Poetry: सपनों की पहली ईंट बनें
सपनों की पहली ईंट बनें
–डॉ मंजू मंगलप्रभात लोढ़ा
दिन भर हमारे घर में कुछ परछाइयां चुपचाप चलती रहती हैं,
कहीं बर्तनों की खनक, कहीं झाड़ू की सरसराहट, कहीं रसोई की महक,
वह बोलते कम हैं, पर हमारा सारा परिवार संभालते हैं,
घर के आंगन में जो चुपचाप हमारी थकान बांट जाते हैं।
रोजमर्रा की उलझन में मुस्कान की डोरी थाम जाते हैं।
रसोईया हो या ड्राइवर या सहायक—नाम चाहे जो भी हो,
पर भुमिका एक हैं हमारे जीवन के अनकही रीढ़,
हमारी बेफ़िक्री की मुस्कान का आधार वही हैं।
हम सब समाज सेवा करते हैं—कहीं दान देते हैं,
कहीं ज़रूरतमंदों की मदद करते हैं, किसी संस्था को समर्थन,
यह सब अद्भुत है, प्रशंसनीय हैं निस्संदेह।
पर क्या हमारे घर में कोई अनसुना अनदेखा हाथ उम्मीद से नहीं देख रहा?
क्या हम उन लोगों की मदद कर रहे हैं, जो हर दिन निःशब्द हमारी सेवा करते हैं?
सुबह आँख खुलने से पहले जिसने चाय चढ़ाई होती है,
काम पर जाने से पहले हमारा कमरा साफ कर जाता है,
और दरवाज़े पर गाड़ी तैयार मिलती है क्योंकि कोई भोर से जागा है।
हर रोज़—बिना शिकायत, बिना छुट्टी, बिना तकरार,
ये लोग हमारा जीवन कितना सहज, कितना सरल कर देते हैं,
क्या हमने कभी पूछा, उनका दिन कैसे बीता?
उनके बच्चे स्कूल जा पा रहे हैं या नहीं?
बीमारी में उन्होंने दवा ली या यूँ ही सहते रहे?
उनके घर की छत ढंग की है या टपकती है हर बरसात में?
क्या उन्हें भी कभी छुट्टी, मुस्कान, सम्मान का एक क्षण मिला?
कभी किसी ने पूछा—“तुम ठीक हो न?” बस इतना ही।
क्यों न हम उनके सपनों की पहली ईंट बनें,
उनके बच्चों की फीस भरें, बीमारी में उनके माथे पर दुआ रखें,
उनका भी घर थोड़ा संवार दें, थोड़ा संजो दें,
और साल में एक दिन सिर्फ उनके नाम की खुशी रचें।
एक छोटी-सी पार्टी—जहाँ वे मुस्कुराएँ,
जहाँ उन्हें भी लगे वे एक पायदान और ऊँचे खड़े हैं,
सेवा महान है पर सबसे महान वह,
जो घर से शुरू होती है—अपनेपन की रोशनी बनकर।
विश्वास मानिए, अगर हम इन लोगों के जीवन में
थोड़ी-सी रोशनी भर दें, बस थोड़ा सा स्नेह,
तो समाज सेवा स्वयं झुककर हमारे कदमों में खड़ी होगी,
क्योंकि सच्ची सेवा यही है—मानवता का सबसे बड़ा रूप यही है।
क्या आप मेरी इस बात से सहमत है?

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