आज का आदमी ! | #NayaSaveraNetwork
नया सवेरा नेटवर्क
गआज का आदमी
मादरी जबान से कट रहा आज का आदमी,
अंग्रेजी में नाक ऊँची कर रहा आज का आदमी।
ऊपर से नीचे तक का लिबास चाहिए विदेशी,
अपनी ही पहचान भूल रहा आज का आदमी।
अपने दिल की जमीं पे बो रहा विदेशी संस्कार,
खुद का संस्कार भूल रहा आज का आदमी।
पामाल होती जा रही आम इंसान की आबरू,
इज्जत नहीं चुन रहा आज का आदमी।
भटक रहा इंसान बहुत कुछ पाने के लिए,
गाँव-देश खुद भूल रहा आज का आदमी।
इंसान बनना जैसे अब कोई चाहता नहीं,
फरिस्ता बताने में जुटा आज का आदमी।
ऐब और हुनर से तो वो भरा पड़ा है,
आदमी के पहनावे में न मिलता आज का आदमी।
मौसम की तरह बदल रहा वो अपनी जुबान,
तन्हा है तभी तो भीड़ में आज का आदमी।
युद्ध में नष्ट हो रही आदमी की अच्छी नस्ल,
नहीं युद्ध से पीछा छुड़ा रहा आज का आदमी।
एक तरफ है कुआँ, तो दूसरी तरफ है खाईं,
पराई आँच पे रोटी पका रहा आज का आदमी।
हुस्नवालों की नजर से बचने में कितने उम्र गुजारे,
आग-पानी में गोते लगा रहा आज का आदमी।
सुबह होने तक इसी अंदाज में बात करो,
मंगल-चाँद पे बस्ती बसा रहा आज का आदमी।
रामकेश एम. यादव, मुंबई
(रॉयल्टी प्राप्त कवि व लेखक)
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