नया सवेरा नेटवर्क
धूप सेंकने वो आती नहीं!
आओ कुछ काम करें हम भी जमाने के लिए,
कोई रहे न मोहताज अब मुस्काने के लिए।
लुप्त होने न पाए संवेदना इंसानों की,
कुछ तो बची रहे इंसान कहलाने के लिए।
सुनो, जालिमों हुकूक मत छीनों मजलूमों का,
कभी न सोचो इनका हुनर दफनाने के लिए।
उसकी आदत है वो रोज नया गुल मसलता है,
ऐसा भी ये ठीक नहीं दिल लगाने के लिए।
आओ लौट चलें हम अपने संस्कारों की तरफ,
फिर से अपना दिल ये चीरकर दिखाने के लिए।
दर्द का अंधेरा न लील जाए उजाला कहीं,
गम में सूरज जल रहा चलो बचाने के लिए।
उम्रभर कौन हसीन और कौन जवाँ रहता है,
चलो चलें उस मन से वो गर्दा हटाने के लिए।
धूप सेंकने वो आती नहीं कि हम आँख सेंकें,
जिन्दगी है खफ़ा चलो उसे मनाने के लिए।
इन बादलों को बरसने का सलीका तक नहीं,
सुलग रही है कितनी जवानी नहाने के लिए।
दिल दुखाओ नहीं नदियों, पर्वतों, पंखुड़ियों का,
कुदरत इन्हें बनाई है दिल बहलाने के लिए।
रामकेश एम. यादव, मुंबई
(रायल्टी प्राप्त कवि व लेखक)
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