बातुल भूत फिरइं मतवारे | #NayaSaveraNetwork
नया सवेरा नेटवर्क
आज कल देखने में यह आ रहा है कि लोग कुंठा में अधिक जी रहे हैं। जिनको क का मतलब सही ढंग से नहीं पता है वो वेद शास्त्रों में दोष गिनाने बैठे हैं। ग्रंथो के पुनर्लेखन की बात कर रहे हैं। जिनको ढंग से निकर धोना नहीं आता वो भी ज्ञानदेव बने घूम रहे हैं। आजकल तुलसीदास को लोग सिखाने का माद्दा लिए घूम रहे हैं। अब इन विद्वानों को कौन बताये कि पहले ढंग से ग्रंथों का अध्ययन करो फिर बहस करो। मगर नहीं ये तो वही कहेंगे जो इनका जड़ नेता कह दिया। ऐसे विद्वानो के लिए ही शायद तुलसीदास जी ने इस सोरठे को लिखा।
फुलहिं फरइं न बेंत, जदपि सुधा बरषहिं जलधि
मूरख हृदय न चेत, जउ गुरु मिलहि विरंचि सम
ऐसे लोगों को समझाना मतलब पत्थर पे शिर मारना। एक किस्सा है। दो पड़ोसी कुछ जमीन के हिस्से के लिए लड़ रहे थे। क्योंकि एक ने एक के हिसाब से अपना खूँटा उसकी जमीन में गाड़ दिया। अब पंचायत जुटी मौके पर देख भाल हुई,पंचो ने खूँटा गाड़ने वाले से कहा आप गलत कर रहे हो। पंचायत का फैसला है कि आप अपना खूँटा उखाड़कर अन्यत्र गाड़िये। तो जानते हैं खूँटा गाड़ने वाले ने क्या कहा। उसने कहा पंचो आपकी बात सही है मैं मानता हूँ। पर खूटा तो वहीं रहेगा जहाँ पर गड़ा है।
मतलब ये कि जानते सभी हैं कि ताड़ना का अर्थ निगरानी करना है पर मानेगें नहीं यही जड़ता विद्यमान है आज के अज्ञानी महा विद्वानो में शूद्र का अर्थ है मजदूर,पर उसे जाति से जोड़कर बैाठाया जा रहा है। ये गलती तुलसी की है कि आज के विद्वानो की। मजदूर तो कोई भी हो सकता है। इसमें जाति कहाँ है। ड्राइवर कोई जाति होती है। नहीं न। फिर वाहन चालक को केवल ड्राइवर ही क्यों कहते हो। जबकी उसकी भी आज के चलन के अनुसार कोई न कोई जाति होगी नाम होगा। पर हम सब उसे ड्राइवर ही कहते हैं। क्योंकि वो उस पेशे में है। पेशा जाति नहीं होती। जाति तो तीन है नर, मादा और उभयलिंगी। इसके अलावां सब पेशा है। यदि एक ब्राह्मण का लड़का मिठाई बनाने का काम कर रहा हैै। तो दूर से आने वाला व्यक्ति उसे हलवाई ही कहेगा|वैसे ही मजदूरी करने वाले को मजदूर ही कहेगा। न की ब्राह्मण या शूद्र। जाति का निर्धारण हमारा सनातन धर्म नहीं करता। न ही हमारे शास्त्र कभी इसका समर्थन करते हैं। मैं चैलेंज के साथ कहता हूँ कोई आये और बताये गीता रामायण आदि ग्रथों में कहाँ जातीय वर्णन है। किस पात्र के आगे जाति का सम्बोधन है। हां उस मानव के कामानुसार संवोधन अनेकों बार मिल जायेगा। गाँधि क्षत्रिय थे पर उन्हीं के पुत्र विश्वामित्र ब्राह्मण कहलाये। वर्ण व्यवस्था को कुछ रजवाड़े और रानेताओं ने अपने निहितार्थ हम भारतीयों पर जाति बनाकर थोप दिया। और हम लोग उसी के आधार पर लड़ मर खप रहे हैं। हमारे ऊपर शासन करने के लिए आदि काल से तरह तरह के हथकंडे अपनाये गये और अपनाये जा रहे हैं कोई भी व्यवस्था राजा निर्धारित करता है न कि साधू सन्यासी या ब्राह्मण। यदि आप लोगों के हिसाब से माना जाय तब तो भारत को कब का हिन्दूराष्ट्र बन जाना चाहिए था। यदि ब्राह्मण ही सबकुछ तय करता है तो अबतक आपलोग हो कैसे आप लोगों तो अन्यत्र होना चाहिए थाऔर यह देश आर्यावर्त न होकर ब्राह्मणावर्त होता।
इसका मतलब ए है कि जबतक सरकारें नहीं चाहेंगी या करेंगी तब तक कोई भी न धर्म बन सकता है न जाति। ए सब कुछ सरकार के हाँथ में रहता है। उदाहरण के तौर पर चीन को देख लो। इजराईल को देख लो मुस्लिम देशों को देख लो। समझ में आ जायेगा। यदि तब भी न समझ पाओ तो इसमें हमारे मनीषियों का दोष नहीं है।
पं. जमदग्निपुरी
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