#Article: ‘जीवन चक्र’ और ‘शक्ति’ को दर्शाता है ‘गरबा’ | #NayaSaveraNetwork

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सुरेश गांधी @ नया सवेरा 

देशभर में नवरात्र की धूम है. शहर-शहर मां की भक्ति में डूबा है. सुबह-शाम घर, मंदिर और पंडालों में मां की पूजा आरती विधि -विधान से की जा रही है. इस दौरान मां के नौ स्वरूपों की आराधना की जाती है. लेकिन गरबा-डांडिया के बिना नवरात्र अधूरा माना जाता है. गरबा यानी ’गर्भ’ या ’अंदर का दीपक’. इसे देवी की पूजा अर्चना का प्रतीक माना जाता है. क्योंकि गरबा मां दुर्गा को पसंद हैं। यही वजह है कि नवरात्र के दिनों में गरबा के जरिये मां को प्रसन्न करने की कोशिश की जाती है। ‘गरबा’ तत्सम ‘गर्भद्वीप’ का तद्भव है। मिट्टी के कुंभ में ढेर सारे छेद बना कर भीतर दीप प्रज्जवलित की जाने की प्रथा है। इस कुंभ को केंद्र में रख महिलाएं ‘गरबा’ करती हैं। इसे देवी की आरती से पहले की जाती है। जबकि डांडिया आरती के बाद होता है और उसमें पुरुष भी नृत्य करते है। हिंदूओं में नृत्य को भक्ति और साधना का एक मार्ग बताया गया है. वैसे भी गरबा को संस्कृत में गर्भ दीप ही कहते है. वर्षों पहले गरबा को गर्भदीप के नाम से ही जाना जाता था. गरबा यानी की गर्भदीप के चारों ओर स्त्रियां-पुरुष गोल घेरे में नृत्य कर मां दुर्गा को प्रसन्न करते हैं. मान्यता है कि गरबा करने के समय महिलाएं तीन ताली बजाकर नृत्य करती है वह तालियां ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करने का तरीका होता है. कहते हैं कि तालियों की गूंज से मां भवानी जागृत होती हैं


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सुरेश गांधी

आदिशक्ति मां अंबे और दुर्गा की आराधना पर्व नवरात्र सिर्फ अच्छाई की बुराई पर जीत का ही प्रतीक नहीं है, बल्कि भारतीय संस्कृति में एकता के प्रतीक के रूप में भी मनाते हैं। देखा जाए तो भक्त इस त्योहार को सिर्फ मां की पूजा करके ही नहीं मनाते, बल्कि पारंपरिक और रंग-बिरंगे कपड़े पहनकर लोक गीत गाकर ‘गरबा‘ और ‘डांडिया‘ भी खेलते हैं। पारंपरिक और रंग-बिरंगे कपड़ों में सजे-धजे बच्चे, युवा, बड़े और बुजुर्ग एक अलग ही अंदाज को प्रस्तुत करते है। इसीलिए घट स्थापना के बाद ही इस नृत्य का आरंभ होता है। गरबा नृत्य में ताली, चुटकी, खंजरी, डंडा मंजीरा आदि का ताल देने के लिए प्रयोग किया जाता है। कहते है लयबद्ध ताल से देवी दुर्गा को प्रसन्न करने की कोशिश की जाती है। जहां भक्तिपूर्ण गीतों से मां को उनके ध्यान से जगाने का प्रयास किया जाता है ताकि उनकी कृपा हर किसी पर बनी रहे। पहले देवी के समीप छिद्र वाले घट में दीप ले जाने के क्रम में यह नृत्य होता था। हालांकि यह परिपाटी आज भी है लेकिन मिट्टी के घट या गरबी की शक्ल अब स्टील और पीतल ने ले ली है।
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जहां तक नवरात्र में ही गरबा या डांडिया करने की प्रथा का सवाल है तो इसके पीछे मान्यता है कि कुंभ हिंदू धर्म के सांस्कृतिक मानस में स्थूल देह का प्रतीक है। ‘फूटा कुंभ जल जलहि समाना।’ अर्थात भक्त रुपी कुंभ एवं गुरु रुपी वह कुम्हार ‘जो गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट’. यानी अपने भीतर छिपे खोट को ढूढ़ निकाले। इसीलिए नवरात्रि के समय कुंभ के भीतर दीप रखकर उसके गिर्द ‘गरबा’ करने का रिवाज है। क्योंकि दीपशिखा हमेशा ऊपर उठती है। जबकि चेतना का भी यही गुण धर्म है। देह के भीतर चेतना उर्घ्वगामी हो, वह मूलाधार में ही न रहे, सहस्नर तक पहुंचे, सारी सृष्टि को आत्मवत् पहचाने! यही वजह है हर गरबा या डांडिया नाईट में काफी सजे हुए घट दिखायी देते हैं। 

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जिस पर दिया जलाकर इस नृत्य का आरंभ किया जाता है। यह घट दीपगर्भ कहलाता है और दीपगर्भ ही गरबा कहलाता है। देवी के सम्मान में भक्ति प्रदर्शन के रूप में गरबा, ‘आरती’ से पहले किया जाता है और डांडिया समारोह उसके बाद। बता दें, नवरात्रि के पर्व में मिट्टी के मटके में दीप प्रज्वलित करते हैं, जिसे ’गरबी’ कहते हैं. इस मटके को मां दुर्गा की शक्ति और ऊर्जा का रूप मान जाता है. इसके चारों तरफ घेरा बनाकर लोग नृत्य करते हैं. जो जीवन चक्र और शक्ति को दर्शाता है. गरबा नृत्य मां के लोकप्रिय गीतों पर किया जाता है. जबकि डांडिया को देवी दुर्गा और महिषासुर के बीच हुई लड़ाई का प्रतीक माना जाता है. डांडिया में इस्तेमाल की जाने वाली छड़ी को मां दुर्गा की तलवार कहते हैं, जो बुराई का विनाशक प्रतीक है. 

  • मां और महिषासुर के बीच लड़ाई का मंचन है डांडिया

गरबा और डांडिया को मां और महिषासुर के बीच हुई लड़ाई का नाटकीय रूपांतर माना जाता है। इसीलिए इस नृत्य में इस्तेमाल की जाने वाली डांडिया स्टीक को मां दुर्गा की तलवार के रूप में माना जाता है। यही कारण है कि इस नृत्य को डांडिया के नाम से भी जाना जाता है। यही वजह है कि डांडिया के लिए रंग-बिरंगी लकड़ी की स्टीक्स, चमकते लहंगे और कढ़े हुए ब्लाउज व कदमों को थिरकाने वाले संगीत की जरूरत पड़ती है। इस नृत्य में सिर के उपर पारंपरिक रूप से सजाए गए मिट्टी बर्तन (गरबी) रखकर प्रदर्शित किया जाता है। गरबा का संस्कृत नाम गर्भ-द्वीप है। गरबा के आरंभ में देवी के निकट सछिद्र कच्चे घट को फूलों से सजा कर उसमें दीपक प्रज्वलित किया जाता है, जो ज्ञान रूपी प्रकाश का अज्ञान रूपी अंधेरे के भीतर फैलाने प्रतीक माना जाता है। इस दीप को ही दीपगर्भ या गर्भ दीप कहा जाता है। यही शब्द अपभ्रंश होते-होते गरबा बन गया। इस गर्भ दीप के ऊपर एक नारियल रखा जाता है। नवरात्र की पहली रात्री गरबा की स्थापना कर उसमें ज्योति प्रज्वलित की जाती है। इसके बाद महिलाएं इसके चारों ओर ताली बजाते हुए फेरे लगाती हैं। गरबा नृत्य में ताली, चुटकी, खंजरी, डंडा या डांडिया और मंजीरा आदि का इस्तेमाल ताल देने के लिए किया जाता है। महिलाएं समूह में मिलकर नृत्य करती हैं। इस दौरान देवी के गीत गाए जाते हैं।

  • संगीत से थिरक उठते है कदम

‘घूमतो-घूमतो जाए, अंबो थारों गरबो रमतो जाए‘, ‘पंखिंडा ओ पंखिडा...‘ जैसे गीतों के बजते ही हर किसी के कदम थिरक जाते हैं। चारों ओर ढोलक की थाप और संगीत में गरबों का जो समां बंधता है, उसे कुछ घंटों क्या पूरी रात करने से भी मन नहीं भरता है। न सिर्फ गरबा करने वाले बल्कि देखने वालों की स्थिति भी यही होती है। जहां तक नवरात्र में ही गरबा या डांडिया करने की प्रथा का सवाल है तो इसके पीछे मान्यता है कि कुंभ हिंदू धर्म के सांस्कृतिक मानस में स्थूल देह का प्रतीक है। ‘फूटा कुंभ जल जलहि समाना।’ अर्थात भक्त रुपी कुंभ एवं गुरु रुपी वह कुम्हार ‘जो गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट’.यानी अपने भीतर छिपे खोट को ढूढ़ निकाले। इसीलिए नवरात्रि के समय कुंभ के भीतर दीप रखकर उसके गिर्द ‘गरबा’ करने का रिवाज है। क्योंकि दीपशिखा हमेशा ऊपर उठती है। जबकि चेतना का भी यही गुण धर्म है। देह के भीतर चेतना उर्घ्वगामी हो, वह मूलाधार में ही न रहे, सहस्नर तक पहुंचे, सारी सृष्टि को आत्मवत् पहचाने! यही वजह है हर गरबा या डांडिया नाईट में काफी सजे हुए घट दिखायी देते हैं। जिस पर दिया जलाकर इस नृत्य का आरंभ किया जाता है। यह घट दीपगर्भ कहलाता है और दीपगर्भ ही गरबा कहलाता है। गरबों का प्रमुख आकर्षण होता है रंग-बिरंगी, चटकीली पोषाकों का। जिसे पहनकर हर कोई माता की भक्ति में रमा हुआ नजर आता है। साथ ही यह आज के युवा वर्ग द्वारा अपनी संस्कृति से जुड़ने का समय भी है।

  • सौभाग्य का भी प्रतीक है गरबा

गरबा को सौभाग्य का भी प्रतीक माना जाता है। इसीलिए महिलाएं नवरात्र में गरबा को नृत्योत्सव के रूप में मनाती है। इस दौरान पति-पत्नी हो या अन्य सभी लोग पारंपरिक परिधान पहनते हैं। लड़कियां चनिया-चोली पहनती हैं और लड़के गुजराती केडिया पहनकर सिर पर पगड़ी बांधते हैं। नवरात्र पर्व मां अंबे दुर्गा के प्रति श्रद्धा प्रकट करने तथा युवा दिलों में मौज-मस्ती के साथ गरबा-डांडिया खेलने और अपनी संस्कृति से जुड़ने का सुनहरा अवसर भी है। नवरात्र में माता का पंडाल सजाकर युवक-युवतियां पारंपरिक वस्त्र कुर्ता-धोती,

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