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Varanasi News: भोजपुरी चित्रकला : चौक पूरना और श्रम संस्कृति

नया सवेरा नेटवर्क

वाराणसी। भोजपुरी अध्ययन केन्द्र, कला संकाय, बीएचयू के तत्वावधान एवं बीएचयू की कला संकाय प्रमुख प्रो. सुषमा घिल्डियाल के संरक्षण और प्रो. प्रभाकर सिंह तथा डॉ. शान्तिस्वरूप सिन्हा के संयोजकत्व में 17 से 23 नवम्बर 2025 तक सात दिवसीय अंतरविषयक राष्ट्रीय कार्यशाला का आयोजन भोजपुरी अध्ययन केन्द्र, बीएचयू में किया जा रहा है। इस कार्यशाला का विषय ‘भोजपुरी लोकगीत और चित्रकला पाठ : गायन : चित्रांकन’ है। इस राष्ट्रीय कार्यशाला के आयोजन सचिव डॉ. अम्बरीष कुमार चंचल हैं। 

स्वागत वक्तव्य भोजपुरी अध्ययन केन्द्र के समन्वयक प्रो. प्रभाकर सिंह ने दिया। उन्होंने बताया कि इस कार्यशाला में साहित्य, संगीत और चित्रकला का संगम है। इन तीनों तत्वों का संगम इस कार्यशाला का प्रयास है। कलाओं के अंतर्संबंधों पर बातचीत होगी। इसके साथ ही दक्षिण भारत से लेकर उत्तर भारत तक में चौक पूरने की कला के बारे में बताया जाएगा। 


कार्यशाला की अध्यक्षता कर रहें हिन्दी के कथालोचक प्रो. नीरज खरे ने कहा कि चौक पूरन का विस्तृत सन्दर्भ है जो जीवन और जगत से जुड़ता है। जो कहीं नहीं आता वह चौक में आ जाता है। चौक में आने वाले तत्व और वस्तु मनुष्य जीवन के अनिवार्य तत्व हैं। जो जीवन में है वह अनिवार्य है। चौक में मूर्तिकला के साथ साथ चित्रकला भी शामिल है। यह कार्यशाला इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि हमारी नई पीढ़ी इसमें शिरकत कर रहीं हैं। लेकिन आज हम उस जीवन में नहीं रह रहे हैं। हम टाइल्स पर किस प्रकार की अल्पना बनायेंगे। हमारी पुरानी पीढ़ी उस जीवन को जीती थी उस कला को जीती थी। चौक एआई नहीं बना सकता है। उसके बारे में बता सकता है लेकिन बना नहीं सकता।कृषि संस्कृति और पशु संस्कृति से कलाओं का घनिष्ठ सम्बन्ध है। गाय का खूर बनाना, जानवरों के पैर बनाना। देवथान एकादशी ऐसा लोकपर्व है जहां पुरोहितों की अनिवार्यता नहीं है। लोकपर्व में पुरोहितों की अनिवार्यता नहीं है। लोककथा और चित्रकला का गहरा सम्बन्ध है। राम सीता से ज्यादा राधा कृष्ण और शिव पार्वती लोक कलाओं में अधिक दिखाई देंगे वहां उनकी व्याप्ति अधिक है।

महिला महाविद्यालय के हिन्दी विभाग की हेड डॉ. उर्वशी गहलौत जी ने बताया कि शादी विवाह में पुरइन का पत्ता आता था। पुरइन अर्थात् कमल।

शादी में कहते थे लोग ‘पूरइन क पात, सब अंगना में पसरे’ पसरने से तात्पर्य है फूले फले और समृद्ध रहें। 

चौक पूरना के बारे में बताते हुए उन्होंने बताया कि एक विवाह हेतु चौक पूरा जाता है और दूसरे देव पूजा हेतु भी। चौक पूरन गेहूं के आटे से भी बनाया जाता है और चावल के आटे से भी। पीला रंग भी इसमें आता है। चौक पूरना अर्थात् पूर्ति करना, आच्छादन करना है। 

राम के माथे मौरी, चंदन सो लीलार। चंदन बहुत ही शुद्ध माना जाता है।

‘कथी केरा दियवा महादेव, माटी केरा दियवा महादेव’ लोकगीत गाकर सुनाया।

‘गज मोती चउका पुराई ले,

कलसा रखाइले हो,

 छठ मईया चारों ओरिया दियवा जराई लें,

 तोहके बोलाई ली हो।

जिस चौक पूरन का वीडियो दिखाया गया उसमें स्वास्तिष्क चिह्न था जो शुभ माना जाता है। इसको नाउन संपादित करती हैं उन्हें नेग भी मिलता है। यहां इन संदर्भों में समाज की ऊंचता नीचता का भाव टूटता है। 

अड़बी‌ दड़बी कइसे बोलब, पीला लाल चुनरी कइसे पहिनब, ऐसा नायिका इसलिए बोल रही क्योंकि उसे लग रहा था जब उसके मायके से कोई नहीं आया तब उन चीज़ों का क्या मतलब। तब से नायिका को घोड़े के हिनहिनाने की आवाज आती है। नायिका को भान हो जाता है कि उसका भाई आ चुका है।

कोहबर, अर्थात् कोह, गुफा में जब पहली बार वर/ दूल्हा प्रवेश करता है। प्रवेश के समय हँसी ठिठोली होती है, दोहा पढ़वाया जाता है। दोहा इसलिए पढ़वाया जाता था ताकि पता चल सके कि वर पढ़ा लिखा है कि नहीं।

मिथिला के कोहबर में मछली की आकृति और चांद सूरज का चित्र बना होता है। सूरज और चांद तब रहेंगे जब तक यह जहान है। 


गंगा जमुना क जब तक धार रहे

अचल रहे रहीबाड़ हो। ऐसा भी लिखा जाता है। एक ऐसा गीत भी लिखा गया है कि कोहबर में जाते ही दूल्हे पर टोना ही गया है। एक नया तरह का कोहबर जहां जाकर वर की मति फिर गई है। कोहबर में पान के पत्ते भी बनते हैं। चारु चिरइया भी बनाया जाता है। यहां कलाकार की सृजनशीलता ट्रेंड नहीं है बल्कि बनाते समय जो भाव और आकृति आते हैं वो भी बनाते चलती हैं। गोधन में गोबर से सांप, बिच्छू, दो यम के दूत बनाए जाते हैं, जिन्हें कूटा जाता है क्योंकि यम को भाई का दुश्मन माना जाता है। सांप भी बनाया जाता है, गोजर, चूल्हा, चौका भी बनाया जाता है। महावार लगाते समय जब मांगलिक कार्यों में लगाया जाता है तब पूरा भरा जाता है जबकि अमांगलिक समय, दसवां में जैसे, तब पूरा नहीं भरा जाता एक स्थान छोड़ दिया जाता है। कोहबर में सात मईया और पंचोंपासना के देवता भी बनते हैं।


लोकविद् छायाकार डॉ. राधाकृष्ण गणेशन जी ने कला की प्रस्तुति सहित वक्तव्य दिया। उन्होंने बताया कि लोक कला और शास्त्रीय कला की तुलना नहीं करनी चाहिए नहीं तो लोककला में परिवर्तन उपस्थित हो जाता है। किसी देश का विकास उसकी संस्कृति पर निर्भर करता है। भारत भूमि को कला भूमि कहा उचित होगा। कलाएं जितनी नियम और शर्तों में नहीं जीती उतना परम्पराओं में जीती हैं। लोक कला के भूमि चित्र के विषय में बताते हुए उन्होंने बताया कि जमीन पर बनाने वाले चित्र को चौक और दीवार पर बनाने वाले चित्र को थाप भी कहते हैं। विभिन्न मंगल पर्व पर ये बनाए जाते हैं। उसमें मंगल कामना है। विभिन्न भूमि चित्रों के नाम अलग अलग राज्यों में अलग अलग हैं। अल्पना, रंगोली, ओणम इत्यादि। लोककला के स्वरूप को जानने हेतु भारत के विभिन्न राज्यों की परम्पराओं को भी जानना होगा। 

चौक का अर्थ है वर्ग और पूरना का मतलब भरना है। इसका प्रारंभ पंजाब से माना जाता है। लोककला की पृष्ठभूमि में महिलाओं का ही योगदान है। उन्हें कोई फाइन आर्ट्स पढ़ने की जरूरत नहीं है। दक्षिण भारतीय उसको कोलम बोलते हैं। दक्षिण भारत में रोज यह नियम है कि सूर्योदन के पहले महिला को उठ जाना चाहिए। देवालय को पानी से धोकर सुखा देना चाहिए। हल्का गिला रहता है तो बाहर रंगोली बनाती हैं। वो रोज कुछ नया करती हैं। उसमें इतने डिज़ाइन आ गए कि पता लगाना मुश्किल है कौन पारम्परिक है। अब रंगोली का स्टीकर आ गया। एक लगा दीजिए से साल भर के लिए शान्त। पंजाब के बाद हिमाचल में भूमिकला को लिखनूं और ऐपन कहा जाता है। इसके बारे में सचित्र बताया। रंग और उली अर्थात् आनंद विभोर हो जाना। नवग्रह की संतुष्टि के लिए ज्योतिष भी चौक बनाते हैं। सरस्वती चौक का चित्र प्रस्तुत करते हुए बताते हैं चार कोनों में स्वास्तिष्क चिह्न बनाया जाता है। राजस्थान में इसे मांडना कहते हैं। मध्यप्रदेश में वो उसे मांडना कहते हैं। मांडना अर्थात् सजाना। राजस्थान में दो पैरों का जोड़ी अर्थात् पगल्या बनता है। पगल्या में बिजनी अर्थात् हाथ का पंखा बनाते हैं क्योंकि राजस्थान गर्म प्रदेश हैं। तमिलनाडु में कोलम बनाती महिलाओं का चित्र प्रस्तुत करते हुए उसके विषय में उन्होंने बताया। आपको विश्वास नहीं होगा उनका हाथ जैसे प्रिंटर हो। कोई अनुपात नहीं, कोई नाप नहीं। वो ए फोर साइज, दस फिट के माप में बना देंगी। अंग्रेज लोग देखने आते हैं। आनंद, हर्ष, उत्साह होगा तभी आप बना पाएंगे। रोते हुए कोई नहीं बना सकता। लोककला अपने आप में एक पावर है। आटे से बनाई रंगोली को शाम तक चींटियां खा जाती हैं। एक करुणा का भाव, एक श्री का भाव रहता है। चौक भाव अभिव्यक्त करते हुए सौंदर्यात्मक अर्थ भी रखता है। राम शब्द सिंह जी द्वारा बनाए गए चौक का चित्र प्रस्तुत किया गया जिसमें दोहा लिखा गया था, ‘चौके चारु सुमित्रा पूरी’।

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आरा के भोजपुरी चित्रकार, कैथी लिपि विशेषज्ञ श्री संजीव सिन्हा जी द्वारा निर्मित कलाकृति का अनावरण किया गया। चित्र में ठेठ भोजपुरिया रंग है जो उभर कर आया है। उन्होंने बताया कि हमनी के जब भी भोजपुरी चित्र क बात करल जाला त मधुबनी चित्र क नाम जरूर आवेला। जबकि भोजपुरी चित्रकला अउर मधुबनी कला में अंतर बा। मधुबनी में स्पेस नाही छूटेला जबकि भोजपुरी चित्रकला में छूटेला। चित्र में कारीगरी परम्परा भी आईल। बढ़ई क चित्र भी बनवाल जाला। विवाह में सब कारीगर के जोड़ल गयल बा। छठ में जब तक बांस के सूप ना आई, तब तक पूरा ना होई। सूप के लीआई डोमीन। ओकरा के हम लोग साल भर उपेक्षित कर सकीला लेकिन छठ पर्व के समय नाही। विक्रम संवत् क शुरूवात कार्तिक माह में भयल बा। गोर्वधन पूजा के दिन से ओकर शुरुवात मानल जाला। शक संवत् क शुरुआत चैत्र शुक्ल पक्ष में बनल। हमनी क सबसे पुरान कैलेंडर विक्रम संवत् बा। उन्होंने बताया कि सर्जना ट्रस्ट करके हमनी के एगो पेज बनउले बारी। कोहबर और पीडिया के बारे में बताया। इसकी शुरूवात कब हुई और कैसे हुई। हरा बैकग्राउंड पीडिया में होला अउर कोहबर क पीला। जो पर्व आवेला ओहके हमनी के पीडिया में कोहबर के रूप में चित्रित करिला जा। हमनी के चित्र में उद्देश्य कैथी में लिखिला ओकर साथे देवनागरी में भी लिखिला जा। अभी पचकोसी के समय बक्सर में बाटी चोखा बनल त ओकरा के हमनी चित्रित कइली। 

द्वितीय दिवस के कार्यशाला की प्रस्तोता भोजपुरी की लोकप्रिय युवा कवयित्री, लोकगीत सी लड़की संग्रह की रचयिता आकृति विज्ञा ‘अर्पण’ थी। वे बताती हैं कि भोजपुरी लेखन में सबसे आवश्यक बात है लय और उसकी आंचलिकता को पकड़े रहना। जैसे आप कजरी ले रहे हैं तो उसके चार पांच लय पता होना चाहिए। हमें पारंपरिक लय के साथ समय के सापेक्षता को भी देखना पड़ेगा। महेन्द्र मिश्र जी पूर्वी के प्रसिद्ध कलाकार हैं। ‘अंगुली में डसले बा नगीनिया रे ऐ ननदी दियना जरा दा’ पिया को बुलाना है तो पर्दादारी में बुला रही है। भोजपुरी में पर्दादारी की अलग खूबसूरती है।

‘अरे रामा गइले गिरमिटिया रे हरि’ साहित्य का सबसे ज़रूरी पक्ष है सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।

समधी त लागे कोहबर के गोबर शिवशंकर हरि

समधिन त लागे जइसे गेरुवा के रंग शिवशंकर हरि।

कोहबर को लेकर इस तरह की गालियां भी गाईं जाती हैं। 

आभार ज्ञापन डॉ. अम्बरीष कुमार चंचल ने किया। उन्होंने बताया कि शहर के पशु बहुत स्थिर होते हैं लेकिन गांव के पशु कभी स्थिर नहीं रहेंगे। कूदते फांदते रहेंगे। यह गांव की देन है। शहर के बुजुर्ग बिस्तर पर पड़े रहेंगे जबकि गांव के बुजुर्ग ठाठ से रहते हैं जो बिस्तर पर नहीं पड़े रहते। दक्षिण में अस्सी वर्ष के ऊपर के चार पांच बुजुर्ग साथ समूह में बैठे हैं कुछ भी नहीं बोल रहे लेकिन साथ बैठे रहने के वाइब्स का आनंद ले रहे थे। लोक कलाएं इसलिए विलुप्त हो रही हैं क्योंकि लोक का स्वरूप ही विलुप्त हो गया है। इन सब बातों के पश्चात् उन्होंने आभार ज्ञापन किया।

श्री सुदामा सिंह, श्री शंभूनाथ शास्त्री, प्रो. आशीष त्रिपाठी, डॉ. अम्बरीष कुमार चंचल, सहित विद्यार्थियों और शोधार्थियों की उपस्थिति रही।

प्रतिवेदन : कु. रोशनी उर्फ़ धीरा, शोध छात्रा, हिन्दी विभाग, बीएचयू।


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