साहित्यकार ऋषि होता है: पं. जमदग्निपुरी | #NayaSaveraNetwork

नया सवेरा नेटवर्क

सबसे पहले तो सभी कवियों साहित्यकारों को खुद को ऋषि बनाना पड़ेगा|जब तक आप में ऋषित्व नहीं आ जाता तब तक आप पूर्ण रूप से साहित्यकार नहीं बन सकते|स्वघोषित भले बन जांय|या कुछ चाटुकार व निज धन बल से भले आप साहित्कार की पदवी लिए अहंकार में घूमें|बड़े बड़े मंचो पर आपकी पूँछ भले बढ़ जाय|लेकिन साहित्यकार के पैमाने में फिट तभी बैठेंगे,जब आपमें ऋषित्व होगा|क्योंकि साहित्य और साहित्यकार दोनों समाज का आइना होते हैं|आपके ही लिखे हुए लेख कहानी कविता के माध्यम से लोगों की जीवन शैली बनती और बिगड़ती है|आप समाज को जीने रहने का तरीका सिखाते हैं|आपके ही सूत्र से संसार चलता है|आप जन के झंडाबरदार हैं|आपकी ही लिखी बातों से लोग सीखते हैं|आपकी ही लिखी कहानी कविता ग्रंथ से शिक्षक स्वस्थ समाज का निर्माण करता है|आप शिक्षकों के भी शिक्षक हैं|क्योंकि शिक्षक भी आपको पढ़कर ही शिक्षक बनता है|इसलिए साहित्यकार को ऋषि की तरह निर्मल छल पाखंड अहंकार से दूर रहना चाहिए|क्योंकि लोग आपके लेख के जरिए आपकी छबि अपने हृदय में धारण करते हैं|यदि आपकी कथनी करनी में अंतर है तो आप साहित्यकार नहीं है|आपकी कथनी करनी में यदि अंतर है आपका आचरण यदि आपके लेख से मेल नहीं खाता है तो समाज पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है|

         महाभारत में एक प्रसंग है|पितामह भीष्म से मिलने के लिए द्वारिकाधीश यदुकुलभूषण भगवान माने जाने व कहे जाने वाले श्रीकृष्ण जी हस्तिनापुर पहुँचे|भगवान श्री कृष्ण जी ने पितामह भीष्म जी का चरण छूकर प्रणाम किया|पितामह भीष्म जी ने बड़े सौम्य भाव व अपनत्व से कहा कि कृष्ण तूँ क्यों प्रणाम करता है,तूँझे आशिर्वाद की क्या जरूरत है|तूँ तो सर्वग्य सर्वव्यापी है|तूँ तो भगवान है|तूँ तो दाता है गोपाल|भगवान श्री कृष्ण जी ने बड़ी ही सहजता से उत्तर दिया|पितामह मैं मानव रूप में अवतरित हुआ हूँ|तो मेरा कर्तव्य है कि मानव द्वारा किए जाने वाले हर कार्य को सुचारु रूप से करूँ|यह समाज मुझे अपना नायक मानता है|आप भी मुझे ईश्वर कह रहे हैं|तीनो लोक मुझे भगवान कह कर सम्बोधित करता है|मुझे सारा जन समुदाय अपना मुखिया मानता है|इसलिए वह मेरा अनुशरण भी करेगा|जब वो मेरा अनुशरण करेगा तो मुझे उसके सामने एक दृष्टांत बनकर रहना पड़ेगा|मेरे किसी भी ऐसे कार्य से समाज में गलत संदेश न जाय,इसका ध्यान मुझे विशेष तौर पर रखना पड़ेगा|इसलिए मैं अपने से बड़ों का आदर करता हूँ जिससे समाज भी अपने से बड़ों का आदर सम्मान करे,मेरा अनुशरण करते हुए|कहने का मतलब ए कि यदि आप झंडाबरदार बन रहे हैं तो पहले श्रीकृष्ण जी की तरह बनिए|

       हमारे जितने भी शास्त्र ग्रंथ इत्यादि रचे गये हैं,सभी ऋषि मुनियों द्वारा ही रचे गये हैं|आज हमारा जीवन उसी आधार पर चल रहा है|लोग उन्हीं ऋचाओं का उनके ही द्वारा प्रदत्त जीवन शैली को लेकर चल रहे हैं|जो उनके द्वारा प्रदत्त जीवन शैली से इधर उधर गया उसका जीवन नारकीय बन गया|उन ऋषि मुनियों ने इतना ज्ञान अर्जित कर धन नहीं कमाया|न उसे धन कमाने का जरिया बनाया|वो शास्त्र ग्रंथ वेद पुराण आदि लिखे तो अपने लिए नहीं समाज के लिए लिखे|उनका चिंतन सदैव समाजोपयोगी रहा|निर्लेप भाव से वो अपनी लेखनी द्वारा समाज को सही दिशा देते रहे|जबकी उनका भी परिवार था|फिर भी उन्होंने धनार्जन के लिए एक भी ग्रंथ नहीं लिखा|लिखा तो सिर्फ समाज के लिए|

       वहीं आज बहुत से ऐसे साहित्यकार हैं जो सिर्फ धनार्जन के लिए ही लिख रहे हैं|इसलिए उनकी कथनी करनी में बहुत अंतर है|ऋषित्व भाव तो है ही नहीं|चमचई और गुटबाजी तो कूट कूट के भरी है|धनार्जन के लिए सबकुछ त्याग दे रहे|धर्म विमुख कार्य कर रहे|अपनी भाषा से विमुख और की भाषा का प्रसार कर रहे हैं|कई तो इतने अहंकारी हैं दम्भी हैं कि अपने और अपनी विद्वत्ता आगे किसी को कुछ समझते ही नहीं|किसी की सुनते ही नहीं|बस चाटुकारिता चमचई गुटबाजी से कुछ धन अर्जित कर लिए हैं,इसी गुमान में बकवादी भी बन गये हैं|कुछ तो दूसरे की रचना को अपने नाम पढ़ रहे हैं|कई तो शराब शबाब के चक्कर में चक्कर काट रहे हैं|और समाज ऐसे ही लोगों पर धनवर्षा भी कर रहा है|क्योंकि समाज को ऐसा बनाया जा रहा है उपरोक्त कुव्यसनी कथित साहित्यकारों द्वारा|ऐसे लोग ऐसे साहित्यकार समाज को क्या देंगे|यही कि चमचई करो गुटबाजी करो चाटुकारिता करो|शराब शबाब के चक्कर समाज को विद्रुप बनाओ|जिस साहित्यकार का  हर काम हर प्रयास धनार्जन में लगा हो|इस तरह के लोग साहित्कार नहीं हो सकते न हैं|ये धन के पीछे समाज को गर्त में ढकेल रहे हैं|आज देखिए इनके ही चलते इनकी ही देखा देखी समाज कुसंस्कारी होते जा रहा है|आने पीढ़ी संस्कार विहीन होते जा रही है|छोटे बड़े का भेद ही मिटता जा रहा है|समाज धीरे धीरे राक्षसी प्रवृत्ति का होते जा रहा है|क्योंकि जैसा लोग पढ़ेंगे वैसा ही बढ़ेंगे|जैसा देखेंगे वैसा ही गढ़ेंगे|भगवान श्री कृष्ण जी ने कहा है|यह मानव जो है|गलत चीजों का ही भंडारण अधिक करता है|इसलिए इसे सही रास्ते पर लाने के लिए सबसे पहले मुखिया को सही होना पड़ेगा|यदि मुखिया ही विदूषक होगा तो समाज उससे दो कदम और आगे निकल जायेगा|

     उसी तरह यदि आप साहित्यकार हैं तो आपको पहले ऋषि बनना पड़ेगा|समय का पालन जिसमें पहली शर्त है|आप जहाँ बुलाए गये हो वहाँ समय से पहुँचिए|जिससे आपके कारण आयोजक को तकलीफ न हो|आपके कारण आयोजन में पधारे लोगों का अपमान न हो|किसी भी आयोजन में गये तो बिना सम्पन्न किए वहाँ से मत निकलो|अपने कनिष्ठों को अधिक अवसर दो|उनका उत्साहवर्धन करो हतोत्साहित मत करो|अपनी सूझ बूझ से उसे तैयार करो,क्योंकि आपके न रहने पर वही आगे समाज का आइना होंगे|आपके इन्हीं आचरणों को देखते हुए आपके कनिष्ठ सीखेंगे|और अपने जीवन में उसे उतारेंगे|आपके शालीन व्यवहार से ही सभ्य समाज का निर्माण होगा|यदि आप साहित्यकार कहलाना नहीं बनना चाहते हैं|तो सबसे पहले अपको ऋषि बनना पड़ेगा|छल दम्भ पाखण्ड से दूर रहना होगा|निर्मल बनना पड़ेगा|द्वेश रहित सरल और सहज बनना पड़ेगा|यदि आप ऐसा नहीं बन पाते हैं,दिग्भ्रमित हैं,तो झंडाबरदार बनके समाज को दिशाहीन मत बनाइए|साहित्यकार बनना है तो पहले ऋषि बनिए|अब ऋषि बनने का ये मतलब मत निकाल लेना कि घर बार छोड़कर परिवार से अलग रहकर ऋषि बनना पड़ेगा|यह गलत धारणा है|इतिहास साक्षी है,हमारे जितने भी प्राचीन ऋषि हैं सबके सब अपने परिवार के साथ रहे हैं|उन्हीं की वंशावली अब भी चल रही है|हम उन्ही का अनुशरण करते हुए खुद जब ऋषित्व प्राप्त कर लेगें तो हम भी ऋषि बन जायेंगे|जब ऋषि बन जायेंगे तो साहित्यकार बने बनाये हैं|

     जब तक आप कलम नहीं उठाये हैं,जब तक आप दो अक्षर समाज के लिए नहीं लिखे हैं,तब तक आप निजी जीवन में हैं|जैसे ही आप कलम उठा दो अक्षर लिखना शुरू किए,आपका जीवन निजी नहीं रहेगा|आपकी सोंच आपका आचरण आहार व्यवहार सब सार्वजनिक हो जायेगा|तब से आपको सार्वजनिक तौर पर जीना पड़ेगा आपकी सोंच सबसे अलग है बृहद है|आपके आहार विहार का समाज अनुशरण करने लगता है|इसलिए आपको सुचितापूर्ण जीवन जीना पड़ेगा,तभी आप सही मायने में साहित्यकार अपने आपको माने|अन्यथा साहित्कार होने का सिर्फ ढिढोरा ही होगा बन नहीं पायेंगे|माना कि जीवन चलाने के लिए धन आवश्यक है|मगर कलम को जरिया मत बनाइए|कलम को जरिया बनायेंगे तो कुछ भी समाज को परोसने लगेंगे अंट संट ऊल जलूल|क्योंकि तब आप सिर्फ धन के लिए लिखेंगे|समाज के लिए नहीं लिख पायेंगे|और विद्रुप समाज का निर्माण करेंगे|हमारे ऋषियों ने जो हमें दिया है निर्लेप भाव से हम साहित्यकारों का कर्तव्य है हम भी आने वाली पीढ़ी को निर्लेप भाव से दें|जिससे आने वाली पीढ़ी सभ्य समाज का निर्माण कर सके|जैसे हम अपने विगत साहित्यकारों का अनुशरण कर आगे बढ़ रहे हैं|वैसे ही हमारा अनुशरण करते हुए आने वाली पीढ़ी आगे बढ़ेगी|इसलिए हमें सुचिता पूर्ण लेखन के साथ आचरण को भी बनाना पड़ेगा|समाज को दिशा देने से पहले खुद को दिशाहीनता से बचना होगा|ऋषियों की तरह जीना होगा|ऋषि बनना होगा|

पं.जमदग्निपुरी


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