नया सवेरा नेटवर्क
अब रहते नहीं परिन्दे!
क्यों ख़त्म कर रहे हो मेरे खुशबुओं का डेरा,
अब रहते नहीं परिन्दे, उनका नहीं बसेरा।
सब कुछ दिया है हमने, लेना मुझे न आता,
मेरी पेड़ की है दुनिया,तू क्यों मुझे रुलाता?
चंदा की चाँदनी भी देखो हुई है घायल,
वादी सिसक रही है, दिखता न वो नजारा।
अब रहते नहीं परिन्दे, उनका नहीं बसेरा।
क्यों खत्म कर रहे हो मेरे खुशबुओं का डेरा,
अब रहते नहीं परिन्दे, उनका नहीं बसेरा।
अब गाती नहीं हवाएँ, गाता नहीं है झरना,
रिश्ते नहीं महकते धरती का जो है गहना।
काँटे नहीं धंसाओ फूलों की डालियों में,
धो डालो मेरा आँसू लाओ नया सबेरा।
अब रहते नहीं परिन्दे, उनका नहीं बसेरा।
क्यों खत्म कर रहे,हो मेरे खुशबुओं का डेरा,
अब रहते नहीं परिन्दे, उनका नहीं बसेरा।
जो नूर था बरसता, वो खाक हो रहा है,
धरती का जो था साया,अब राख हो रहा है।
अमराइयाँ न ढूँढो तू, कंक्रीट के वनों में,
बागों का हुआ सौदा, हमने उसे न घेरा।
अब रहते नहीं परिन्दे, उनका नहीं बसेरा।
क्यों खत्म कर रहे हो मेरे खुशबुओं का डेरा,
अब रहते नहीं परिन्दे, उनका नहीं बसेरा।
रामकेश एम.यादव (कवि,साहित्यकार),मुंबई
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