#Poetry: हे ! कविता | #NayaSaveraNetwork
नया सवेरा नेटवर्क
हे कविता
क्या है कविता
कहां से आती है
कहां को जाती है
पूछते हैं अक्सर लोग मुझसे
वस्तु मनोरंजन की
किसी के लिए है कविता
क्रांति की मशाल
किसी के लिए है कविता
परमात्मा है
हां तुमने ठीक सुना
परमात्मा है
कविता मेरे लिए
उनसे कहता हूं मैं
चलते चलते अपनी पगडंडी में
कौन परमात्मा
वही जो हिन्दू वाला
मुसलमान वाला
भगवान, अल्लाह
नहीं कतई नहीं!!!
वो जिसके बारे में
कुछ भी बोले तुम तो फंसे
बोले तो समझो गलत
ओछा और निरा मिथ्या
भाषा पर काम करो
बिंब साधो
शैली गढ़ो
शब्द शक्ति मजबूत करो
फिर देखो चमत्कार
तुम्हारी कविता होगी शानदार
ऐसा गुणीजन बताते हैं
मतलब कविता की तैयारी
एक अनुष्ठान
एक प्रयोजन
ऐसा गुणीजन बताते हैं
रखो तुम अपनी भाषा
बिंब, शैली और छंदोविधान
मैं उनसे कहता हूं
मैं उनसे कहता हूं
यदि मैने दी परिभाषा
तो निश्चित
व्यर्थ होगी कविता
व्यर्थ हो जायेगा परमात्मा
न समा सकेगी कविता
मेरी इंद्रियों में
मेरी परिभाषाओं में
मेरे वश में
फिर बनाते रहना
मंदिर और गिरजाघर
बनाते रहना भाषा अकादमी
साहित्य अकादमी
पूजते रहना बेजान पत्थरों को
खोखली इमारतों को
गूंगे शब्दों को
उनकी शक्तियों के साथ
अक्सर दिखाई देती है मुझे
सड़क किनारे
डिवाइडर के मध्य
बैठी एक स्त्री
एक भूखी और भिखारन
अपने छह महीने के बच्चे के साथ
जो बैठा है चुपड़े मिट्टी
अपने मुंह में,
अपने पेट में
पूरे बदन में
मिट्टी गीली है मुंह की
लगी हुई उसमें
मुंह से टपकती लार
और मां का दूध
चूती लार
होंठो में पड़ी दूध की बूंदों के मध्य
खिली है एक दंतुरित मुस्कान
उस शिशु की
आवाक हूं मैं देखकर
सन्न हो रहा हूं
खिली हुई दंतुरित मुस्कान में
खिल रहा है एक परमात्मा
खिल रही है कविता
खिल रहा है उसका प्रसाद
बताओ कैसे लिखूं उसकी भाषा
कैसे साधूं बिंब
कैसे गढ़ूं शैली विधान
कैसे पकडूं उस परमात्मा को
कैसे पकडूं उस कविताई को
यही है कविता
जो मुझे खटखटाती है
बार - बार
बार - बार
खोल देता हूँ सांकल
ख़ुद की मैं
दाखिल होती है मेरे अंदर
जैसे दाखिल हो
कोई नवेली दुल्हन
घूंघट काढ़े
सिर झुकाए
चटक महावर लगाए
अपने पैरों में
पिया के घर
जैसे एक खरगोश सा
धूप का टुकड़ा
अनायास घुस जाए
अम्मा की कोठरी में
फिर वहीं बस जाए
अम्मा के सूप में
दुबक कर बैठ जाए
मंद मंद मुस्काए
पसीज जाता हूं मैं
जब भरकर अंक में अपने
वह मुझको थपथपाती है
करता हूँ महसूस कुछ मैं
अपनी रगों में
उसकी हरारत को
उसकी छुअन को
उसकी गंध को
बिल्कुल वही गंध
जो आती है हमेशा
दादी के पल्लू से
थोड़ी सी अचार ,
सरसों का तेल
दही और सिरके
में सनी हुई एक भीनी ख़ुशबू
कविता सजाती है मुझको
मेरे मौन को
मेरी अभिव्यक्ति को
मेरी सार्थकता को
मेरे अंतस को
और उस अंतस की शीलन लगी दीवारों
उसके उधड़े पलस्तर
जाले लगी भीत
दीमक लगे उसके आले को
जैसे सजाए कोई बिसाती
साइकिल में लादे फांदे
अपनी दुकान को
बाला, बुंदा, झुमका
सीप सी चमकदार
काली, पीली, नीली बिंदियों से
चमचमाती कांच की चूड़ियों से
जिनकी राह निहारती
मोहनपुर गांव की नवेली वधुएं
अविवाहित युवतियां
कुछ और छोटी लड़कियां
जिससे गुड्डी कंगन पहनेगी, और
भोलू के लिए खरीदेगी कजरौटा
भोलू उसका छोटा भइया
जो पांच महीने का है
पीछे फागुन में पैदा हुआ है।
जैसे कोई बच्चा सजाए अपना
माटी का घरौंदा
बिल्कुल शीशमहल सा
मैं भी शीशमहल बन जाता हूं
कविता एक बच्चा बन जाती है
भरकर मेरे हिस्से का सत्य
मेरे मरने का
मेरे द्वंद्व का
घुट घुट कर जीने का
सृजन का
विनाश का
स्पंदित करती है रोम रोम
तरावट कविता की
मानो कोई बनारसी केवट
रात चाँदनी में
खेते हुए नाव
गाए ठुमरी
पिया पिया पिया
मोरा जिया ले गयो रे
और बिस्मिल्ला खां
बजा रहे हों शहनाई
गंगा के उस पार
बाबा विश्वनाथ के द्वार
वह कुछ टटोलती है
कुछ खंगालती है
जैसे हो कोई नवजात
अभी अभी जन्मा
रूई के फाहा सा सफेद
थोड़ा लालिमा युक्त
गुनगुना तासीर का
गर्भनाल से जुड़ा
दुनिया को
अपनी बंद मुट्ठी से टटोले
कुछ खंगाले
बंद आंखों से
सब देख ले
सब कुछ
तीनों लोक भी
मिलते हैं उसे
कुछ अंगड़ खंगड़
नीरस बेज़ान शब्द
मरे पड़े है सहस्रशताब्दियों से जो
मेरे अंदर के
छूछें नैराश्य अंतस में
चीख रहे हैं जो
सुना रहे हैं अपनी व्यथा
हे कविता सुनो
सब हिस्से का अपने
दुहते हैं तुमसे
छोड़ देते हैं फिर
घटाटोप अंतहीन मौन में
अब नहीं पोसना
झूठे आदर्श जीवन के
संघर्ष के खण्डहरों में
पड़ा हुआ मृतप्राय
थका सा हारा हुआ मेरा मन
अब लौट आना चाहता है
तुम्हारे पास,
तुम्हारे अंक में
सिर धरकर
सुस्ताना चाहता है
इस अनबूझ पहेली भरी ज़िन्दगी में
अब बस तुम ही मेरा ठौर हो
ठिकाना तुम हो
समा लो अपने मे मुझे
कि जैसे शंकर ने
समाया गंगा को
अपनी जटाओं में
मेरी शंकर बन जाओ
मुझे अपनी गंगा बना लो
ले चलो मुझे
रचयिता के नेपथ्य में
किसी और चरित्र में ढलने को
या फ़िर
और एक बार कठपुतली बनने को
किसी कलन्दर की
मै नाचूंगा
खूब नाचूंगा
इतना कि मेरे नृत्य पर
मासूम बच्चा ताली बजाए
जोर से खिलखिलाए
मिल जाएगी मुझे मेरी
वेदना से मुक्ति उस
दुधमुंहे की लार टपकती गीली हँसी से
धन्य हो जाओगी तुम
सिद्ध हो जाओगी तुम
कृतार्थ हूँगा मैं
मिल जाएगा मुझे मेरा हेतु
मिल जाओगी तुम
हे मेरी कविता
~अभिषेक सुमन