जियो और जीने दो, आज का विशेष चिंतन | #NayaSaveraNetwork
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श्रीहरि वाणी |
नया सवेरा नेटवर्क
"सनातन" को काल चक्र की परिधि में संकुचित करना सम्भव ही नहीं.. (आधुनिक अर्थ में धर्म मान लेना मेरे विचार से ठीक नहीं, यह तो बिल्कुल स्वाभाविक.. प्राकृतिक, नैसर्गिक न्याय पर आधारित मूल प्रवृति ही है) यह तो शाश्वत- स्वाभाविक - नैतिक - मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठित करने की उस पर चर्चा की बात है, देश - काल - परिस्थितियों हेतु बनाई गयी नित नवीन - गतिमान - काल प्रवाह से समायोजित होती व्यवस्था.. परम्परा की बात है, प्रत्येक वस्तु, जीव का अपना स्वाभाविक गुण - धर्म होता है, वैसे ही मानव मात्र को प्रकृति.. जड़.. चेतन से सामंजस्य पूर्ण व्यवहार की कला को ही आप धर्म कहें या कुछ भी.. यही "सनातन परम्परा" है जो निषेध नही, सामंजस्य के मार्ग ढूंढ़ती है, रही बात.. कालान्तर में विभिन्न विचार, व्यवहार पद्धतियों की, तो उन पर देश काल, परिस्थिति का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही था, गड़बड़ तब हुई ज़ब नासमझी में एक दूसरे पर बलात् अपने विचार - दृष्टिकोण लादने का प्रयास हुआ, इसे ही लोग संप्रदाय, प्रार्थना पद्धति, धर्म आदि समझने लगे, हमारी परम्परा ही सर्व विचार सन्मान की रही.. यहाँ निराकार, साकार, द्वैत - अद्वैत, आस्तिक, नास्तिक ( चार्वाक ),एकेश्वर - बहुदेववादी,शैव, वैष्णव, शाक्त, यक्ष, भिल्ल, किन्नर, देव, बौद्ध, जैन, यांत्रिक, मांत्रिक, तांत्रिक, आदिवासी, भ्रमणशील, नागर, पर्वतीय, औघड़, आभिजात्य, सात्विक, तामसिक, राजसिक, तात्विक, दार्शनिक, व्यवहारवादी, आदर्शवादी, चिंतनशील भौतिकवादी..आदि सभी वैचारिक चिन्तन, परम्पराओं को विचारक्रम में स्वीकारते उस पर चर्चा.. चिन्तन का मार्ग सदैव खुला रहा,
किसी को बलात उससे रोका नहीं गया हाँ अपनी सहमति - असहमति सभी व्यक्त करते रहे,
हमारी प्राच्य सनातन वैदिक परम्परा भी अपने मत को ही अंतिम सत्य न कह.. नेति.. नेति.. कहते भविष्य के चिन्तन हेतु मार्ग खुला छोड़ने की रही..
दैत्य गुरु शुक्र को भी यहाँ सम्मान मिला, वृहस्पति देव गुरु हुए,चार्वाक का नास्तिक दर्शन आज भी पढ़ाया जाता है, यहाँ जो भी आया, उसकी परम्परा - विचार हमने आदर,सम्मान सहित सुना - समझा अवश्य.. जिसे जो ठीक लगे स्वीकारा भी..
कटु आलोचना.. बहिष्कार की जगह उसमे भी तत्व.. सत्व खोजने की शाश्वत परम्परा ही सनातन परम्परा हैं,
इसे संकुचित दायरे में बाँधने..विकृत करने का कोई भी प्रयास, किसी भी स्तर पर अस्वीकार्य निंदनीय..अमानवीय..अप्राकृतिक.. सार्वजनीन न्याय विरुद्ध और अनैतिक है..
कालांतर में मानवीय समाज के ही कुछ बन्धु विश्व के समस्त प्राणियों.. जाति - प्रजाति.. मनुष्यों पर प्रभुत्व जताते समस्त जड़ - चेतन .. प्रकृति.. जल - थल - नभ आदि पञ्च तत्वों पर भी अपना अधिकार जमाने.. वश में कर लेने की होड़ में जुट गए तथा इसे ही "स्वार्थ" की जगह "विकास" का खूबसूरत नाम दे दिया..
सामान्य निरीह लोक मानस और जड़ - चेतन जगत को ठगते , उसका शोषण करने हेतु हमने शोषकोँ के समूह बना लिए.. परम सत्ता द्वारा समस्त जड़ - चेतन को प्रदत्त "अस्तित्व स्वातंत्र्य - संरक्षण के अधिकार " का इन समूहों द्वारा बलात अधिग्रहण होने लगा
इससे हमें बचना ही होगा..वैश्विक संतुलन की रक्षा.. विश्व के समस्त उपलब्ध जड़.. जीव.. प्रकृति का सर्वांग संरक्षण.. सँवर्धन विश्व गुरु के रूप में श्रेष्ठ मानवीय चेतना के शीर्ष पर जा पहुँची हमारी सभ्यता - संस्कृति की जिम्मेदारी है..
इस दायित्व का निर्वहन न करना उस परम चैतन्य सत्ता और भावी पीढ़ियों के प्रति गंभीर अपराध है , यदि हम नहीं सुधरे तो सम्भव है हमारी ही कई पीढ़ियों को इसका दण्ड भी भुगतना पड़े.. जिससे कोई बच नहीं सकता..
आवश्यक होने पर प्रकृति ज़ब स्वयं संतुलन बनाने का प्रयास करती हैं तभी प्रकृति के विरुद्ध हमारे तथाकथित विकास का ढाँचा तहस - नहस होता नजर आता है और हमें लगता है यह तो अनर्थ हो रहा है..
जबकि इस विनाश के बीज हम बहुत पहले ही बो चुके होते हैं.. जो अब याद भी नहीं आते.. हम तो अपनी भौतिक समृद्धि - संचय की शक्ति के बल पर शाश्वत - समयातीत सत्य से भी दो - दो हाथ करने का भ्रम - दम्भ संजोये मदान्ध हो कर मस्त थे ..
नैसर्गिक न्याय बड़े - छोटे सभी पर समान रूप से लागू होता ही है.. इस न्याय के पथ पर हमारी समस्त भौतिक समृद्धि - अर्जित , संचित संसाधन - पद - प्रतिष्ठा - वैश्विक पकड़.. पहुँच..सब धूल - धूसरित हो जाते हैं और बचाव का एक ही मार्ग दिखता है....जियो और जीने दो
श्रीहरि वाणी
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