#Poetry: "दौड़" | #NayaSaveraNetwork
नया सवेरा नेटवर्क
"दौड़"
बे-रोज़गार
को एक दिन
उसकी सब डिग्रियाँ
लगने लगती हैं
रद्दी का ढ़ेर
ऐसा ढ़ेर
जिसमें दबी है
माँ-पिता की उम्मीद
प्रेमियों की प्रतीक्षा
उम्मीद का बोझ
उत्साह से
अपने ऊपर
उठाये
वो शामिल हो जाता है
दौड़ में
दौड़ते हुए
भ्रष्ट सिस्टम ने मार दी ठोकर
वो मुँह के बल गिरा
और रद्दी के ढ़ेर का वज़न बढ़ता गया
उसकी दौड़ धीमी होती गई
दौड़
जो एक चक्रव्यूह है
जो सब नहीं भेद पाते
अनायास ही बन जाते
हैं अभिमन्यु...
उसने
अपने जीवन
का वो समय भी
दौड़ में होम दिया
जिस समय
वो
कर सकता था प्रेम...
प्रेम करते हुए
थामता कोई हाथ
बिताता कोई शाम
किसी नदी किनारे
आसमान और लहरों को देखते हुए...
वंदना
अहमदाबाद