ग़ज़ल | #NayaSaveraNetwork
नया सवेरा नेटवर्क
ग़ज़ल
अँधेरा रास्ता रौशन नहीं था
वो मेरा दोस्त था दुश्मन नहीं था
मुझे पहचानने में चूक मुम्किन
कोई चेहरा मेरा दर्पन नहीं था
बदल जाने का ये मौसम नहीं था
उदासी थी अकेलापन नहीं था
ज़रूरत तक सिमट कर रह गया था
खिलौनों से भरा बचपन नहीं था
वो बंजर भूमि पर कब तक ठहरते
बसेरे में जहाँ जीवन नहीं था
मैं जिसमें भीगकर आँसू छुपाती
मेरे हिस्से में वो सावन नहीं था
ज़हर टीके में कैसे आ गया अब
विषैले साँप थे, चंदन नहीं था
कोई हमसे हमारा वक़्त माँगे
नहीं मिलते, हमारा मन नहीं था
2)मेरी कश्ती भँवर में , गुज़ारा कहाँ
मेरे नाविक ने मुझको उतारा कहाँ
जिनके तिनके उड़ा ले गई आँधियाँ
डूबने वालों को फिर सहारा कहाँ
क्या हृदय मार कर जी सकोगे कहो
ज़िंदगी फिर मिलेगी दोबारा कहाँ
जिसको पाकर के तुम ऐसे इतरा रहे
सब लिया दूसरों से तुम्हारा कहाँ
रीत-रस्मों को हम तोड़ देते वहीं
आपने मुड़के हमको पुकारा कहाँ
सिर चरण में चढ़ाकर सफल होओ तुम
वंदना को हुआ ये गँवारा कहाँ
3)एक क्षण में टूटती कितना बनाऊँ बार-बार
डूबकर अपनी ही लय में पार आऊँ बार-बार
अपनी तो आदत में ये शामिल नहीं है देख ले
लोग क्यों ये चाहते मैं सिर झुकाऊँ बार-बार
तन्हा मुझको छोड़कर के जाने वाले जब मिलें
मैं उन्हे देखूँ तो मुड़कर मुस्कराऊँ बार-बार
खींचकर जंजीर जब भी हद बने तो यूँ करूँ
पाँव अपने उस ज़गह से फिर उठाऊँ बार-बार
जा रहे हो तुम मुझे ठोकर लगाकर जिस तरह
वो तुझे ठुकराये तो मैं याद आऊँ बार-बार
मन नहीं करता तो अब आवाज़ भी देते नहीं
बंद दरवाजों पे दस्तक क्यों लगाऊँ बार-बार
जब मेरे दुर्भाग्य का आकार गढ़ना देवता
तोड़ना इस हद तलक मैं टूट जाऊँ बार-बार
वंदना
रिसर्च स्कॉलर, गुजरात युनिवर्सिटी, अहमदाबाद।