राष्ट्रभाषा बिना राष्ट्र गूंगा होता है | #NayaSaveraNetwork

लेखक: रामकेश एम. यादव, मुंबई।

नया सवेरा नेटवर्क

हिंदी की अनदेखी को रोकने के लिए 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिंदी दिवस बड़े ही हर्षोल्लास ढंग से मनाया जाता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के दो साल बाद ही 14 सितम्बर, 1949 ईसवी को संविधान सभा द्वारा आधिकारिक भाषा के रूप में एक ध्वनिमत से इसे पास किया और 26 जनवरी, 1950 ईसवी को देश के संविधान द्वारा इसे आधिकारिक भाषा की मान्यता प्रदान की गई तब से एक राष्ट्रीय पर्व के रूप में इसे 14 सितम्बर को पूरे देश में तथा दुनिया के अन्य देशों में पखवाड़े के रूप में मनाते है। हिंदी के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करनेवाली हस्तियों को इस शुभ अवसर पर पुरस्कारों से नवाज़ा भी जाता है।  स्कूल-कॉलेज में हिंदी को बढ़ावा देने वाले विद्यार्थियों को भी पुरस्कृत किया जाता है। 

संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के तहत यह स्पस्ट किया गया है कि भारत की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी है। हिंदी भाषा के अतरिक्त अंग्रेजी भाषा का प्रयोग भी सरकारी कामकाज में किया जा सकता है। अनुच्छेद 343 (2) के अंतर्गत यह भी व्यवस्था की गई कि संविधान के लागू होने के समय से 15 वर्ष की अवधि तक अर्थात 1965 तक संघ के सभी सरकारी कार्यों के लिए पहले की भाँति अंग्रेजी भाषा का प्रयोग होता रहेगा। तत्कालीन यह व्यवस्था इसलिए की गई थी कि इस बीच हिंदी न जानने वाले हिंदी सीख जायेंगे। आज देश को आजाद हुए 75 साल  पूरे हो गए फिर भी इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा पाने के लिए तरसना पड़ रहा है, ये हैरत की बात है। 

देश की 140 करोड़ जनता में कुछ अच्छी, तो कुछ कम अच्छी हिंदी अपने रोजमर्रा के जीवन में बिना किसी दबाव के इस्तेमाल कर कर रही है, तो उसे राष्ट्रभाषा घोषित करने में इतनी हिचक क्यों? वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारत के अलावा दुनिया के अन्य देशों में जैसे मारीशस,नेपाल,फिजी,यूगांडा, कैरिबियन,ट्रिनिडाड, टोबेगो, कनाडा के अलावा  इंग्लैंड, अमेरिका तथा मध्य एशिया के कई देशों

 में हिंदी खूब बोली और समझी जाती है। अपने उत्पादों को बेचने के लिए कंपनियां टीवी चैनलों पर प्रचार करवाती हैं और उसके पीछे मोटी कमाई भी करती हैं। हमारी हिंदी देसी कहावतों, मुहावरों, किस्से-कहानियों से भरी पड़ी है। आज के प्रतिस्पर्धा के क्षेत्र में हिंदी जाननेवालों को विजेता बना ही देती है।

सतही स्तर पर भी अगर देखा जाए, तो प्रौद्योगिकी से लेकर रोजगार देनेवाली नये दौर की तमाम रचनात्मक विधाओं में हिंदी का बोलबाला है। हिंदी रोजगार की,बाज़ार की कमाऊ भाषा बन गई है इसलिए अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी जाननेवाले अभिमान के साथ कह रहे हैं, हिंदी हमारे माथे की बिंदी है। देश के अलावा विदेशों में भी हिंदी सीखने की ललक दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। आज दुनिया के 260 देशों से अधिक विश्वविद्यालयों में हिंदी भाषा पढ़ाई जा रही है। आजकल दूसरी भाषाओं पर जहाँ संकट के बादल छा रहे हैं, भाषाएँ विलुप्त हो रही हैं, वहीं हमारी हिंदी दिनोंदिन अखिल विश्व में फल -फूल रही है, यह हमारे लिए गर्व की बात है। विदेशों के बच्चे जहाँ ग्रैजुएट, पोस्ट ग्रैजुएट और पीएचडी हिंदी में कर रहे हैं, वहीं भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता को समझने में भी दिलचस्पी ले रहे हैं। उसी हिंदी के बल पर भारतीय नौकरी भी पा रहे हैं। रोजगारपरक हमारी हिंदी बिजनस हिंदी के पाठ्यक्रम भी चला रही है। वैश्विक स्तर पर स्वरोजगार संभावनाओं के नित्य नये द्वार खुल रहे हैं। ऑनलाइन हिंदी शिक्षण के निजी पाठ्यक्रम स्वरोजगार की दिशा में एक महत्वपूर्ण वैश्विक प्रयास है। संचार-सूचना प्रौद्योगिकी में दिनोंदिन बढ़ रही हिंदी की उपयोगिता और अनिवार्यता अधिक से अधिक कार्यसक्षम युवाओं को रोजगार दिला रही है। ऑनलाइन शॉपिंग और मार्केटिंग नित्य-नये आयाम खोल रही है। सिनेमा जगत ने हमारी हिंदी को जो बढ़ावा दिया, कृतज्ञ राष्ट्र उसकी भूरी -भूरी प्रसंशा करता है।

इंटरनेट के इस युग ने हिंदी को वैश्विक धाक जमाने में नया आसमान मुहैया कराया है। दुनिया में हिंदी के बोलने -समझनेवालों की संख्या में वेबसाइट हिंदी को तवज्जो दे रही है। ईमेल, ईकॉमर्स, ईबुक, एसएमएस एवं वेब जगत में हिंदी को बड़ी ही सहजता से पाया जा सकता है। माइक्रोसॉफ्ट, गूगल  जैसी कंपनियां हिंदी के प्रयोग को खूब बढ़ावा दे रही हैं। हिंदी के बहुत से कार्यक्रम बीबीसी सहित दुनिया के अन्य देशों से प्रसारित हो रहे हैं। 

 बड़े ही खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि कुछ लोग हिंदी की कमाई खाकर अंग्रेजी का यश गाते हैं, उन्हें लाल कहें या दलाल कहें, आप पर छोड़ते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो इंग्लिश न आने और हिंदी बोलने के कारण खुद को दूसरों से कमतर  समझ लेते हैं। बहुत से ऐसे भी लोग हैं जो हिंदी बोलने पर शर्मिंदगी महसूस करते हैं और स्वयं को नाकामयाबी से जोड़कर देखते हैं लेकिन आज देश और दुनिया में ऐसे बहुत से लोग हैं जो हिंदी से न केवल प्रेम करते हैं बल्कि इस पर गर्व भी करते हैं। उन्हीं लोगों के प्यार और विश्वास के कारण आज हिंदी दुनिया के तीसरे नंबर की सबसे ज्यादा बोली जानेवाली भाषा बन गई है।  इस तरह हमें खुद इस राष्ट्रभाषा को बढ़ावा देने के लिए अधिकाधिक रोजमर्रा के कामों में इसका सदुपयोग करना चाहिए। सम्मान करने से ही इसके सम्मान में उत्तरोत्तर बढ़ोत्तरी होगी। अंग्रेजी की चमक-दमक के पीछे भागने से बचना चाहिए। अपनी राष्ट्र-भाषा के बिना कोई भी राष्ट्र स्वयं को अधूरा -सा महसूस करता है। गर्व से हमें हिंदी पढ़ना, लिखना और बोलना चाहिए। हिंदी का सम्मान, देश का सम्मान है। यहाँ देखनेवाली बात ये है कि यही हमारी प्यारी, दुलारी हिंदी राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान एक ध्वज के नीचे समूचे देशवासियों को एक जुट भी की थी।

 सात समंदर पार से आए फिरंगियों को दूर देश भगाने में कामयाबी भी पाई थी। हाथ में तिरंगा लिए और हिंदी के गीत गाते आंदोलनकारी खुशी-खुशी फांसी के फंदे पर झूल जाते थे वहीं दूसरी तरफ लाठी, गोली खाकर, जान हथेली पर रखकर आंदोलनकर्ता निडर आगे बढ़ते जाते थे जब तक उनके अंदर सांस रहती थी। क्या जोश,  क्या राष्ट्रभक्ति, उन सपूतों के अंदर कूट -कूटकर भरी थी। किस मिट्टी के वो आज़ादी के दीवाने बने थे! देश के उन दीवानों को सल्यूट ! और तब और अब के नेताओं मैं भारी अंतर देखने को मिल रहा है, यह देश के लिए शुभ संकेत नहीं है, चिंता की बात है। तो हिंदी देश आज़ाद करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इसमें संशय नहीं। 

 अनेकता में एकता की मिसाल कायम करनेवाली हमारी हिंदी सभी अन्य भाषाओं के फूलों को एक में गूँथकर समूचे देश में अपनी सुगंध बिखेर रही है। निश्चित रूप से तमिलनाडु व अन्य गैर हिंदी राज्यों को इसके दर्द को समझना चाहिए और राह में आनेवाली दुश्वारिओं को जमींदोज करते हुए राष्ट्र हितार्थ उचित कदम बढ़ाना चाहिए। महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक सहित देश के अन्य बड़े महान पुरुषों ने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाने की अपनी मंशा जताई थी। कोई भी राष्ट्र अपनी राष्ट्रभाषा बिना गूंगा होता है। आमचाल की भाषा अर्थात जन-भाषा ही राष्ट्र भाषा का दर्जा  पाती है, हालांकि शिक्षा के शुरुआती दौर में शालेय बच्चों को अपनी मातृभाषा में ही शिक्षा लेनी चाहिए अगर उन्हें अन्य थोपी गई भाषा में शिक्षा देने का काम हो रहा हो, तो इस तरह की शिक्षा बच्चों के लिए जानलेवा साबित हो सकती है। इसके पीछे उनके सीखने की मौलिकता भी नष्ट हो जाती है। 

ये बात सिद्ध हो चुकी है किसी भी देश का बच्चा अपनी मातृभाषा में सबसे ज्यादा सीखता है। इस तरह किसी विदेशी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना राष्ट्र का दुर्भाग्य होता है। बिना मातृभाषा के उन्नति के बिना किसी भी समाज या देश की तरक्की संभव नहीं। अपनी मातृभाषा जाने बिना मन की पीड़ा भी दूर नहीं हो सकती। व्यक्ति चाहे जितनी भाषाएँ सीख ले, पर सोचता है वह अपनी ही भाषा में। पराई भाषा में किसी भी तरह का मौलिक चिंतन नहीं हो सकता। इसी के चलते आज दुनिया के सभी विकसित देश अपनी भाषा में ही पढ़ते हैं दूसरे की भाषा में पढ़कर सिर्फ नकलची पैदा होते हैं। इस तरह राष्ट्रीय एकता और स्थायित्व के लिए राष्ट्रभाषा की अनिवार्यता किसी भी राष्ट्र के लिए अत्यंत आवश्यक है।

 अपना विचार दूसरों तक पहुँचाने के लिए संवाद जरूरी होता है और संवाद के लिए भाषा का होना अत्यावश्यक होता है। राष्ट्र की एकता और अखंडता इससे महफूज़ रहती है। इस तरह किसी भी राष्ट्र की पहचान उसकी भाषा और उसकी संस्कृति से होती है। हमारी हिंदी में वो सारे गुण धर्म व तत्व मौजूद हैं जो हरेक को एकता के सूत्र में बांधने के लिए होना चाहिए। हिंदी के अंदर जोड़ने की वो कूबत है कि लोग खुद-ब खुद इससे दिनोंदिन जुड़ते जा रहे हैं। यह भाषा न तो तमिल की विरोधी है और न तो अंग्रेजी की। ये तो सभी को तवज्जो देती हाथ से हाथ मिलाती सबके सुख में अपने सुख की जमींन तलाशती है। आइये,इस हिंदी दिवस पर ये संकल्प लें कि हम इसे और भाषाओं से जोड़ें तथा ज्यादा से ज्यादा वार्तालाप और लेखन कार्य हिंदी में ही करें क्योंकि यह राष्ट्र की आत्मा है। 

(रॉयल्टी प्राप्त कवि व लेखक)

लेखक: रामकेश एम. यादव, मुंबई।

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