अपना दुख रोकर बताती हम भी रो उठते विकल हो
 कौन सा ताबीज़ टूटा, हो गई मन्नत विफल वो
बंद कमरे की घुटन में ओढ़कर छत मौन हो
आँसुओं को रोककर है सिसकियाँ अपनी छुपाई

अनसुनी की पीर अपनी और तुमको दी बधाई
कौन जाने कौन सी बेला में होती हो विदाई


सत्य अपने मन का तुमसे प्रेम कह कर ही कहे थे
साध्य साधन से परे संवाद सब हितकर रहे थे
भाव मेरे आज भी पावन हैं इस निर्मम जगत् में
और निर्ममता से मैने मन की पीड़ा है दबाई

अनसुनी की पीर अपनी और तुमको दी बधाई
कौन जाने कौन सी बेला में होती हो विदाई

वंदना
अहमदाबाद

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