कविता: फ़िक्र जहां की! | #NayaSaveraNetwork

नया सवेरा नेटवर्क

फ़िक्र जहां की!

बेवजह दिल दुखाना मुनासिब नहीं,

जग में नफरत बढ़ाना मुनासिब नहीं।

फूल खिलते रहें सारी दुनिया में यूँ,

बैठी तितली उड़ाना मुनासिब नहीं।


धरती नभ से मिले ये तो मुमकिन नहीं,

तोड़ ढूँढों नहीं,  ये मुनासिब नहीं।

कोई कुदरत के हक़ को मिटाने लगे,

फ़िक्र हो न जहां की मुनासिब नहीं।


मौत खामोश कर देगी एकदिन मुझे,

पर हुनर को भुलाना मुनासिब नहीं।

घर में बैठो नहीं,घर से निकला करो,

तन को रोगी बनाना मुनासिब नही।


जिसने पैदा किया है अदब तो करो,

वृद्धाश्रम ले जाना मुनासिब नहीं।

जिन दरख्तों ने छाया दिया है तुम्हें,

जड़ से उनको हिलाना मुनासिब नहीं।


रात हँस -हँसके बातें करे तो करे,

नूर उसका चुराना मुनासिब नहीं।

वक़्त आए वतन पे लुटा दो तू जाँ,

मौत कुत्ते -सी मरना मुनासिब नहीं।


दूसरों का जो कांटा निकाला करे,

कांटा उसको धसाना मुनासिब नहीं।

तुम परी से मिलो या मिलो हूर से,

रोज कूचे में जाना मुनासिब नहीं।


कितने सूली चढ़े,कितने खाए गोली,

उनपे उंगली उठाना मुनासिब नहीं।

शाख-ओ-गुल पे महकती कलियाँ बहुत,

गर्म हाथों से छूना मुनासिब नहीं।


हौसला तुम परिंदों का तोड़ो नहीं,

क़ैद पिंजड़े में करना मुनासिब नहीं।

आज पौधा है दरख़्त कल हो जाएगा,

उसकी रितुएँ चुराना मुनासिब नहीं।


सारे मसले सुलझते न तलवारों से,

रोज नश्तर चुभाना मुनासिब नहीं।

जिन्दगी जो मिली है, मिलेगी हँसी,

रोज दिल को दुखाना मुनासिब नहीं।


प्यार तुम भी करो, प्यार हम भी करें,

रोज उसको सताना मुनासिब नहीं।

कितना मासूम है वो बेचारा अभी,

रोज दावत उड़ाना मुनासिब नहीं।


भौंरे मदहोश होते कली देखकर,

उनके पर को कुतरना मुनासिब नहीं।

टूट जाएगी साँसों की डोरी सुनों,

फिर से मरहम लगाना मुनासिब नहीं।


जाएका जिस्म का चाहे ले लो मगर,

रुख से परदा हटाना मुनासिब नहीं।

थकके टूटे जो घुँघरु  फिर बाँधों नहीं,

उसको जबरन नचाना मुनासिब नहीं।


बात बीते जमाने की करो ही नहीं,

चीरकर दिल दिखाना मुनासिब नहीं।

उम्रभर इश्क चलता है देखो मगर,

कतरा -कतरा अब रोना मुनासिब नहीं।

रामकेश एम. यादव, मुंबई

(रॉयल्टी प्राप्त कवि व लेखक)



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