#Article: पतन होती संस्कृति रोगी होते लोग | #NayaSaveraNetwork

नया सवेरा नेटवर्क

आज पूरा विश्व रोग ग्रसित है|कोई ऐसा घर नहीं है जिस घर में दो चार रोगी न हों|आज राशन से अधिक दवा में पैसा खर्च हो रहा है|पहले जब किसी का शिर दर्द ठीक नहीं होता था तो मेडिकल स्टोर या डॉक्टर के पास ही दवा मिलती थी|आज आलम यह है कि हर घर मिनी मेडिकल स्टोर बन गया है|हाल के दिनों में असाध्य रोगों में जबरदस्त उछाल देखने को मिल रहा है|जिसमें मुख्य रूप से शुगर ब्लडप्रेशर,बबाशीर,कैंसर,पथरी,हार्ट अटैक जैसी गम्भीर बिमारियाँ हर घर की मेहमान बनी हुई हैं|

अब आप सब सोंच रहे होंगे कि बिमारियों से संस्कृति का क्या लेना देना|मगर लेना देना है|हम अपनी संस्कृति से जितना ही दूर भाग रहे हैं|नाना प्रकार की बिमारियाँ हमारे घरों में मेहमान बन कर प्रवेश कर रही हैं|आज मांसिक बिमारियों के चंगुल में भी लोग फंस रहे हैं|कई तो फ्रस्टेशन में आत्महत्या तक कर ले रहे हैं|कारण अपनी संस्कृति से दूरी ही है|पूर्व में लोग 5 बजे भोर में हर हाल में बिस्तर छोड़ देते थे|सूर्योदय के पहले नित्य क्रिया से निवृत्त हो लेते थे|सुर्योदय होते होते तक पूजन व्यायाम आदि करके निवृत्त हो आगे की दिनचर्या में लग जाते थे|सुर्यास्त से पहले रात का भोजन कर लेते थे|रात में भोजन नहीं करते थे|जिससे भोजन आसानी से हजम हो जाता था|लोगों की दिनचर्या नियमित थी|वहीं आज तब से सब विपरीत चल रहा है|अर्धरात्रि भोजन,रात के अंतिम पहर में शयन,सुबह का न जगना,12 बजे दोपहर तक सोना,फिर हौले हौले सभी कार्य करना,दिन भर भागते रहना,फिर शरीर को आराम न देना,बिमारियों को आमंत्रण देना ही है|अनियमित दिनचर्या लोगों को रोगी बना रही है|लोग जानते हुए कि बैल मारता है|फिर भी उसे आमंत्रित कर रहे हैं कि आ बैल मुझे मार|तो बताइए बैल की क्या गलती है|पहले हमारी संस्कृति में कोई भी भोज आदि का आयोजन होता था तो सभी लोग मिल जुल कर काम करते थे|हंसी खुशी हर आयोजन को निपटा लेते थे|और पाँत में बैठकर भोजन करते थे|लोग भोजन परोसते थे|उससे दो चार निवाले अधिक भी खा लेते थे|भोजन करते समय शरीर पर वस्त्र नहीं रहता था|जिससे भोजन करते समय की जो अवांछित उर्जा रहती थी वह शरीर से बाहर निकल जाती थी|इसलिए रोग तबके लोगों के पास फटकता नहीं था|आज केटरेस संस्कृति में हम वस्त्र तो दूर की बात हम लोग जूता चप्पल तक नहीं उतारते|पाँत में बैठने की जगह कतार में खड़े खड़े भोजन कर रहे हैं|जो स्वास्थ्य के लिए विल्कुल उचित नहीं है|खड़े खड़े भोजन करने से व पानी पीने से अवांछित उर्जा बाहर की बजाय भीतर घुस रही है|तो बिमारी तो आयेगी ही आयेगी|आज घर का भोजन कम बाहर फुटपाथ होटल आदि का खाना खाने में अधिक गौरव महसूस कर रहे हैं|जिसके चलते नाना तरह की बिमारियों के आगोस में जकड़ते चले जा रहे हैं|गलत खान पान गलत दिनचर्या की संस्कृति जो लोगों ने चलन में लाई है|उसी के चलते बिमारियाँ लोगों में तीब्र गति से पसर रही हैं| 
     पहले जब लोग सुबह उठते थे,तो सूर्य स्नान करते थे|आज कोई नहीं करता|विज्ञान भी कहता है कि सुबह सूर्य स्नान करने से अनेक बिमारियाँ दूर ही रहती हैं|लोगों के नजदीक फटकती भी नहीं हैं|वहीं आज विरला ही कोई होगा जो सुबह का सूर्य स्नान करता होगा|क्योंकि जब लोग सुबह उठते ही नहीं तो सुबह का सूर्य स्नान कैसे करेंगे|इसलिए कहना पड़ रहा है कि पतन होती संस्कृति रोगी होते लोग|
    आज लोग काम नहीं करना चाहते|मेहनत से पसीना नहीं निकालना चाहते|जिससे बिमारियों से ग्रसित होते जा रहे हैं|अपनी कार्यशैली दिनचर्या से भयंकर भयंकर रोगों को आयातित कर रहे हैं|शहरीकरण वाली संस्कृति से बिमारियों को आमंत्रित कर रहे हैं|पहले चरण छूने की जो संस्कृति थी वह आज नहीं है|झुककर जो चरण छूने की संस्कृति थी उसी बहाने शरीर का व्यायाम भी हो जाता था|वो आज हाय बाय में बदल गई है|जिससे लोग बिमारियों के शिकार होते जा रहे हैं|हमारी खान पान की संस्कृति बदल गई है|पहले लोग भोजन से पहले हाँथ पैर धोते थे|आज हाँथ भी धोना जरूरी नहीं समझते|हमें यदि रोगों से दूर रहना है,बिमारियों को पास नहीं फटकने देना है,तो लौटना पड़ेगा अपनी पुरानी स्वास्थ्यवर्धक संस्कृति की तरफ|जो लाभदायी है|जिससे धन और तन की हानि से बचा जा सकता है|अन्यथा कमाई का 75%बिमारियों पर ही जाया होता रहेगा|अधिक पैदावार पाने के लिए खेती की संस्कृति में बदलाव भी रोगों को आमंत्रित कर रहा है|
     आधुनिकता की और पश्चिमी संस्कृति के चक्कर में हम अपनी संस्कृति और संस्कार का पतन करते जा रहे हैं|जो संस्कृति हमारी भोजन करने की थी,उससे हम दूर चले आये हैं|पहले हम पीतल जस्ता ताँबा काॕसा लोहा मिट्टी के बर्तनों का भोजन करने के लिए और बनाने के लिए उपयोग करते थे|बड़े आयोजनों में पत्तल का उपयोग करते थे|आज विरले ही घरों में उपरोक्त बर्तन मिलेंगे|अब इनकी जगह स्टील आल्मोनियम और प्लास्टिक ने ले ली है|जिससे हमारी शरीर को जो तत्व मिलना चाहिए
नहीं मिलता|बड़े आयोजनों में कचरे और केमिकल  से बने हुए पत्तल आदि में आज हम भोजन करने लगे हैं|जिससे हमारा जीवन रोगग्रस्त और संकटमय हो गया है|जो तत्व हमारी शरीर को मिलना चाहिए उससे हम दूर हो गये|जो नहीं मिलना चाहिए वही हम शरीर में ठूँसते जा रहे हैं|इसी सांस्कृतिक ह्रास के चलते आज हम सभी गंभीर बिमारियों के आगोस में जकड़ते जा रहे हैं|और बड़े मजे की बात यह है कि उसी में हम अति प्रसन्न और गौरव की अनुभूति कर रहे हैं|हम अपनी मेहनत की कमाई बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के बहकावे में आकर कुछ उनको कुछ डॉक्टरों को दे रहे हैं|लेकिन अपनी पुरानी संस्कृति की तरफ लौटने के लिए राजी नहीं हैं|इसी पर गोस्वामी तुलसीदास जी की वो पंक्तियां,
जानि जानि नर करइं ढिठाई|
बूड़ा जांइ थाह ना पाई||
बहुत ही सटीक बैठती हैं|
पं.जमदग्निपुरी: 

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