नया सवेरा नेटवर्क
एक शाम
डूब रही ढलती
शाम की रंगत और तुम,
एक से हो।
बिल्कुल एक जैसे।
ना पश्चाताप तुम्हें
चिड़ियों के लौट जाने का,
ना ही भान तुम्हें
पथिक के भ्रम का,
उस कोमल नवांकुर का,
जिसे अभी निकलना था।
लेकिन तुमने ढलना ही चुना!
शायद जरूरी हो जीवन में
एक ढलती शाम भी।
जब सजल नैनों से
हम निहार सकें
खामोश अंबर,
गहराते रंग का खौफ,
खुलती यामिनी की पर्तें,
जहां लगेंगे आडम्बरों के मेले।
जो दिए रौशनी देंगे
पर दिया सूरज तो नहीं,
गर बदलना और ढलना
बस फितरत ही है,
तो बदल लेते तुम
अपना स्याह ज़मीर।
जहां लौटने की आस होती,
अंधेरी रातों का हिसाब होता,
फिर ढाल लेते तुम खुद को
पतझड़ के बाद आते बसंत सा।
भूल जाती बेहिसाब
सूखती गिरती पत्तियों का दुःख,
ढक देते पीली चादर हरे सिवान में,
उल्लास के कुछ बौर तो लगते।
अरे हाँ,तुमने क्या चुना?
मसलना,रौंदना और ढल जाना
ये कैसी शाम है?
जहाँ न दिन बीतने का हर्ष
न इन्तजार रात का।
सब स्याह,सब शून्य
जैसे तुम।
बिल्कुल तुम!
प्रतिमा मिश्रा
(सहायक अध्यापिका)
प्राथमिक विद्यालय गयासपुर
विकास-खंड सिरकोनी
जनपद-जौनपुर
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