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Varanasi News: स्मृतिशील होना लोक का सबसे बड़ा प्रमाण है: प्रो. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव ‘परिचयदास’



‘जो रियाज करेगा वो राज करेगा’: पंडित डॉ. विजय कपूर 

नया सवेरा नेटवर्क

वाराणसी। भोजपुरी अध्ययन केन्द्र, कला संकाय, बीएचयू के तत्वावधान एवं बीएचयू की कला संकाय प्रमुख प्रो. सुषमा घिल्डियाल के संरक्षण और प्रो. प्रभाकर सिंह तथा डॉ. शान्तिस्वरूप सिन्हा के संयोजकत्व में 17 से 23 नवम्बर 2025 तक सात दिवसीय अंतरविषयक राष्ट्रीय कार्यशाला का आयोजन भोजपुरी अध्ययन केन्द्र, बीएचयू में किया जा रहा है। इस कार्यशाला का विषय ‘भोजपुरी लोकगीत और चित्रकला पाठ : गायन : चित्रांकन’ है। इस राष्ट्रीय कार्यशाला के आयोजन सचिव डॉ. अम्बरीष कुमार चंचल हैं। दिनांक 17 नवम्बर को उद्घाटन सत्र का आयोजन सम्पन्न हुआ। विश्वविद्यालय की रीति अनुसार कुलगीत का गायन मंच कला संकाय की कु. अलका, कु. निवेदिता, और शोभिता पाण्डेय ने किया।


 उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. सुषमा घिल्डियाल कहती हैं कि इस कार्यशाला का जो कार्ड है उसे देखकर प्रतीत होता है कि कला संकाय के अन्दर कला का समागम है। यह कार्ड संगीत मंच कला संकाय और दृश्य कला संकाय का समागम है। यह कार्यशाला लोक की संस्कृति को गूढ़ता से जानने का प्रयास है। यह प्रयास गुरुतर है। हम इसके माध्यम से लोक के तत्वों को जान पाएंगे।

वाचिक स्वागत उद्बोधन करते हुए भोजपुरी अध्ययन केन्द्र के समन्वयक प्रो. प्रभाकर सिंह ने कार्यक्रम को गति प्रदान किया। उन्होंने बताया कि इस कार्यशाला का उद्देश्य जनपदीय अध्ययन और अंतर अनुशासनिक अध्ययन को बढ़ावा देना है। जनपदीय अध्ययन के प्रसिद्ध विद्वान प्रो. वासुदेवशरण अग्रवाल ने लिखा है कि जनपदीयता में प्रवेश करते हुए हम तीन चरणों से गुजरते हैं। पहले हम जन के बारे में जानते हैं, फिर भूमि के बारे में उसके पश्चात् जन संस्कृति के बारे में। कुमार गंधर्व कहते हैं लोक संगीत से शास्त्रीय संगीत बनता है। लोकगीत और लोकधुन में श्रम संस्कृति का चित्र झलकता है। लोक को वही जान सकता है जो लोक में पैठा होता है। गाँव के जिस व्यक्ति को दो सौ लोकगीत याद है वह चलता फिरता इनसाइक्लोपीडिया है। लोक को समझने के लिए चेतना सम्पन्न ज्ञान की आवश्यकता है। लोक में अश्लीलता नहीं होता यह तो बाजार और पूंजी में होता है जो लोक को अपने गिरफ्त में लेना चाहता है।


दृश्य कला संकाय के डॉ. शांतिस्वरूप सिन्हा ने कार्यशाला की रूपरेखा प्रस्तुत की। उन्होंने बताया कि लोक शास्त्र की आत्मा है, जननी है। क्योंकि शास्त्र ने जो कुछ पाया है उसे परिष्कृत किया है। शास्त्र की सीमा है और लोक असीमित है। इस कार्यशाला का प्रयास है कि आधुनिकता के दौर में लोक को संजोया जाय। जब हम लोक से बिछड़ते हैं तब संस्कार से बिछड़ते हैं जब संस्कार से बिछड़ते हैं तब हम आत्मा से बिछड़ते हैं और जब हम आत्मा से बिछड़ते हैं तब हम संवेदना को खो देते हैं, संवेदनाविहीन हो जाते हैं। इस कार्यशाला में चित्र और वक्तव्य साथ साथ चलेंगे ताकि हम चित्रों की लोक ध्वनि को समझ सकें। यह कार्यशाला दो खण्डों में है। लेकिन ये दोनों ही खण्ड एक दूसरे से अखंडित हैं। लोक में द्वंद्व का अपना माधुर्य है। लोक को पढ़ा नहीं जाता बल्कि जीया जाता है। लोक को जीना होता है। इस कार्यशाला का महती उद्देश्य है लोक से लोकमन को, लोक आस्था को जोड़ना।

नव नालंदा विहार से पधारे मुख्य अतिथि प्रो. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव ‘परिचयदास’ कहते हैं कि भोजपुरी की माटी भारती लोक की माटी है। भोजपुरी की माटी को आप मगही का भी मान लीजिएगा, मैथिली का भी मान लीजिएगा, अवधी का भी मान लीजिएगा। भोजपुरी संस्कृति के क्षेत्र के साथ साथ ही विचार के क्षेत्र में भी उपजाऊ है। जब हम लोक की बात करते हैं तो केवल गांव की बात नहीं करते। शहर का भी अपना लोक होता है, कस्बे का भी लोक होता है यहाँ तक कि किताबों का भी लोक होता है। जहां सामान्य आदमी जिस चीज़ का संस्पर्श करता है वह उसकी संस्कृति का अंग बन जाय वह भी लोक है। लोक अब केवल हमारे परम्परा का विषय नहीं रहा। लोक अब एक स्वायत्त निकाय है। धरती की आधारशिला है। लोकगीतों में दृश्यात्मकता होती है। राम के तिलक का एक गीत सुनाया। 

‘गाई के गोबरा से अंगना लिपईली रघुनंदन हरि गजमोती चउका पुरईबो सुना हो गजनंदन हरि’। उन्होंने आगे बताया संगीत भाव रचना का ही संवाद है। शब्द, स्वर और दृश्य एक दूसरे में घुल मिलकर जीवन का अर्थ पूरा करते हैं, इसे ही लोक की संवरणशीलता कहते हैं। लोककला किसी चीज़ का चित्रीकरण कर देती है। दृश्यकला लोकगीतों को और लोकगीत दृश्यकला को प्रेरित करते हैं। स्मृतिशील होना लोक का सबसे बड़ा प्रमाण है। संगीत केवल ध्वनि नहीं है बल्कि अनुभूतिशास्त्र है। अनुभव करना और महसूस करने में अंतर है। अगर लोक को बचाना हैं तो भाषा को बरतिए। भाषा कल्पना और फैंटेसी से बचती है। सीताकांत जी ने कहा लोक जुड़ा हुआ है स्वतः ही जोड़े हुए है। स्त्री लोक की सबसे बड़ी संरक्षिका है। जाता चलाते हुए जो वह गाती है वह कविता भी है, संगीत भी है और चित्र भी है। कोहबर का चित्र विभिन्न भावना को व्यक्त करता है। स्थानीयता लोक का सबसे बड़ा प्रमाण है। लोक में स्मृति के महत्व को रेखांकित की आवश्यकता है।

विशिष्ट अतिथि संगीत एवं मंच कला संकाय प्रमुख प्रो. संगीता पण्डित कहलीन ई सभा में हमार सबनी के राम राम। ई पुरान बनारस के बारे में बतउलीन ऊ गोहरी वाला बनारस, ऊ दूध वाला बनारस। भोजपुरी बोली, लोक बोली क मिठास हम उपशास्त्रीय गायन गाते हुए जान पईली। भारतीय परम्परा और संस्कृति एकांगी नहीं है। एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। संगीत चित्र से जुड़ा हुआ है, चित्र संगीत से, स्थापत्य से जुड़ा हुआ है। उन्होंने आगे बताया कि मानव द्वारा प्रत्यक्ष अनुभव ही लोक है। आचार्य भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में लोकधुन के लिए ‘जाति’ शब्द का प्रयोग किया है जिसे आज हम राग कहते हैं। ‘मंगल गाओ , चौक पूराओ, प्रेम पिया घर आएं’ चौक पूरन गीत के विषय में भी इन्होंने बताया। शिवमंगल लाल जी ने खेले मसाने में होली जैसा प्रसिद्ध गीत गाया है। उन पर इस अध्ययन केन्द्र में काम भी हुआ है। सुन्दरी रामशरण नाम जी की मॉरीशस की भोजपुरी विदूषी के बेटे प्रहलाद शरण जी ने एक लोकगीत की किताब भेंट की थी। 

‘झूला धीरे झुलावा सुकुवांरी सिया हो’ गीत सुनाया।

टोना का गीत, ‘ललन पर टोनवा जिन कोई डारे हो’।

‘गंगा द्वारे बधाईया बाजे, पिया’ गीत को सुमधुर वाणी में गाया। निःसंदेह वे प्रसिद्ध उपशास्त्रीय लोक गायिका हैं। गीतों को जब हम रागों में सजाते हैं तब उसमें आत्मा का संचार होता है। राग का एक अर्थ मंजन भी है जो मन को रंगने वाला है।

उद्घाटन सत्र का आभार ज्ञापन डॉ. अम्बरीष कुमार चंचल और संचालन श्री कृष्ण कुमार तिवारी ने किया।

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तत्पश्चात् कला संध्या का आयोजन कवि, आलोचक एवं हिंदी विभाग, बीएचयू के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. सदानंद शाही की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। 


नालन्दा विहार से शिरकत कर रहीं भोजपुरी चित्रकार वंदना श्रीवास्तव ने वक्तव्य देते हुए चित्रकला की प्रस्तुति की। उन्होंने बताया कि भोजपुरी कला बारह मासी कला है। पौष, माघ, चैत्र, वैशाख। वैशाख मास में अक्षय तृतीया मनाया जाता है। कोई काम को करने हेतु इस दिन किसी मुहूर्त की आवश्यकता नहीं होती। ज्येष्ठ में वट पूजा होती है। श्रावण महीने से भोजपुरी त्यौहारों की झड़ी लग जाती है। नाग पंचमी, रक्षाबंधन। भाद्रपद में, हरितालिका तीज, कजरी तीज मनाई जाती है। अश्विनी मास में शारदीय नवरात्रि आती है। हम दुर्गा जी की प्रतिमा और उनके दस भुजा में दस शस्त्र हैं जो अलग अलग प्रतीकात्मक महत्व रखते हैं। भोजपुरी कला में पक्षियों को संरक्षित करने की कला है। गरुण को देवता बना दिया। हंस जो सरस्वती जी का सवारी है। दाम्पत्य जीवन को सफल बनाने के लिए पति को मोर की तरह होना चाहिए। उल्लू में एक ऐसी शक्ति है जो यह बताता है कि हम रात में भी देख सकते हैं। हाथी ऐश्वर्य का प्रतीक है इसलिए हम हाथी को संरक्षित करते हैं। बन्दर को हनुमान जी से, काला कुत्ता को भैरव जी से जोड़ दिया। घोड़ा जो चेतक हुआ हमारी माताओं ने उन्हें पहले से संरक्षित किया। सर्प अपनी केंचुली छोड़ देता है। यानि इसी जीवन में नए जीवन की प्रवेश यात्रा शुरू करना। अशोक वृक्ष कई सालों तक ज़िन्दा रहता है। बरगद और गणेश जी को दूर्वा। यह दूर्वा थी जो अशोक वाटिका में मां सीता को संरक्षित किए हुए थी। आंवला विटामिन सी से भरपूर। एकादशी को तुलसी जी की पूजा जो गुणों की खान हैं, औषधि है। बांस का वंश कभी खत्म ही नहीं होता। हम ऐसा चाहते हैं कि जीते जी हमारे बच्चे कभी ख़त्म न हो। भोजपुरी कला में चित्रांकन का पूरा संसार है। यह पुष्प और वनस्पतियों को भी संरक्षित करती है। यह ज्यादातर ज्यामिति पर आधारित कला है। जाता केवल वस्तु नहीं बल्कि जीवन का आधार था। कुआं पूजना क्योंकि कहा जाता है कुआं का जल कभी सूखता नहीं है। ढोलक पूजना सुख का प्रतीक है। भोजपुरी कला में रंगों के महत्व के बारे में भी उन्होंने बताया। गेरूआ जो एक दवाई का भी काम करता है। 


सुपरिचित गायक पण्डित डॉ. विजय कपूर ने भोजपुरी लोकगीत की प्रस्तुति की। उन्होंने बताया कि मिर्जापुर में कजरी का घराना है। कजरी बनारस में शास्त्रीय संगीत के माध्यम से प्रवेश करती है। सुगम संगीत में भजन, ग़ज़ल, गीत है। चैती लोक कलाकार सीधे भाषा में गाते हैं। ‘जाईब देवी के दुवरिया हो रामा होत भोरहरिया।’ को शास्त्रीय संगीत और लोक संगीत दोनों रागिनी में गाकर इन दोनों में अंतर बताया। उन्होंने कहा कि जो रियाज़ करेगा वो राज करेगा।

‘अरे रामा मोर मचावे सोर, सवनवा आईल ऐ हरि’ लोकधुन में गाते हुए तबले पर पंकज जी और दर्शक दीर्घा लोकसंगीत में झूम रहा था। 

‘राज जनक जी के बाग में अलबेला रघुवर आयो जी’

संगत में संगीत एवं मंच कला संकाय बीएचयू के डॉ. पंकज राय थे।

कला संध्या का संचालन भारत अध्ययन केन्द्र के डॉ. अमित कुमार पाण्डेय ने किया। अमित जी ने कहा कि प्रो. सदानंद शाही जो भोजपुरी अध्ययन केन्द्र के संस्थापक हैं, साक्षात् भोजपुरी हैं। जो कुछ अनगढ़ है वह लोक है जो गढ़ दिया गया वह शास्त्र है। लोक आपका अपना घर है जहां जाते ही आपकी सारी विशिष्टताएं खत्म हो जाती हैं।

कार्यक्रम में श्री राधाकृष्ण गणेशन जी, श्री राम अवध जी, डॉ. उर्वशी गहलौत, डॉ. महेन्द्र प्रसाद कुशवाहा, डॉ. विंध्याचल यादव, डॉ. उदय प्रताप पाल, शहर समता के संपादक शैलेन्द्र जी सहित भारी मात्रा में शोधार्थियों और विद्यार्थियों की उपस्थिति रही।

लेखन : कु रोशनी उर्फ़ धीरा, शोध छात्रा, हिन्दी विभाग, बीएचयू 

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