- नहीं रहा अब गांव में सुकून
नया सवेरा नेटवर्क
मैं तुलसी तेरे आंगन की यही फिल्म आने वाली थी रात को, दिन शायद शुक्रवार का था। पूरे गाँव में मुश्किल से एकाध टी.वी. रही होगी। मेरे यहाँ खुशियों का मेला लगा हुआ था कारण आज सेकेंड हैंड बड़ी सी शटर वाली टी.वी. आ गई थी। जी भर कर निहारा जा रहा था टी.वी. को जैसे नई बहुरिया अभी-अभी उतर रही हो ससुराल में। टी.वी. आई पूरे गाँव में खुशियाँ एक साथ दौड़ आई। तब अपने पराए का भान नहीं था किसी में। पूरा गाँव एक घर जैसा होता था। बनती हुई सब्जी की महक किसी भी घर से आए बैठ जाओ खाने, बाकी मट्ठा दही था ही छक कर पीने हेतु। पूरे गाँव में बस और बस टी.वी. और उसकी चर्चा ही थी। खान-पान नास्ते तक में टी.वी. और बस टी.वी.। झूलन ददा सबसे पहले बैठ कर अपना स्थान रोक चुके थे।
लोग बाग जल्दी से खा पीकर टी.वी. वाले दालान में टूट पड़े। बड़े से बल्ब के पीली रोशनी में दमकते सभी के चेहरों पर बस और बस टी.वी. ही नजर आ रही थी। फूल माला चढ़ाया गया, अगरबत्ती बगल में रखे आलू में खोंसते हुए धीरे-धीरे हौले-हौले से शटर खोला गया। बटन दबाते ही बड़ी सी बत्ती जल उठी, लोग उछल पड़े। फिल्म मैं तुलसी तेरे आँगन की चल रही थी। अंधेरे में भी सबके चेहरे खिल उठे, रेणू का पूरा गाँव मेरे दालान में सिमट आया था। अभिनय से अनभिज्ञ लगभग सभी के चेहरों पर सुख-दुख सुबह-शाम की भांति लग रहा था। अभिनय के साथ ही सभी के भाव भी जुड़-घट रहे थे।
बमुश्किलन पांच मिनट बीता होगा भुर्र------भुर्र...भुभूं... आवाज के साथ पतली सी नीली सफेद रेखा काले स्क्रीन के बीच में तैरने लगी। परेशानी सभी के पेशानी पर चमकने लगा। आगे क्या होगा? आगे क्या होगा? अब कैसे? जैसे तमाम प्रश्नों का पहाड़ सभी के बीच आ खड़ा हुआ। कोई बंद करके चालू करने को कहता तो कोई बगल से पीटने की बात करता। गाँव के सभी झोलाछाप इंजीनियर अपने-अपने तरकीब आजमाने लगे पर टी.वी को नहीं चलनी थी, नहीं चली। भैया और उनके मित्र रात को ही प्रिया स्कूटर पर लाद कर ले गए टी.वी. को, मिस्त्री परिचित था समय कोई समस्या नहीं थी। बस मैं तुलसी तेरे आँगन की.. सबके जेहन में चल रही थी, लोग अपने में ही सिमट गए। चारों तरफ फिर से पसर गया सन्नाटा।
इंतजार की घड़ी लंबी होते देख लोगों के आंखों में नींद आने लगी। सपने सबके धराशाई हो गए। दालान में जो जहाँ था वहीं झपकियां लेने लगा। कुछ ही देर बाद बिजली भी गुल हो गई। सिर्फ झाँय-झाँय की आवाज समझ में आ रही थी चारों तरफ। बड़कवा सियार के कारनामों का भी हो हल्ला था। अभी कुछ ही दिनों पूर्व बकरी खींच ले गया था बड़कू के गोरुवारे से। खौफ़ भी उफान पर था पर आज टी.वी. ने सब को पीछे छोड़ दिया था। दरवाजे पर पंचायत बैठ गई। फिल्म और टीवी पर लच्छेदार टिप्पणियां जारी होने लगी। किसी के मामा के यहाँ तो किसी के ससुराल में पहले ही आ चुकी थी टीवी, लोग बड़ी-बड़ी हाँक रहे थे पर बीच-बीच में कान लगाकर प्रिया की आवाज भी सुनने की कोशिश कर लेते, कुछ तो रह-रह कर कोलिया भी झाँक ले रहे थे। करीब सवा बारह बजे टीवी आई दालान फिर भर गया। सभी सन्न निगाहें बस टीवी पर। टीवी चालू तो हुई पर फिल्म समाप्त हो चुकी थी।
लोग मायूसी लिए अपने घर को चल दिए कल किसी नये फिल्म के उद्देश्य के साथ। लोगों के शोरगुल के बीच बड़े भैया का डर कहीं दब सा गया था। भैया रास्ते में किसी बड़ी सी परछाईं को देखकर डर गए थे, परछाईं लगातार उनके आगे-आगे चल रही थी। धुन तो भैया को भी फिल्म का ही था, कुछ देर परछाईं पर ध्यान भी नहीं दिए पर धीरे-धीरे धुन उतर गया और ध्यान परछाईं पर ही आ गया। लगातार कई दिनों तक बुखार से पीड़ित रहे भैया। टी.वी. को अशुभ मानते हुए बेच दिया गया। कुछ दिनों तक गाँव फिर सुकून में रहा जब तक कि श्याम के घर नई टीवी नहीं आ गई। सुकून अब गाँव में भी नहीं रहा।
पंकज तिवारी
संपादक- बखार कला पत्रिका एवं
कवि, चित्रकार, कला समीक्षक
नई दिल्ली।
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